-फ़िरदौस ख़ान
हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह सुप्रसिद्ध सूफ़ी हैं. उन्हें सुल्तान-ए-हिन्द, ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ और ख़्वाजा अजमेरी अता-ए रसूल के नाम से भी जाना जाता है. वे अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की औलादों में से हैं. उनकी दरगाह राजस्थान के अजमेर में है. यहां दुनियाभर से ज़ायरीन आते हैं. ख़्वाजा साहिब की वजह से ही अजमेर को अजमेर शरीफ़ भी कहा जाता है. ख़्वाजा साहिब चिश्तिया सिलसिले से ताल्लुक़ रखते हैं.
क़ाबिले-ग़ौर है कि सूफ़ीवाद का चिश्तिया तरीक़ा हज़रत अबू इसहाक़ शामी रहमतुल्लाह अलैह ने ईरान के शहर चिश्त में शुरू किया था. इसलिए इस तरीक़े या सिलसिले का नाम चिश्तिया पड़ गया. जब ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह हिन्दुस्तान आए, तो उन्होंने इसे दूर-दूर तक फैला दिया.
हिन्दुस्तान के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी चिश्तिया सिलसिला ख़ूब फलफूल रहा है. दरअसल यह सिलसिला भी दूसरे सिलसिलों की तरह ही दुनियाभर में फैला हुआ है. ख़्वाजा साहिब का जन्म 9 रजब 530 हिजरी को सीस्तान के संजर में हुआ था.
अब यह इलाक़ा ईरान के दक्षिण पूर्वी हिस्से में है, जो अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान की सरहद से लगा हुआ है. संजर में जन्म होने की वजह से उन्हें संजरी भी कहा जाता है. बहुत कम उम्र में ही उनके वालिद का साया उनके सिर से उठ गया था.
ख़्वाजा साहिब ने इस नाक़ाबिले-बर्दाश्त दुख को अपने दिल में दफ़्न कर लिया और हर वक़्त इबादत में मशग़ूल रहने लगे. उन्होंने पैदल चलकर ही 51 हज किए थे. वे एक दिन में दो क़ुरआन पढ़ लिया करते थे. उनकी ज़िन्दगी बहुत ही सादगी भरी थी.
कहा जाता है कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कम कपड़े बनाए. उनका लिबास कहीं से फट जाता था, तो वे उस पर पैबंद लगा लिया करते थे. पैबंद की वजह से उनका लिबास इतना भारी हो गया था कि उनकी वफ़ात के बाद उसे तौला गया तो उसका वज़न साढ़े बारह सेर था.
हज़रत शेख़ इब्राहिम कंदौजी से उन्हें रूहानी सफ़र पर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली. ख़्वाजा साहब का दिल दुनियादारी से उचट चुका था. वे हज के लिए मक्का चले गए. वहां उनकी मुलाक़ात हज़रत शेख़ उस्मान हारूनी से हुई.
उनसे मुतासिर होकर ख़्वाजा साहिब उनके मुरीद बन गए. उन्होंने ख़्वाजा साहिब को अपना भी ख़लीफ़ा बना दिया. इसके बाद उन्होंने अपने पीरो-मुर्शिद के साथ मक्का और मदीने की ज़ियारत की. वहां से उन्हें हिन्दुस्तान आने का हुक्म मिला. हुक्म की तामील करते हुए वे अपने कुछ मुरीदों के साथ हिन्दुस्तान आ गए और अजमेर में क़याम किया.
यहां से उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई. उन्होंने लोगों को मुहब्बत, सच्चाई और भाईचारे का पैग़ाम दिया. वे कहते थे कि इस समूची कायनात की तामीर करने वाला अल्लाह एक है और सभी इंसान उसके बन्दे हैं. इसलिए अल्लाह के हर बन्दे से मुहब्बत करनी चाहिए.
ज़रूरत पड़ने पर उसकी हर मुमकिन मदद करनी चाहिए. यही इंसानियत का तक़ाज़ा है. वे कहते थे कि ज़िन्दगी के सबसे बेहतरीन पल वो हैं, जब इंसान अपनी ख़्वाहिशात पर क़ाबू पा लेता है. दुनिया में दानिश्वरों और बड़ों की इज़्ज़त करने से बढ़कर कोई बात नहीं है.
अच्छे लोगों की सोहबत अच्छाई से अच्छी है और बुरे लोगों की सोहबत बुराई से बुरी है. जो भी उनसे मिलता, उनकी बातें सुनता, बस उन्हीं का होकर रह जाता. दूर-दराज़ से लोग उनके पास आते. उनके मुरीदों में सभी मज़हबों को मानने वाले लोग शामिल हैं. इसलिए उनकी ख़ानकाह पर आज भी सभी मज़हबों के त्यौहार हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं.
ख़्वाजा साहब ने दो किताबें अनीसुल अरवाह और गंजुल असरार भी लिखीं. ये किताबें उच्च कोटि की मानी जाती हैं. वे शायर भी थे. उनकी शायरी का संग्रह दीवाने मुईन नाम से प्रकाशित हो चुका है. इसमें तक़रीबन अढ़ाई सौ रचनाएं शामिल हैं.
उनकी तालिमात में फ़िक्रे-इलाही, तिलावते-क़ुरआन, इश्क़े रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, ज़ियारते-ख़ाना-ए-काबा, वालिदैन की ख़िदमत, मुहब्बत-ए-बुज़ुर्गाने-दीन, उलेमा-ए-इकराम और ख़िदमत-ए-मुर्शिद को ख़ास अहमियत हासिल है.
6 रजब को 633 हिजरी को इशा की नमाज़ के बाद ख़्वाजा साहिब इबादत में मशग़ूल हो गए. इसी दौरान उनकी वफ़ात हो गई. ख़्वाजा साहिब ने बेशक हिन्दुस्तान में जन्म नहीं लिया, लेकिन यहां आने के बाद वे ता उम्र यहीं के होकर रहे.
उनकी ख़ानकाह में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होता था. उनके यहां ऊंच-नीच, अमीर-ग़रीब, जाति-पांत आदि का कोई भेद नहीं था. आज भी उनकी दरगाह पर सभी मज़हबों के ज़ायरीनों की भीड़ लगी रहती है. हर साल हिजरी कैलेंडर के मुताबिक़ 1 से 9 रजब तक दरगाह पर उर्स का आयोजन किया जाता है.
6 रजब को पहला क़ुल और नौ रजब को दूसरे क़ुल के साथ उर्स ख़त्म हो जाता है. रजब का चाँद नज़र आते ही यहां ज़ायरीनों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता है. उर्स के शुरू से ही दरगाह में परचम फहराया जाता है और जन्नती दरवाज़ा खोल दिया जाता है.
कहा जाता है कि सुल्तान ग़यासुद्दीन ख़िलजी ने यहां दरगाह और गुम्बद की तामीर करवाई थी. ये कहा जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर आगरा से पैदल चलकर ख़्वाजा की दरगाह में आए थे. बादशाह अकबर ने भी यहां पर बहुत काम करवाया. उन्होंने यहां मस्जिद, बुलंद दरवाज़ा और महफ़िलख़ाने की तामीर करवाई थी.
ख़्वाजा साहिब की वजह से अजमेर दुनियाभर में मशहूर है. ख़्वाजा साहिब के उपदेश और शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उस वक़्त थीं. ये भविष्य में भी लोगों की रहनुमाई करती रहेंगी.
ख़्वाजा साहिब का ये कलाम दुनियाभर में मशहूर है-
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीं-पनह अस्त हुसैन
सर दाद न दाद, दर दस्ते-यज़ीद
हक़्क़ा कि बिना-ए-लाइलाह अस्त हुसैन
यानी
शाह भी हुसैन हैं और बादशाह भी हुसैन हैं
दीन भी हुसैन हैं और दीन की पनाह भी हुसैन हैं
सर दे दिया, पर यज़ीद के हाथ में अपना हाथ नहीं दिया
हक़ीक़त यही है कि लाइलाहा की बुनियाद हुसैन हैं.