फैजान खान /आगरा
शहर-ए-अकबराबाद ने वो मारूफ शायर दिए, जिन्हें दुनिया आज भी बड़े अदब से याद करती है. आगरा की सरजमीं को मीर, नजीर और गालिब की नगरी के नाम से भी जाना जाता है. आज अजीम शायर मीर तक़ी मीर की पुण्यतिथि है. ये वही शायर हैं, जिन्हें दुनिया इमाम-ए-गजल कहती है.
इनकी गालिब, नजीर और फिराक जैसे शायर भी तारीफ कर चुके हैं. मगर आगरा वालों ने ही अपने शायर को भुला दिया. यहां साल में एक-दो बार नजीर और गालिब को तो याद कर लेते हैं, पर मीर याद नहीं रहते. जबकि मीर ने भी गालिब और नजीर की तरह अपना बचपन आगरा की गलियों में बिताया. वालिद के इंतकाल के बाद मुसीबतों का पहाड़ टूटा तो वे दिल्ली कूंच कर गए.
इसके बाद दिल्ली से लखनऊ के नवाब आसफ उद दौला के दरबार में पहुंचे. अपनी जिंदगी के बाकी दिन उन्होंने लखनऊ में गुजारे. 20सितंबर 1810को मीर दूनिया से कूच कर गए थे.
आगरा से दिल्ली चले मीर
मीर तक़ी मीर ने आगरा में जन्म लिया. जब वे करीब दस साल के थे तो वालिद सूफी मीर अली मुत्तकी का इंतकाल हो गया. इसके बाद चाचा और मामू ने कुछ दिन परवरिश की, पर दोनों के सख्त रवैये से मीर को आगरा छोड़ना पड़ा.
बाद में भाई हाफिज मोहम्मद हसन ने वालिद की पूरी जायदाद हड़प् ली. वालिद के इंतकाल के बाद उन पर 300रुपयों का कर्ज हो गया. पैतृक सम्पत्ति के नाम पर सिर्फ कुछ किताबें ही मिलीं. सिर से कर्ज का बोझ उतारने के लिए वे आगरा से दिल्ली कूच कर गए.
दिल्ली में बने शाही शायर
मोहम्मद मीर उर्फ मीर तक़ी मीर की पैदाइश आगरा में फरवरी 1723 में हुई थी. उर्दू एवं फारसी भाषा के मीर महान शायर थे. उनका बचपन आगरा की हींग की मंडी में पिता की देखरेख में गुजरा. वालिद के गुजर जाने के बाद वे 10 साल की उम्र में दिल्ली चले गए.
दिल्ली में अपनी पढ़ाई पूरी की और शाही शायर बन गए. दिल्ली में उनकी मुलाकात ख्वाजा मोहम्मद बासित से हुई. बासित ने मीर को नवाब शमसुद्दौला से मिलवाया. नवाब शमसुद्दौला ने मीर के गुजारे के लिए एक रुपया रोज मुकर्रर कर दिया.
चार-पांच साल बीते हांेगे कि 1739में नादिर शाह ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी. शमसुद्दौला मारे गए. मीर की जिंदगी में फिर मुश्किलें आ गई. वह आगरा वापस चले गए. आगरा में अपनों ने गले नहीं लगाया तो कुछ दिनों बाद वह फिर दिल्ली लौट गए.
मीर अपनी शायरी के दम पर बहुत मशहूर हुए. लखनऊ के नवाब आसफउद्दौला को उनके बारे में पता चला तो उन्होंने मीर को लखनऊ बुला लिया. यहां 300रुपये महीने पर उन्हें रख लिया गया.
तोहफे के बदले शेर पढ़ने से किया था इनकार
मीर की शायरी में संजीदगी दिखती है. वे खुद्दार भी थे. कहते हैं कि एक बार लखनऊ के एक नवाब ने उन्हें अपने यहां बुलाया और कुछ तोहफों के बदले उनसे शेर पढ़ने को कहा. शुरुआत में तो मीर ने मना कर दिया,जब नवाब ने जोर डाला तो मीर ने कह दिया कि वह उनकी शायरी नहीं समझ पाएंगे.
इस पर नवाब ने कहा कि हम महान पर्शियन कवियों अनवरी और खकानी की शायरी समझते हैं. इस पर मीर बोले - मुझे यकीन है आप समझते होंगे, लेकिन मेरी शायरी समझने के लिए आपको उस भाषा को समझना जरूरी है जो दिल्ली की जामा मस्जिद के बाहर बोली जाती है. इसकी जानकारी आपको नहीं है.
ठुकरा दिए थे नवाब के हजार रुपये
ये उनकी खुद्दारी ही थी कि वे ज्यादा लंबे वक्त तक उनकी नवाब आसफउद्दौला से भी नहीं बनी. कभी-कभी मीर बहुत गुस्सैल हो जाते थे. एक किस्सा है कि एक बार नवाब का बर्ताव उनके प्रति बेरुखा हो गया. इस बात पर मीर इस कदर टेढ़े पड़ गए कि नवाब के 1000 रुपये ठुकरा दिए.
लखनऊ और दिल्ली की तहजीबों में अंतर, लखनऊ वालों का उनकी शायरी को कम आंकना उन्हें कम भाता था. एक बार चिढ़कर उन्होंने लखनऊ वालों से कह दिया, ‘हनोज (अब तक) लौंडे हो, कद्र हमारी क्या जानो? शऊर चाहिए इम्तियाज (भेद) करने को.’
ऐसा कहते हैं कि मीर ने अपनी जिंदगी में इतनी बुरी परिस्थिति देखीं कि उनके दिमाग पर गुस्सा हावी रहने लगा. इसकी वजह से वह लोगों से झगड़ जाते थे. कुछ लोग तो उन्हें बेदिमाग तक कह देते थे.
मीर की बातों से नाराज होकर नवाब ने उनको दिया जाने वाला वजीफा बंद कर दिया और मीर एक बार फिर मुफलिसी से घिर गए.ये वो वक्त था, जब मीर दिल्ली से लखनऊ आने के अपने फैसले को कोस रहे थे. इस पर मीर लिखते है-
खराब दिल्ली का वो चांद बेहतर लखनऊ से था, वहीं मियां खास मर जाता, सारा सीमा न आया यहां.
फिल्मों में उनकी शायरी
-दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया, हमें आप से भी जुदा कर चले
न देखा गम-ए-दोस्ताँ शुक्र है, हमें दाग अपना दिखा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से मीर, जहां में तुम आए थे क्या कर चले
मीर द्वारा लिखे इस कलाम को 1982में आई फिल्म बाजार में लता मंगेशकर ने गाया.
-पत्ता पत्ता बूटा बूटा, हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है
तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना मीर भी नादां तल्खी-कश
दुम-दार आब-ए-तेग को उस के आब-ए-गवारा जाने है
- मीर द्वारा लिखे इस कलाम को 1972 में आई फिल्म एक नजर में गाया गया. इसे आवाज दिया था लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी ने.
दो-तीन साल ही हुआ कार्यक्रम
गालिब और नजीर पर तो शहर में हर साल कुछ न कुछ कार्यक्रम होते रहते हैं लेकिन मीर पर कोई प्रोग्राम नहीं होता. एक बार सेंट जोन्स कॉलेज के उर्दू विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर शफीक अशरफी ने मीर तकी मीर पर तीन दिन का सेमिनार रखा तो शायर शाहिद नदीम और डॉक्टर इसरार अहमद ने अहवान-ए-मीर के तहत दस साल पहले एक-दो प्रोग्राम किए लेकिन आर्थिक कारणों से प्रोग्राम बंद हो गए.
दुनिया के मशहूर शायर भी मानते हैं मीर का लोहा
मिर्जा गालिब, नजीर अकबराबादी, अमजद अली शाह, असगर अकबराबादी, शेख इब्राहिम जौक, रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, नवाब मिर्ज़ा खान दाग, मिर्जा हातिम अलीग बेग, माहिर अकबराबादी, अकबर इलाहाबादी, इंतजाम उल्लाह शहाबी, मोहसिन हैदराबादी, सीमाब अकबराबादी,
मीर के कुल्लियात में 6बड़े दीवान गजलों के हैं. इनमें कुल मिलाकर 1839गजलें और 83फुटकर शेर हैं. इसके अलावा आठ कसीदे, 31मसनवियाँ, कई हजवें, 103रुबाइयां, तीन शिकारनामें आदि बहुत सी कविताएं है. कुछ वासोख्त भी हैं.
इस कुल्लियात का आकार बहुत बड़ा है. इसके अतिरिक्त एक दीवान फारसी का है जो दुर्भाग्यवश अभी अप्रकाशित है. कई मर्सिए भी लिखे हैं जो अपने ढंग के अनोखे हैं. एक पुस्तक फारसी में फैजे-मीर के नाम से लिखी है.
बुद्धिजीवियों का दर्द
आगरा में पैदा हुए मीर ने अपनी जिंदगी के 28बरस यहां बिताए, मगर शहर से उतना प्यार नहीं मिला जिसके वो हकदार थे. आगरा में आज से दस साल पहले कुछ लोगों ने इसकी शुरूआत की थी लेकिन आगे ये कारंवा किसी वजह से नहीं बढ़ सका. दानिशवरों को बैठकर इसपर विचार करना चाहिए. आगरा ने दुनिया को मीर, नजीर और गालिब जैसे शायर दिए हैं. इस पर आगरा वालों को फख्र करना चाहिए.
सूफी, सैयद फैज अली शाह, नायब सज्जादा, खानकाह कादरिया नियाजिया, आस्ताना मैकश
आगरा के मिर्जा गालिब ने जिस जुबान में शायरी की, वह उनको मीर तकी मीर से विरासत में मिली थी. जो लोग मिर्जा गालिब की शायरी के आशिक हैं, उन्हें चाहिए कि वह उनसे पहले मीर, उनकी जुबान और शायरी को याद करें.
उर्दू शायरी की पूरी इमारत जिन 5सुतूनों (खंभों) पर कायम है. इनमें पहला सुतून (खंभा) मीर तकी मीर ही हैं. आगरा को यह फख्र हासिल है कि उसने हिंदुस्तान को 5अजीम तोहफे दिए है. इनमें मीर तक़ी मीर, मिर्जा गालिब, मियां नजीर अकबराबादी और ताजमहल.
-डॉ सैयद इख्तियार जाफरी, निदेशक, मिर्जा गालिब रिसर्च एकेडमी, आगरा