-फ़िरदौस ख़ान
त्यौहारों का ताल्लुक़ सिर्फ़ मज़हब से ही नहीं होता है, बल्कि ये संस्कृति से भी वाबस्ता होते हैं. मज़हब किसी एक देश से शुरू होता है. फिर वह धीरे-धीरे दुनियाभर में फैल जाता है. हर देश, हर प्रदेश और हर क्षेत्र की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान होती है. वहां के बाशिन्दों की अपनी भाषा, अपना रहन-सहन और अपना खान-पान होता है.
किसी मज़हब को अपनाते हुए वे अपनी अक़ीदत तो बदल लेते हैं, लेकिन उनका रहन-सहन नहीं बदलता. शबे-बरात भी एक ऐसा ही मुस्लिम त्यौहार है, जिसकी जड़ें भले ही अरब में रही हों, लेकिन यह हिन्दुस्तान में आकर यहां की संस्कृति में ढल गया और इसका एक अहम हिस्सा बन गया.
शबे-बरात का त्यौहार इस्लामी साल के आठवें माह शाबान की पन्द्रहवीं तारीख़ को मनाया जाता है. जैसा कि पहले भी ज़िक्र किया गया है कि शब का मतलब है रात और बरात का मतलब है बरी होना. इसीलिए इस रात को निजात वाली रात कहा जाता है.
इस रात अल्लाह की बेशुमार रहमतें नाज़िल होती हैं, इसलिए इसे रहमत वाली रात भी कहा जाता है. बेशुमार बरकतों की वजह से इसे बरकत वाली रात भी कहा जाता है. चूंकि इस रात आइन्दा जन्म लेने वाले बच्चों के नाम अल्लाह के यहां लिख दिए जाते हैं और आइन्दा मरने वाले लोगों के नाम काट दिए जाते हैं, इसलिए इसे परवाना रात भी कहा जाता है.
अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि शाबान मेरा महीना है. इसलिए इस माह और ख़ासकर इस रात की बड़ी अहमियत है.
साफ़-सफ़ाई
शाबान का चाँद नज़र आते ही घरों में शबे-बरात और रमज़ान की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. शबे-बरात दिवाली जैसा त्यौहार लगता है. जिस तरह दिवाली से पहले हिन्दू अपने घरों की साफ़-सफ़ाई करते हैं, उसी तरह मुसलमान भी शाबान का महीना शुरू होते ही अपने घरों की साफ़-सफ़ाई करने लग जाते हैं.
घरों में रंग-रौग़न किया जाता है. चूंकि रमज़ान में रोज़ों और तरावीह की वजह से मसरूफ़ियात बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है. इसलिए इसी माह रमज़ान के साथ-साथ ईद की तैयारियां भी शुरू हो जाती हैं. रमज़ान और ईद की ख़रीददारी जैसे काम भी शाबान में ही मुकम्मल कर लिए जाते हैं.
हलवा
दिवाली की तरह ही शबे-बरात को घर में शीरनी बनाई जाती है. सूजी और चने की दाल का हलवा बनाया जाता है. यह हलवा रिश्तेदारों और जान-पहचान वाले लोगों को भेजा जाता है. नर्गिस बताती हैं कि उनके घर तक़रीबन दस किलो सूजी और इतना ही चने की दाल का हलवा बनता है.
चने की दाल का हलवा बनाने में बहुत वक़्त और मेहनत लगती है. इसलिए इसकी तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती है. चने की दाल को भिगोया जाता है. फिर इसे इतने पानी में उबाला जाता कि वह ख़ुश्क हो जाए. फिर दाल को सिल बट्टे पर पीसा जाता है, क्योंकि इसे सूखा ही पीसना होता है.
इसके बाद इसे तश्तरी में फैलाकर सुखाया जाता है. फिर इसे कढ़ाही में भूना जाता है. इसी तरह सूजी को भी भून लिया जाता है. शबे-बरात से एक दिन पहले इन्हें चाशनी में मिलाकर सूखा हलवा यानी बर्फ़ी बनाई जाती है. फिर बड़ी-बड़ी तश्तरियों में इसे फैलाकर उस पर सूखे मेवे डाले जाते हैं और चाँदी के वर्क़ लगाए जाते हैं.
शबनम बताती हैं कि मुस्लिम इलाक़ों में शाबान में हलवाई भी शबे-रात का हलवा बनाते थे. हलवे के लिए उन्हें पहले से ही ऑर्डर दे दिए जाते थे. बाक़ी मिठाइयों के साथ-साथ वे हलवा बनाने में जुट जाते थे. लेकिन वक़्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है.
अब वह पहले वाली रौनक़े नहीं रहीं. बहुत से लोगों ने नियाज़-नज़र छोड़ दी है. इसलिए वे अब शबे-रात पर सूखा हलवा भी नहीं बनवाते. इस सबके बीच आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो अपनी इन रिवायतों को ज़िन्दा रखे हुए हैं.
नियाज़
हलवे के साथ-साथ शबे-बरात के दिन मसूर की दाल बनाने की रिवायत भी है. इस दिन मसूर की दाल, रोटी और हलवे पर नियाज़ दी जाती है. लोग शीरनी तक़सीम करते हैं. वे ज़रूरतमंदों को खाना भी खिलाते हैं.शाबान में क़ब्रिस्तान में क़ब्रों की मरम्मत का काम शुरू हो जाता है.
जिन क़ब्रों की मिट्टी गिर गई है और क़ब्रें टूट गई हैं, उन्हें ठीक किया जाता है. शबे-बरात को लोग क़ब्रिस्तान जाकर फ़ातिहा पढ़ते हैं और अहले क़ब्रिस्तान को ईसाले-सवाब पहुंचाते हैं और उनके लिए मग़फ़िरत की दुआ करते हैं.
क़ब्रिस्तान में मोमबत्तियां जलाकर रौशनी की जाती है और अगरबत्तियां भी जलाई जाती हैं. बहुत से लोग अपने अज़ीज़ों की क़ब्रों और अन्य क़ब्रों पर फूल रखते हैं. लोग एक-दूसरे से मिलकर अपनी उन ख़ताओं की माफ़ी मांगते हैं, जो उनसे जाने या अनजाने में हुई हैं.
वे एक-दूसरे से कहते हैं कि हमसे जाने या अनजाने में जो ग़लती हो गई हो और जिस बात से आपका दिल दुखा है, उसके लिए हमें माफ़ कर दें और राज़ी रहना. हम भी आपसे राज़ी हैं और हमारा अल्लाह भी राज़ी है. इस तरह कहने से उनके बीच का मनमुटाव आदि भी ख़त्म हो जाता है. और इस तरह वे एक नये बेहतर रिश्ते की शुरुआत करते हैं. इन बातों से ग़ुरूर भी ख़त्म होता है, जो तमाम बुराइयों की जड़ है.
रौशनी
दिवाली की तरह शबे-बरात में घरों में रौशनी की जाती है. चूंकि रात में रहमत के फ़रिश्ते आते हैं, इसलिए घर में रौशनी होनी चाहिए. शिया मुसलमान मानते हैं कि इस दिन बारहवें इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम की विलादत होगी. इसलिए वे उनके जन्म लेने से पहले ही ख़ुशियां मनाते हुए अपने घरों को रौशन करते हैं. शबे-बरात में बच्चे आतिशबाज़ी करते हैं. रौशनी और आतिशबाज़ी देखकर दिवाली का गुमां होता है.
सबीलें
शबे-बरात में मजलिसें होती हैं. रात में लोग इबादत करते हैं. लोगों का मस्जिदों में भी आना-जाना लगा रहता है. इसलिए रातभर चहल-पहल रहती है. शबे-रात में सबीलें लगाई जाती हैं, जैसे चाय की सबीलें, शर्बत की सबीलें और बिरयानी, ज़र्दा, रोटी आदि की सबीलें लगती हैं.
दरअसल, हिन्दुस्तान की संस्कृति एक समन्दर की तरह है, जिसमें मिलकर दुनियाभर की संस्कृतियां एक हो जाती हैं. शबे-बरात इसकी एक मिसाल है.
(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)