मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली
हजरत निजामुद्दीन औलिया, प्रसिद्ध सूफी संत और आध्यात्मिक गुरु, का 721वां उर्स परंपरागत रूप से मनाया जा रहा है. इस खास मौके पर उनके दरगाह पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु और जायरीन एकत्रित हुए, जो उनकी शिक्षाओं और सूफीवाद की धार्मिकता से प्रेरणा लेने के लिए यहां आए थे. उर्स के दूसरे दिन रोजा शरीफ के पास विशेष दुआ का आयोजन किया गया, जिसमें सैकड़ों लोग शामिल हुए.
इस अवसर पर दरगाह कमिटी के अध्यक्ष सैयद फरीद निजामी, जनरल सेक्रेटरी सैयद काशिफ निजामी, सैयद अल्तमश निजामी, और सैयद गुलाम निजामी समेत कई जिम्मेदार हस्तियां मौजूद थीं.दुआ के बाद सभी को लंगर और तबर्रुक दिया गया, जो सदियों से चलने वाली सूफी परंपरा का अभिन्न हिस्सा है.
लंगर का आयोजन एक महत्वपूर्ण पहलू है, जहां हर जाति और धर्म के लोग एक साथ बैठकर खाना खाते हैं, जो सूफीवाद की विचारधारा में समानता और भाईचारे का प्रतीक है.
अंतरराष्ट्रीय सेमिनार: ख्वाजा हजरत सैयद निजामुद्दीन औलिया की जीवनी और शिक्षा
उर्स के अवसर पर "ख्वाजा हजरत सैयद निजामुद्दीन औलिया की जीवनी और शिक्षा" पर आधारित एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया. सेमिनार का उद्घाटन मगरिब की नमाज़ के बाद ख्वाजा हॉल में हुआ, जहां विभिन्न देशों से आए विद्वानों ने हिस्सा लिया.
विशेष अतिथि के रूप में डॉ. सैयद फारूक हामिद अहमद ने अपनी उपस्थिति से सेमिनार को गरिमा प्रदान की. अन्य वक्ताओं में हाफिज फैयाद निजामी, प्रो. सैयद मोहम्मद अजीजुद्दीन हमदानी, फारूक अर्गली, डॉ. अकील अहमद, पाशा कादरी, और खालिद निजामी शामिल थे.
सेमिनार की अध्यक्षता कर रहे प्रो. शरीफ हुसैन कासमी ने हजरत निजामुद्दीन औलिया की जीवनी पर गहन प्रकाश डाला। उन्होंने हजरत निजामुद्दीन के प्रारंभिक जीवन और इस्लाम में उनके योगदान की चर्चा की, और बताया कि कैसे उन्होंने मानवता और प्रेम का संदेश फैलाया.
इस दौरान प्रो. अजीजुद्दीन द्वारा लिखी गई पुस्तक "सुफिया ए दक्कन की सेवाएं: शिक्षा और सांप्रदायिक सद्भाव" का विमोचन भी किया गया, जिसमें सूफियों के शांति और सामाजिक एकता के प्रति योगदान का वर्णन है.
दरगाह में विभिन्न धर्मों के लोग जुटे
उर्स के अवसर पर, दरगाह में विभिन्न धर्मों और समाज के सभी वर्गों के लोग जुटते हैं, जो हजरत निजामुद्दीन औलिया की सर्वधर्म समभाव की शिक्षा को मानते और सम्मानित करते हैं. दरगाह के सेवक सैयद ओमान निजामी ने बताया कि उर्स के मौके पर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अन्य देशों से भी बड़ी संख्या में जायरीन आते हैं. इस साल भी 82 पाकिस्तानी जायरीन भारतीय उच्चायोग से वीजा लेकर दिल्ली पहुंच चुके हैं.
सैयद अल्तमश निजामी ने कहा कि विभिन्न धर्मों के लोग दरगाह पर आकर सिर झुकाते हैं और अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं. हजरत निजामुद्दीन औलिया के संदेश का प्रभाव दुनिया के कोने-कोने तक फैला हुआ है, और हर साल लाखों लोग यहां आकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.
ऐतिहासिक संदर्भ: हजरत निजामुद्दीन औलिया और दरगाह का निर्माण
हजरत निजामुद्दीन औलिया का जन्म 1238 ईस्वी में उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था. उन्होंने चिश्ती संप्रदाय का प्रचार करते हुए दिल्ली का रुख किया और यहां ग्यारसपुर में बस गए। उनका संदेश मानवता, प्रेम और शांति पर आधारित था, जिसे उन्होंने अपनी शिक्षाओं और आध्यात्मिक उपदेशों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया.
उनके सबसे प्रमुख शिष्यों में अमीर खुसरो और हजरत नसीरुद्दीन महमूद चिराग देहलवी शामिल थे, जिन्होंने उनके विचारों को आगे बढ़ाया.हजरत निजामुद्दीन औलिया का निधन 1325 में हुआ, और उनके निधन के बाद तुगलक वंश के शासक मुहम्मद बिन तुगलक ने उनकी दरगाह का निर्माण करवाया. आज तक उनके वंशज ही इस दरगाह की देखरेख करते हैं, और यह दरगाह सदियों से आध्यात्मिकता और धार्मिक सद्भाव का प्रतीक बनी हुई है.
उर्स समारोह और क़व्वाली: श्रद्धांजलि का एक अनूठा तरीका
उर्स के दौरान दरगाह में क़व्वाली की महफिलें सजाई जाती हैं, जो हजरत निजामुद्दीन औलिया को समर्पित होती हैं. क़व्वाली एक ऐसा माध्यम है, जिसके जरिए श्रद्धालु सूफी संतों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. कव्वालों द्वारा गाए गए सूफी गीतों के जरिए हजरत निजामुद्दीन औलिया की महानता और उनकी शिक्षाओं को याद किया जाता है. यह महफिलें उर्स के दौरान एक विशेष आकर्षण का केंद्र होती हैं और हजारों लोग इसमें शामिल होते हैं.
समापन: अमन और भाईचारे का संदेश
हजरत निजामुद्दीन औलिया का उर्स केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह मानवता, प्रेम, शांति और सर्वधर्म समभाव का प्रतीक है. यह आयोजन समाज के विभिन्न वर्गों को एक साथ लाने और सूफीवाद की शिक्षा के जरिए भाईचारे को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है.