राम लाल जिनकी जयंती है : वह ग़ैर-मुस्लिम अफ़साना निगार, जिसने उर्दू अदब की खूब ख़िदमत की

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 01-03-2024
Ram Lal, whose birth anniversary is here: The non-Muslim storyteller who served Urdu literature well
Ram Lal, whose birth anniversary is here: The non-Muslim storyteller who served Urdu literature well

 

-ज़ाहिद ख़ान

राम लाल, उर्दू के अहम अफ़साना निगार हैं.उन्होंने अफ़साने, नॉवेल, यात्रा वृतांत, रेखा-चित्र, रेडियो ड्रामे, डायरी लिखी, तो सहाफ़त के मैदान में भी अपने हाथ आजमाये.लेकिन उनकी अहम पहचान एक अफ़साना निगार के तौर पर ही है.उनकी मादरी ज़ुबान उर्दू नहीं, सराईकी थी पर उन्होंने उर्दू को ही अपने लेखन का ज़रिया बनाया.एक ज़माना था, जब उर्दू अदबी दुनिया में राम लाल के अफ़सानों का ख़ासा ज़िक्र होता था, उन्हें याद किया जाता था.लेकिन वक़्त गुज़रा, दीगर उर्दू शुअरा की तरह लोगों ने राम लाल को भी भुला दिया.

 साल 2023 उनका जन्मशती साल था, पूरा साल गुज़र गया लेकिन कहीं उन पर कोई बात नहीं हुई.न कोई सेमिनार, न कोई कॉन्फ्रेंस.बावजूद इसके राम लाल का क़द छोटा नहीं हो जाता। उर्दू अदब और अफ़साना निगारी की जब भी बात होगी, उनका ज़िक्र ज़रूर छिडे़गा.बहरहाल राम लाल, उस पीढ़ी से तअल्लुक़ रखते हैं, जिन्होंने मुल्क का बंटवारा अपनी आंखों से देखा.

 इसके ज़ख़्म अपने सीने पर खाए.बंटवारे के वह भुक्त भोगी थे.मुल्क की तक़्सीम का उनके परिवार पर गहरा असर पड़ा.पाकिस्तान से हिजरत कर, उनका परिवार भारत आया.यही वजह है कि उनके अफ़सानों में बंटवारे की टीस, प्रवासी जीवन और इंसानी जज़्बात की बेहद संवेदनशील अक्कासी दिखाई देती है.

 उर्दू अफ़साने के सिरमौर सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर, इस्मत चुग़ताई, प्रेमचंद और राजिंदर सिंह बेदी वगैरह के बाद की पीढ़ी के अफ़साना निगारों में राम लाल का नाम अहमियत के साथ लिया जाता है.

अदब के जानिब उनकी बेलाग मुहब्बत और उसकी तख़्लीक़ के लिए मुसलसल कोशिशें किसी से छिपी नहीं। इन्हीं कोशिशों का ही नतीजा था कि उर्दू अदब में उन्होंने जल्द ही अपना एक अलग मुक़ाम बना लिया.

 राम लाल ने एक से बढ़कर एक अनूठे मौजूअ पर असरदार अफ़साने लिखे.अफ़सानों के सब्जेक्ट से लेकर ज़बान, शैली और टेक्नीक के मैदान में उन्होंने नये-नये तजुर्बे किए.

अफ़साने के मैदान में उनके ये तजुर्बे पाठकों को पसंद भी आए.राम लाल के अफ़साने, उनके दौर की दर्दनाक अक्कासी हैं.अपने अफ़सानों में उन्होंने इंसानी रिश्तों और जज़्बात को इस क़दर संजीदगी से उकेरा है कि पाठक ‘वाह-वाह’ कर उठते हैं.

1 मार्च 1923 को मियाँवाली मग़रिबी पंजाब जो कि अब पाकिस्तान में है, में जन्मे रामलाल छाबड़ा की इब्तिदाई तालीम ‘सनातन धर्म स्कूल’ मियांवाली में हुई.साल 1938 में उन्होंने हाईस्कूल पास किया.और इसी साल रेलवे में मुलाज़िम हो गए.लेकिन तक़रीबन पांच बरस बाद इस्तीफ़ा देकर, व्यापार करने लगे. व्यापार की मुद्दत बहुत मुख़्तसर रही.

और 1945 में दोबारा उसी नौकरी में वापस आ गए.रेलवे में ही रहकर 31मार्च, 1981को यहां से रिटायर हुए.राम लाल को बचपन से ही अदब से बेपनाह मुहब्बत थी.उनके लेखन का आग़ाज़ कम उम्र में ही हो गया था.जब वह आठवी दर्जे में थे, तब उन्होंने ‘तसव्वुर’ के नाम से एक नॉवेल लिख दिया था.

नॉवेल का नाम ‘नक़ाबपोश डाकू’ था.मगर अफ़सोस ! उनके वालिद को राम लाल का यह अदबी कारनामा पसंद न आया और उन्होंने गुस्सा जताते हुए इसे फाड़ दिया.नॉवेल फट गया, मगर उनके दिल में अदब से मुहब्बत न मिट सकी.बीस साल की उम्र में उन्होंने राम लाल ही के नाम से अपना पहला अफ़साना लिखा.

जिसका उन्वान ‘थूक’ था.यह अफ़साना 1943में लाहौर से निकलने वाले वीकली अख़बार ‘खय्याम’ में छपा.उसके बाद तो यह अदबी सिलसिला शुरू हो गया.वह बाक़ायदगी से अफ़साने लिखने लगे.

उनके अफ़साने उस दौर की मशहूर मैगज़ीनों अदब—ए—लतीफ़, अदबी दुनिया, साकी, नैरंग—ए-ख़याल और सब-रस में शाए होने लगे.राम लाल के अफ़सानों का पहला मजमूआ 1945में 'आईने' उन्वान से शाया हुआ, जिसका प्राक्कथन शायर—अफ़साना निगार अहमद नदीम क़ासमी ने लिखा था.

अफ़साने की दुनिया में रामलाल की शोहरत का आग़ाज़ उस वक़्त हुआ, जब उन्होंने पाकिस्तान से आए हुए परेशान हाल विस्थापितों के विस्थापन और पुनर्वास की समस्याओं को सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक नज़रिये से अपने अफ़सानों में पेश किया.चूंकि वह खु़द इन हालात से गुज़रे थे, लिहाजा इन समस्याओं से दूसरों के बनिस्बत अच्छी तरह वाक़िफ़ थे.

पाठकों के बीच जब ये अफ़साने गए, तो उन्हें लगा कि यही तो हक़ीक़त है.उस ज़माने में उनके अफ़साने ‘एक शहरी पाकिस्तान का’, 'इन्क़िलाब आने तक', 'एक औरत थी इलाज़—ए—ग़म—ए—दुनिया तो न थी', 'भेड़िये', 'खेतों की रानी', 'शगुन', 'खेतों की रानी', 'ज़हर थोड़ा सा' और ‘नई धरती पुराने गीत’ बहुत मशहूर हुए.

इनके अलावा ‘उखड़े हुए लोग’,‘तमाशा’, ‘जड़ें’, ‘इंतज़ार के कै़दी’, ‘नसीब जली’, ‘लोहे का कमरबंद’ वगैरह अफ़सानों को भी ख़ूब मक़बूलियत मिली.राम लाल ने अपने अफ़सानों में किसी एक नज़रिये को पेश नहीं किया.और न ही रूमानी फ़ज़ा क़ायम करने की कोशिश की.उनके अफ़साने इंसान की आम ज़िंदगी से तअल्लुक़ रखते हैं.

रामलाल जो कुछ अपने आसपास देखते थे, उसको अपने फ़न में ढालकर अफ़साने की शक्ल दे देते थे.चूंकि रेलवे में मुलाज़िम थे, इसलिए उनके बहुत से अफ़साने रेलवे के सफ़र से मुताल्लिक़ हैं.इन अफ़सानों में उन्होंने बड़ी बारीकी के साथ हिंदुस्तान की ज़िंदगी को पेश किया है.

रामलाल का कहना था कि ‘‘मुझे रेल के डिब्बों में पूरा हिंदुस्तान मिल जाता है.पूरी सोसायटी मिल जाती है.’’ ये सच भी है। ट्रेन का कोई भी जनरल डिब्बा देख लीजिए, उनकी बात की तस्दीक हो जाएगी.

रामलाल ने अपने अफ़सानों के लिए जिस मौज़ूअ का इंतिख़ाब किया, उसके साथ पूरा इंसाफ़ किया। अफ़सानों में वह मुल्क के मुख़्तलिफ़ तबक़ात और उनके आपसी विरोधाभास को बड़ी ख़ूबसूरती से दिखलाते थे.

उर्दू अदब के बड़े नक़्क़ाद डॉ. क़मर रईस ने राम लाल के अफ़सानों का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ‘‘राम लाल शुरू से प्रेमचंद की हक़ीक़त—पसंदाना रवायत से जुडे़ रहे। उन्होंने पसमांदा, बिखरे हुए और कुचले हुए इंसानों को अपने अफ़सानों का मौज़ूअ बनाया.

और इंसान-दोस्ती के एक वसीह नुक्ता-ए-नज़र से उनकी ज़िंदगी और समाजी रिश्तों को अफ़सानों के तार-ओ-पूद में समो कर पेश किया. अलबत्ता प्रेमंचद के आदर्शवाद से उन्होंने किनारा कर लिया था.’’ उर्दू अदब के अज़ीम अफ़साना निगार कृश्न चंदर, राम लाल के महबूब अफ़साना निगार थे. जिनके अफ़सानों के वह शैदाई थे। कृश्न चंदर भी उनके अफ़सानों को पसंद करते थे.

जब रामलाल ने अपने अफ़सानों का मजमूआ ‘नई धरती पर पुराने गीत’ कृश्न चंदर को भेजा, तो इस किताब के अफ़सानों पर उनकी राय थी, ‘‘राम लाल के अफ़साने छोटे-छोटे हिंदुस्तानी घरों के दुःख-दर्द और ख़ुशियों के अफ़साने हैं.

ये अवाम के सीधे-सादे जज़्बात के ताने-बाने से बुने गए हैं. ये अफ़साने आतंकित नहीं करते, मुतास्सिर करते हैं. इनमें भारी-भरकम अल्फ़ाज़ की बोझिल तरक़ीबें नहीं हैं. सादा रंगों की मुसव्विरी है, जो दिल में उतर जाती है.

इन अफ़सानों का लहज़ा उनकी अदा, उनका पैरहन, हक़ीक़ी ज़िंदगी से उधार लिया गया है.’’ राम लाल के अफ़सानों पर इससे बेहतरीन तब्सिरा शायद ही कोई दूसरा हो। कृश्न चंदर, जो खु़द बड़े अफ़साना निगार थे, उनकी राय एक मायने रखती है.

राम लाल, कृश्न चंदर की शख़्सियत और उनके फ़न से काफ़ी मुतास्सिर थे. यहां तक कि उनकी शख़्सियत भी कृश्न चंदर से काफ़ी मेल खाती थी. वह उनके जैसे ही क़द और डीलडौल के थे.

यहां तक कि कई लोग इस बात का धोखा खा जाते थे और उन्हें कृश्न चंदर समझ लेते थे. बहरहाल, राम लाल का जब अफ़सानों का दूसरा मजमूआ ‘इंक़लाब आने तक’ (1949में) छपकर आया, तो डॉ. ख़लील-उल-रहमान आज़मी ने उसे पढ़कर, यह मजे़दार टिप्पणी की, ‘‘अगर, इस किताब पर से तुम्हारा नाम हटाकर, कृश्न चंदर का नाम लिख दिया, तो लोग उसे कृश्न चंदर की ही किताब समझकर क़बूल कर लेंगे.’’

ज़ाहिर है कि शुरुआत में राम लाल की अफ़साना निगारी पर कृश्न चंदर के लेखन का काफ़ी असर था, लेकिन आगे चलकर उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली. राम लाल तरक़्क़ीपसंद तहरीक से भी वाबस्ता रहे.

‘उत्तर प्रदेश अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ के वह सदर रहे. ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ की लखनऊ में होने वाली बैठकों में वह बाक़ायदगी से शिरकत करते थे. ‘नई धरती पर पुराने गीत’ जैसे कई मक़बूल अफ़साने उन्होंने सबसे पहले अंजुमन की बैठकों में ही सुनाये थे.

‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ की कॉन्फ्रेंसों में भी राम लाल की भागीदारी रही. वह बड़े ही जोश-ओ-खरोश से इन कॉन्फ्रेंसों में हिस्सा लेते थे. अहमद नदीम क़ासमी, राजिंदर सिंह बेदी, ख़्वाजा अहमद अब्बास, सज्जाद ज़हीर, सय्यद एहतेशाम हुसैन, इस्मत चुग़ताई, आल-ए-अहमद सुरूर, मुहम्मद हसन और क़मर रईस जैसे तरक़्क़ीपसंद अदीबों से उनके गहरे दोस्ताना मरासिम थे.

यह सब बड़े अदीब भी उन्हें पसंद और उनकी अफ़साना निगारी की क़द्र करते थे.राम लाल के अदबी सरमाये की बात करें, तो उनके अफ़सानवी मजमूओं में ‘आइने’ (1945), ‘नई धरती पुराने गीत’ (1948), ‘इंक़लाब आने तक’ (1949), ‘गली गली’ (1960), ‘आवाज़ तो पहचानो’ (1962), ‘चराग़ों का सफ़र’ (1966), ‘कल की बातें’ (1967), ‘कोहरा और मुस्कराहट’ (1971), ‘मुट्ठी भर धूप’ (1972), ‘उखड़े हुए लोग’ (1972), ‘गुज़रते लम्हों की छाप’ (1974), ‘मासूम आंखों का भरम’ (1978), ‘डूबता उभरता आदमी’ (1988), ‘एक और दिन को प्रणाम’ (1990), ‘आतिश खोर’, ‘पखेरू’ (1992) हैं, तो वहीं ‘आगे पीछे’ उनके दो छोटे उपन्यास हैं.

‘ज़र्द पत्तों की बहार’ (1980) और ‘मास्को यात्रा’ (1990) राम लाल के यात्रा वृतांत हैं. ‘कूचा-ओ-क़ातिल’ उनकी आत्मकथा है. राम लाल ने बच्चों के लिए अफ़साने भी लिखे. उसी ख़़ूबी से, जितने कि बड़ों के लिए। पत्रकारिता के मैदान में भी उनका काम था.

बहैसियत सहाफ़ी काम करते हुए उन्होंने रोज़नामा ‘आफ़ताब-ए-आलम’ लखनऊ और ‘अल्फ़ाज़’ अलीगढ़ को एडिट किया. अदबी ख़िदमात के लिये राम लाल को कई पुरस्कार और सम्मान से नवाज़ा गया.

साल 1993में उन्हें साहित्य अकादेमी अवार्ड से सम्मानित किया गया. वह उत्तर प्रदेश उर्दू अकादेमी के वाइस चेयरमेन के अलावा और कई दीगर ओहदों पर भी रहे. उन्होंने ज़ुबान-ओ-अदब के मसाइल को लेकर कई अहम सेमिनार और कॉन्फ़ेंस का आयोजन किया.

साल 1973में उन्होंने लखनऊ में उर्दू ज़बान की हिमायत में ‘ऑल इंडिया ग़ैर मुस्लिम उर्दू मुसन्निफ़ीन कॉन्फ्रेंस’ आयोजित की. जिसमें अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, ख़्वाजा अहमद अब्बास और कृश्न चंदर जैसे बड़े अदीबों ने शिरकत की.

कॉन्फ्रेंस बेहद कामयाब रही. इसमें कई अहमतरीन पर्चे पढ़े गए. उर्दू अदब और ज़बान के मस्अले पर गंभीर चर्चा हुई. राम लाल अपनी ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे तक सरगर्म रहे. अदब से उन्होंने कभी किनारा नहीं किया.

तिहत्तर साल की उम्र में 28 अक्टूबर, 1996 को लखनऊ में उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली. डॉ. क़मर रईस ने अपनी किताब ‘तरक़्क़ीपसंद अदब के मेमार’ में राम लाल के बारे में लिखा है, ‘‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक से ग़हरी वाबस्तगी और फ़िक्र-ओ-नज़र ने उन्हें वो मुनफ़रिद रंग अता किया है, जो अफ़साने की तारीख़ में कभी फीका नहीं पड़ेगा.’’