सकीब सलीम
पेशावर में फरवरी 1929 के महीने में सनौवर हुसैन, शेर अली, अब्दुर रहमान रिया, अब्दुल्ला और अब्दुल अजीज भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के लिए एक गुप्त बैठक कर रहे थे. उनका मानना था कि कायाकल्प की आवश्यकता थी. इसके अध्यक्ष के रूप में सनौवर के साथ उन्होंने अंजुमन जीमयत नौजवान-ए-सरहद (एसोसिएशन ऑफ फ्रंटियर यूथ) की स्थापना की. इसका उद्देश्य हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाकर और क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न करके पेशावर में राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करना था.
अब्दुर रहमान रिया ने बड़े दर्शकों तक पहुंचने के लिए एक अखबार शुरू किया. सितंबर में, अंजुमन ने जतिंद्र नाथ दास के सम्मान में एक बैठक की, जिन्होंने लाहौर जेल में एक लंबी भूख हड़ताल के बाद अपने जीवन का बलिदान किया था. बैठक में हिंदुओं और मुस्लिमों दोनों ने भाग लिया. भगत सिंह और उनके साथियों को भी शामिल किया गया. खान अब्दुल गफ्फर खान ने मुसलमानों से जतिन्द्र नाथ और भगत सिंह के नक्शेकदम पर चलने का आग्रह किया. मजलिस-ए-अहरार के नेता अता उल्लाह शाह बुखारी ने अंजुमन के नेताओं से पूछा कि क्या उनके संगठन का उद्देश्य पंजाब के नौजावन भारत सभा के समान हैं. सभा में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी इसके सदस्य थे. बुखारी ने सुझाव दिया कि संगठन को पंजाब आधारित संगठन के एक विंग के रूप में नौजवान भरत सभा के रूप में फिर से शुरू किया जाना चाहिए.
अब्दुर रहमान रिया ने लाहौर की यात्रा की और नौजवान पार्टी से संबद्धता प्राप्त की. 1930की शुरुआत तक, एक अखबार रिसाला-ए-नौजवान सरहद शुरू किया गया. संगठन को अब अब्दुर रहमान रिया, फकीर चंद, अब्दुल हई, अचरज राम, अब्दुल गफ्फर, सईद, चुनी लाल, अल्लाह बख्श, सोहन लाल और अमीर सिंह के साथ कार्यकारी सदस्य के रूप में नौजावन भारत सभा, पेशावर के रूप में जाना जाता था. संगठन ने एक लाल झंडा और हथौड़ा प्रतीक को अपनाया.
26जनवरी 1930को, राष्ट्रवादी नौजवान भारत का स्वतंत्रता दिवस मना रहे थे, जैसा कि कांग्रेस सत्र में तय किया गया था, लेकिन बंटवारे से पहले के पेशावर में, यह कल्पना करना असंभव था. मगर हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों ने भारत के लिए स्वतंत्रता की मांग करने वाले विभिन्न संगठनों के झंडे के तहत एकजुट होकर मार्च किया. पाकिस्तान का नाम तब आविष्कार भी नहीं किया गया था.
स्वतंत्रता दिवस के जुलूस का नेतृत्व एक कांग्रेस समूह द्वारा कांग्रेसी तिरंगा झंडे के साथ किया गया था. इसमें लाला बदशाह, अली गुल खान, कासिम जान, अब्दुल जलील, लाला राधा किशन, वकील, अब्दुर रहमान नादवी, डॉ. जवाहिर सिंह, गुलाम रब्बानी सेठी, अल्लाह बख्श, रहीम बख्श, मुहम्मद उमाम इलहम, मिलाप सिंह, हाजी करम इलाही, मिलाप सिंह, अमर सिंह और कई अन्य शामिल थे.
कांग्रेस के पीछे नौजवान भारत सभा समूह था, जो लाल झंडे के साथ क्रांति के नारे लगा रहे थे. अब्दुर रहमान रिया, अब्दुल अजीज, रोशन लाल, सनौवर हुसैन, अचरज राम, चमन लाल, अब्दुल हई, फकीर चंद, किशन चंद, हरि राम, अमर सिंह और अन्य लोग इस समूह का नेतृत्व कर रहे थे.
तीसरा समूह खुदाई खिदमतगार का था, जो सरफराज, नकीबुल्लाह के नेतृत्व में एक सफेद झंडा लेकर चल रहा था. खालसा नौजवान जत्था ने एकजुट भारत को एक बड़ा तमाशा प्रदान किया. माना जाता है कि हरदीत सिंह के नेतृत्व में इस सिख संगठन में कई मुसलमान थे, जैसे कि याकूब क्रांति के नारे लगा रहे थे.
इन गतिविधियों ने गति बढ़ाई. राष्ट्रवादी प्रचार का प्रसार करने के लिए सभा के पास अप्रैल तक चार समाचार पत्र थे. रिसाला-ए-नौजवाान सरहद, नौजवान सरहद, नौजवान सरफरोश और पयाम-ए-जंग को व्यापक रूप से पढ़ा जा रहा था और ब्रिटिश अधिकारियों के बीच घबराहट थी. बढ़ी हुई क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए संगठन को दोषी ठहराया गया था.
ब्रिटिश इंटेलिजेंस ने औपनिवेशिक शासकों से लड़ने के लिए स्थानीय लोगों के बीच दृढ़ संकल्प के पीछे सभा की गतिविधियों को दोषी ठहराया, जिसके कारण अंततः ‘किस्सा ख्वानी बाजार नरसंहार’ हुआ, जहां ब्रिटिश सैनिकों द्वारा सैकड़ों भारतीयों की गोली मारकर हत्या कर दी गई. यह भी माना जाता था कि सभा के प्रचार के कारण फौजी राम चंद्र गढ़वाली द्वारा भारतीयों पर गोलीबारी करने के ब्रिटिश आदेश को मानने से इनकार कर दिया था. यह एक दुर्लभ घटना थी, जहां अंग्रेजों के भारतीय सैनिकों ने भारतीयों पर गोलीबार नहीं की और अदालत का कोर्ट मार्शल स्वीकार किया.
कोई आश्चर्य नहीं कि 3 मई, 1930 को नौजवान भारत सभा को अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था और हिंदुओं, सिखों और मुस्लिमों की वैसी एकता कभी भी नहीं दिखी.
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