गुलाम कादिर
कर्बला आंदोलन की शुरुआत से लेकर कर्बला की लड़ाई और फिर मदीना में हुसैनी कारवां की वापसी तक, मानवता के लिए कदम दर कदम अनगिनत मानव-निर्माण के सबक बिखरे हुए हैं. मानवता के हितैषी हजरत इमाम हुसैन का हर शब्द और कार्य मानवता की मांगों के अनुरूप इस्लाम और कुरान की सार्वभौमिक शिक्षाओं का प्रतिबिंब है.
इस लेख में हम कर्बला से मिले कुछ सबक पर संक्षिप्त नजर डालेंगे.
1. अल्लाह पर भरोसा
मुहम्मद बाकिर कहते हैं, जो कोई भी अल्लाह पर भरोसा करेगा वह कभी नहीं हारेगा. संपूर्ण कर्बला आंदोलन इस ईश्वरीय शिक्षा का प्रतीक प्रतीत है, जिसके परिणामस्वरूप कर्बला स्कूल अमर हो गया. यद्यपि इमाम हुसैन (अ.स.) ने कूफा के लोगों से लगातार पत्र प्राप्त करने के बाद कर्बला की ओर रुख किया, लेकिन उनका मुख्य भरोसा अल्लाह पर था.
यही कारण है कि उन्हें रास्ते में कूफियों की बेवफाई की खबरें मिलने लगीं. फिर भी उनके संकल्प में कोई कमी नहीं आई. अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रहे. उसके बाद आशूरा के दिन जब दुश्मन का चैतरफा और क्रूर आक्रमण शुरू हुआ, तो आपने इन शब्दों में अल्लाह से दुआ की.
उन्होंने विश्वास की घोषणा की, ‘‘या अल्लाह, आप हर दुःख और शोक में मेरी शरण हैं, हर कठिनाई में मेरी आशा हैं और होने वाले हर समझौते में मेरा समर्थन और मेरा आश्रय है.’’
2. स्वीकृति और संतुष्टि
कर्बला की पाठशाला का एक और महत्वपूर्ण और महान सबक अल्लाह की प्रसन्नता से संतुष्ट और खुश रहना है. कर्बला आंदोलन के नेता इमाम हुसैन की नजर में, अल्लाह उनके पैगंबर की खुशी केवल तभी थी, जब वह अपने जीवन की पेशकश करते.
उन्होंने अपनी आंखों से शहादत को क्रूरता के साथ देखा. अगर उन्होंने हरम के लोगों के सिर से पर्दा हटाने और फिर उनकी कैद में सब्र किया, तो उनका उद्देश्य केवल ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करना था.जब वह मक्का छोड़कर इराक जाना चाहते थे, तो उन्होंने कहा, हम अहल-अल-बैत हर उस चीज से संतुष्ट हैं जिससे अल्लाह प्रसन्न होता है. वह धैर्यवान को इनाम देगा.
यदि अल्लाह की प्रसन्नता ही व्यक्ति का उद्देश्य बन जाए तो वह जीवन के हर क्षेत्र में किसी और की खुशी या नाराजगी की परवाह किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करता है.
3. फर्ज की अदायगी
कर्बला की घटना से फर्ज का पाठ पढ़ने को मिलता है. कूफा के लोगों की बेवफाई और मिथ्याकरण से अवगत होने के बावजूद इमाम हुसैन ने सच्चाई के लिए उनके स्पष्ट समर्थन के बाद खुद को बाध्य माना कि यदि किसी क्षेत्र के लोग मदद, मार्गदर्शन चाहते हैं, यदि वे पूछ रहे हैं, तो उन्हें जाने दें और अपने मामलों की बागडोर अपने हाथों में रखें. इस संबंध में इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम खुमैनी कहते हैं,
हजरत अबू अब्द अल्लाह (इमाम हुसैन) कम संख्या के बावजूद खड़े हो गए, क्योंकि उन्होंने खुद को गुनाह से इनकार न करने के लिए बाध्य माना और कहा कि यह मेरी जिम्मेदारी है..., हजरत सैय्यद अल-शाहेदा ने अपनी जान दे दी. इस तरह उन्हांेने सीरिया के शासक और यजीद के प्रभाव को मिटाना अपनी जिम्मेदारी समझी.
4. आजादी
सैयद अल-शाहदा इमाम हुसैन को हुर्रियत का इमाम कहा जाता है और आशूरा उनकी आजादी का एक रूपक है. जब उनसे यजीद के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करने के लिए कहा गया, तो उन्होंने उत्तर दिया, सावधान! एक अशुद्ध मनुष्य की अशुद्ध सन्तान ने मुझे भटका दिया है.
मौत और अपमान के बीच, लेकिन हमारे लिए अपमान को स्वीकार करना असंभव है,अल्लाह ने हमें, पैगंबर (पीबीयूएच) और विश्वासियों को अपमान के अधीन होने और उन लोगों को मना किया है जिनके पास पवित्रता, सम्मान और गरिमा है. निम्न और उच्च दृढ़ संकल्प और आत्म-सम्मान का परिवार हमें गरिमापूर्ण और सम्मानजनक मृत्यु के बजाय नीच लोगों की आज्ञाकारिता को प्राथमिकता देने की अनुमति नहीं देता है.
5. ईमानदारी
कर्बला की अमरता और अनंत काल का एक रहस्य इसमें निहित ईमानदारी और सद्भावना है. मदीना से मक्का और फिर मक्का से कर्बला की यात्रा के दौरान इमाम हुसैन के साथ कई दावेदार आए, लेकिन उनमें से कोई भी अपने दावे पर कायम नहीं रह सका. फिर उन्हें अकेला छोड़ दिया.
आशूरा के दिन भी, जब घुमसन भागा, तो हुसैनी के साथियों को तलवारों और भालों की मूठ के बीच रखने वाली बात उनकी ईमानदारी, इरादे की पवित्रता और अपने लक्ष्य में विश्वास था, अन्यथा, अगर इरादों में गलती होती, तो यह आशूरा से बहुत पहले हुआ होता. हुसैनी के साथियों ने दूसरा रास्ता चुना होगा और शांति के एक कोने में बैठ गए होंगे.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हर हुसैन अपने इमाम और मुक्तदा के साथ अपने खून की आखिरी बूंद तक गया और वह भी नाकाफी था. कुछ साथियों ने यहां तक कहा कि अगर हम हुसैन अलैहिस्सलाम के जुए में सत्तर बार शहीद हुए, फिर भी हम जीवित हो गए और फिर हमारा अंतिम संस्कार कर दिया गया और उनकी राख को हवा में उड़ा दिया गया. हम आपका साथ नहीं छोड़ेंगे.
जारी है.....