समीर शेख
1958 में लखनऊ में जन्मी नूर जहीर का व्यक्तित्व बहुआयामी है. लेखक, कार्यकर्ता, नाटककार और अभिनेत्री भूमिकाएँ वो बखूभी निभाती आयी हैं.साहित्य और आन्दोलन की विरासत उन्हें घर से मिली.उनकी मां रज़िया और पिता सज्जाद ज़हीर उर्दू के प्रसिद्ध लेखक थे.साथ ही वो प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से भी एक थे.
नूर जहीरने अपने करियर की शुरुआत पत्रकार के रूप में की.उन्होंने शाहबानो मामले में रिपोर्टिंग की जिसने देश की राजनीति की दिशा बदल दी.उस समय के राजनीतिक और सामाजिक माहौल ने उनके अंदर के संवेदनशील व्यक्ति को अंतर्मुख किया.
देश के माहौल के कारण उनके मन में कई सवाल उमड़ पड़े.उनके जवाब खोजने के लिए उन्होंने धर्म और संविधान का नये सिरे से अध्ययन किया.इससे उन्हें महिलाओं के मुद्दों और विशेषकर मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों को देखने का नया नजरिया मिला.
उन्हें एहसास हुआ कि अगर इन सवालों को सुलझाना है तो उन्हें एक साथ कई मोर्चों पर लड़ना होगा. उन्होंने यह भी महसूस किया कि इसके लिए सामाजिक जागरूकता और लोकशिक्षा आवश्यक है.
उन्होंने इसके लिए हर संभव कोशिश की.उनका पहला उपन्यास 'माई गॉड इज वुमन' शाहबानो मामले के दौरान उनके अनुभवों और अध्ययन से वजूद में आया.इस तरह उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत हुई.
वह हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी तीनों भाषाओं में महारत रखती हैं. मेरे हिस्से की रोशनाई’, ‘स्याही की एक बूँद’, ‘रेत पर ख़ून’, ‘ख़ामोश पहाड़’, ‘सुलगते जंगल’ , ‘बड़ उरइय्ये’, ‘माइ गॉड इज़ ए वुमन’,‘सुर्ख़ कारवाँ के हमस़फर’, ‘एट होम इन एनिमी लैंड’, ‘पत्थर के सैनिक’ , ‘दि डांसिंग लामा’, ‘उत्तर पश्चिमी हिमालय में बौद्ध, आदिवासी और मौखिक परम्परा’, ‘डिनाइड बाइ अल्लाह’, ‘आज के नाम’ , ‘उर्दू में आरम्भिक महिला लेखन’ यह उनकी कुछ प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ हैं.
उनके तीखे और नारीवादी दृष्टिकोण ने परंपरावादियों को कई बार परेशान किया है .उनके विरोध का नूर जहीर बहादुरी से सामना करती आयी है.लिखते समय उन्होंने नाटक सीखा.उन्हें एहसास हुआ कि नाटक सामाजिक जागरूकता के लिए एक प्रभावी माध्यम हो सकता है.
फिर वह एक नाटककार और अभिनेत्री बन गईं.नाटक ख़त्म होते ही दर्शकों से चर्चा करने और उन्हें जागृत करने की नई परंपरा की शुरुवात उन्होंने की. अधिक लोगों तक पहुंचने के लिए उन्होंने नुक्कड़ नाटक का भी सहारा लिया.भारतीय जन नाट्य संघ (दिल्ली) की अध्यक्ष और राष्ट्रीय सचिव भी रहीं।.
जब यह सब चल रहा था, तब भी उनके अंदर का कार्यकर्ता सदैव जीवित रहा.उसी संवेदनशीलता की वजह से मुस्लिम समुदाय में काम करने की आवश्यकता का एहसास उन्हें हुआ.एक कार्यकर्ता के रूप में भी उन्होंने मुस्लिम समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उनके इन अनुभवों का प्रतिबिंब उनके साहित्य में दिखाई देता हैं.
बतौर शोधकर्ता भी उन्होंने काफी अहम काम किया है.उनके शोध कार्यों में उत्तर पश्चिमी हिमालय की जनजातीय और बौद्ध मौखिक परंपराएं, उर्दू में प्रारंभिक महिला लेखन: लघु कथाओं, कविताओं, नाटकों और निबंधों का चार खंड संग्रह, बाउल रहस्यवाद में बौद्ध और सूफी तत्व शामिल हैं.
नूर जहीर को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है.उनकी साहित्यिक यात्रा और देश के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर उनसे की गई यह खास बातचीत आवाज द वायस के पाठकों के लिए...
1. आपके वालिद और वालिदा उर्दू के मशहूर साहित्यकार थे. तरक्की पसंद तहरीक के संस्थापकों में से एक रहे. उनके साए में आपका बचपन कैसे बिता ?
• मेरे बचपन का कोई दिन में ऐसा नहीं गुजरता, जो खास ना हो. बड़े लेखक, पोलिटिशियन- कोई न कोई घर आए हुए होते थे. मुझे तो शू लेसेस बांधना कैफी आजमी ने सिखाये. मैं तीन साढे तीन साल की थी.
मुझसे जूता तो पहना जाता पर लेस बांधना नहीं जानती थी. तो उन्होंने मुझे बताया कि कौन सा साइड पकड़ो कौन सा साइड घुमा कर डालो. इस तरह की जिंदगी थी. पर बचपन से ही यह समझ आया कि साहित्य और राजनीती कोई अलग दो चीज़ें नहीं.
अगर आप साहित्यिक है तो आप को राजनीति से बिल्कुल दूर नहीं रहना है. इस तरह की गुफ्तगू हर वक्त होती रहती थी. चाहे वह ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ हो या केरला से वेनथोल आये हो या तमिलनाडु से दामोदर जी आए हुए हो.
मेरे घर में भाषा की कोई सीमा नहीं थी. किसी को हिंदी या उर्दू नहीं आती थी तो उनसे अंग्रेजी में गुफ्तगू हुआ करती थी. या कोई बातचीत का अनुवाद उस भाषा में किया करता था. तब यह बात समझ में आई कि हमारे समाज में विविधता काफी है.
चाहे वह धर्म की हो, जाती की, भाषा की, या संस्कृति की हो. पर क्योंकि सबको मिल कर काम करना है,इसलिए साथ में बैठकर बात भी करनी है. यह मेरे लिए बहुत यादगार चीज है.
• और एक बात. लखनऊ का हमारा घर रेलवे स्टेशन से करीब था. जो भी जानकार लखनऊ आता ,उसका पहला पड़ाव हमारे घर पर ही होता था. अक्सर यह होता कि बच्चों को रात में खाना खिलाकर सुलाया जाता था. तब घर बिल्कुल खाली होता था. जब हम सुबह उठते थे, देखते थे कि बड़े कमरे में चार-पांच लोग सोए हुए है. बरामदे में कुछ लोग सोए हुए है. और हम उनके ऊपर से कूदकर स्कूल जाया करते थे.
पता चलता था कि मुल्कराज आनंद यहां सोए हुए हैं, अली सरदार जाफरी वहां सोए हुए हैं. इस माहौल को मैंने अपने घर में भी शामिल करने की कोशिश की है. अगर किसी को रात में रहने के लिए जगह नहीं तो उसके लिए मेरे घर के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं.
• तो बचपन में साहित्य के साथ मोहब्बत और रंगत का भी एहसास हुआ. घर में धर्म का जाति का उम्र का इलाके का कोई भेदभाव नहीं होता था. इस बात का मुझे काफी फायदा हुआ. मेरा जहन खुलता गया.
2. आपके परिवार ने प्रागतिक साहित्य और समाज बदलाव में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. इस कार्य में उनकी मुख्य प्रेरणा क्या थी? वो कैसा हिंदोस्ता और कैसा समाज चाहते थे ?
• सबसे बड़ी बात, इनमें से कोई भी भारत का विभाजन नहीं चाहता था. हालाकि मेरा जन्म 1958में हुआ. तब तक विभाजन का किस्सा थोड़ा पुराना हो चुका था. तब भी मैंने सब के मुंह से यही सुना विभाजन नहीं होना चाहिए था, अच्छा अब हो गया तो कभी ना कभी तो यह दरारे भरेंगी.
• विभाजन ने बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया. ख्वाब देखा गया था कि एक दिन ऐसा आएगा देश से गरीबी मिट जाएगी, सांप्रदायिकता मिट जाएगी, अशिक्षितता खत्म हो जाएगी. यहां पर महिलाओं को भी बराबरी का हक मिलेगा.
सब लोग मिलकर के हिंदुस्तान को बहुत ऊपर उठाएंगे. मोहब्बत बहुत होंगी. तब धर्म बहुत छोटी चीज मानी जाती थी. एकदम निजी चीज. इसलिए लगता था धर्म ना राजनीति में आएगा, न सामाजिक दूरियां पैदा करेगा, और न मोहब्बतें कम करेगा.
ऐसा समाज होगा जिसमें यह दूरियां नहीं होंगी. दूरियां होंगी पर वह दूसरी तरीके की होंगी. आप हसेंगे पर मैंने बड़े झगड़े हुए देखे थे कि टॉलस्टॉय बड़े लेखक है या दोस्तोवस्की बड़े है. हिंदू बेहतर है या मुसलमान यह झगड़े मैंने बचपन में कभी नहीं देखे थे. समाज अगर वैसा होता तो अच्छा होता.
3. जब बड़ी हो रही थी तो आपकी साहित्यमें ज्यादा रूचि रही ?
• यह तो पक्की बात है कि बचपन से मुझे नृत्य से बड़ा लगाव था. हालांकि उसमें प्रवेश बहुत अजीब ढंग से हुआ. मेरी मां के मुंह बोले भाई थे अमृतलाल नागर. वो हिंदी के बड़े साहित्यकार थे. उनसे मेरी मां ने शिकायत की कि मेरी सबसे छोटी बेटी बड़ी शैतान है, बहुत एनर्जी है उसमें. दिनभर बहुत शरारतें करती रहती है.
तो उन्होंने कहा कि इसे नृत्य में डालिए. थोड़ी एनर्जी बाहर निकलेगी.थकेगी थोड़ा. सात साल की उम्र से मैंने नृत्य सीखना शुरू किया और 10साल की होने तक मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि मैं नृत्यांगना ही बनूंगी.
• साहित्य में प्रवेश यूँ हुआ कि बचपन से ही साहित्य की बहुत चीजें पढ़ाई गई थी, याद कराई गई थी. जब मैं 17-18साल की उम्र में कत्थक पर परफॉर्म करने लगी तब तक नृत्य के साथ ही साहित्य को भी मैंने अंदर जज्ब कर लिया.
मै अपने म्यूजिशियंस या गुरु के पास जाती थी. कोई ग़ज़ल या नज्म लेकर उनसे कहती थी की इस कविता पर कंपोजिशन कीजिए. वह चौंक के कहते थे कि तुम्हारे पास यह कविता कहां से आई ? किसने दी? तो मैं कहती थी कि पता नहीं, कभी याद की थी. तो साहित्य चलता रहा साथ ही, पर मेरी ज्यादा रुचि नृत्य में थी.
• फिर एक दौर आया जब देखा की नृत्य के माध्यम से अलग तरह की पॉलिटिक्स की जा रही है. लोग यहां तक कहने लगे कि यह मुस्लिम कत्थक है और यह हिंदू कत्थक. तब लगा कि यह कहना जरूरी है कि शास्त्रीय को आप मजहब में ना बाटे.
आप यह नहीं कह सकते कि यह राग मुसलमान है क्योंकि यह क्योंकि मियां तानसेन ने बनाया है और यह राग हिंदू है. यह बिल्कुल बेकार की बातें हैं. बनाई होगी मियां की तोड़ी किसी मुसलमान ने, और आज उसको हिंदू गा रहा है इसाई गा रहा है. ये सब अहसास हुआ तो लगा कि इन सब के बारे में लिखना भी जरूरी है.
• मेरा सौभाग्य है कि मेरे पिता के बहुत सारे दोस्त थे, जिनमें से एक अक्षय कुमार जयंत है जो टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर थे. क्योंकि मैंने मास कम्युनिकेशन भी कर रखा था, मैं वहां बतौर ट्रेनी ज्वाइन हो गई.
फिर रिपोर्टिंग भी करने लग गई. खास तौर पर कल्चरल. इस तरह से पत्रकारिता शुरू हो गई जो तकरीबन 10साल चली. इस दौरान मैंने अरुणा आसफ अली के पेट्रियट में भी काम किया क्योंकि मुझे लगा कि यह अखबार मेरी विचारधारा से मेल खाता है.
एक दिन लगा की जो भी मैं लिखती हूं उसमें अगले दिन समोसे बेचे जा रहे हैं. यानी अखबार की कोई उम्र नहीं होती. तब लगा कि ऐसा लिखा जाए जिसकी उम्र लंबी हो.
4. लेखक के साथ एक्टर और एक्टिविस्ट कैसे बनी ?
• एक नाटक दिग्दर्शक थे. उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि मैं एक ग्रीक यानी यूनानी नाटक कर रहा हूं. उसमें 12-13लोगों का कोरस होता है. और मुझे उस का कंपोजीशन बनाना है. और कोरियोग्राफी करनी है.
उन्होंने कहा क्योंकि तुम अच्छी नृत्यांगना हो तो क्या तुम कर दोगी? तब मैं बतौर कोरियोग्राफर थिएटर से जुड़ी, और लगा कि इस माध्यम का इस्तेमाल अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए किया जा सकता है.
फिर मैंने नाटक की डेढ़ साल की ट्रेनिंग ली और नाटक करना शुरू किया. तब मेरे जेहन में यह बात बिल्कुल पक्की थी कि मैं सिर्फ नाटक नहीं करूंगी, उसके खत्म होने के बाद ऑडियंस से उन समस्याओं पर बातचीत करूंगी जो नाटक में उठाई गई है.
यहां से एक्टिंग और एक्टिविज्म का दौर शुरू हुआ. फिर लगा नाटक छोटा होना चाहिए 20-25मिनट का. और स्ट्रीट प्ले करना शुरू कर दिया ताकि 15-20मिनट में नाटक खत्म हो और लोगों से सीधा संवाद हो.
मेरी खुशकिस्मती थी कि उस दौर में जर्मन दिग्दर्शक थे रिक्स बेनेडिक्ट वो यहा आए हुए थे. मैंने उनका वर्कशॉप अटेंड किया. बाद में उनसे आग्रह किया कि मुझे उनके नाटक में काम करने का मौका दें.
तो मैंने काम भी किया और बहुत कुछ सीखा भी की कैसे एक्टिंग और एक्टिविज्म साथ-साथ चलते हैं. और वह कितना जरूरी है. सिर्फ इंटरटेनमेंट के लिए नाटक नहीं हो सकता. एटलिस्ट मेरे लिए.
5. पत्रकारिता का सफर कैसा रहा? उसे छोड़कर साहित्यकार बनने का फैसला कब और क्यों किया ?
• 1985 में मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया छोड़कर पेट्रियट ज्वाइन किया था. इस अखबार की मालिक और editor-in-chief थी अरुणा आसफ अली. वह हम सबके लिए इंस्पिरेशन थी. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि ‘सुप्रीम कोर्ट में शाहबानो का केस चल रहा है.
मैं चाहती हूं कि तुम इसे कवर करो. और बिल्कुल आम लोगों की भाषा में उसे पेट्रियट के लिए लिखो. ताकि वह इसे समझ पाए.’ मुझे इस केस की बैकग्राउंड मालूम नहीं थी. इसलिए मैं शाहबानो के वकील डेनियल लतीफी के पास गई.
इत्तेफाक से वह भी अब्बा के कॉमरेड दोस्त निकले. उन्होंने कहा कि बातों में तो नहीं समझा सकता. तुम एक काम करो सेशन कोर्ट से लेकर अब तक के सफर पर नजर घुमाओ. तब जाकर कुछ समझ में आएगा.
तो मैं उनके ऑफिस जाती थी, पढ़ती थी. इस तरह की बाकी केसेस को भी मैंने पढ़ा. तब यह महसूस हुआ कि बचपन में दादी की वजह से जो कुरान मैंने पढ़ा था वह मुझे पूरी तरीके से समझ में नहीं आया है.
साथ ही मुझे इस्लामिक लॉ और संविधान भी दोबारा पढ़ना चाहिए. तब ऐसे लगा कि मुसलमानों में काम करने की ज्यादा जरूरत है. एक मुसलमान औरत उनके लिए एक्टिविज्म कर रही हैं तो उन्हें भी कोई शिकायत नहीं होगी.
6. आपकी पहली नॉवेल ‘माय गॉड इज वुमन’ उसी के बाद आयी. इस सफर के बारे में बताइए ?
• इसी अनुभव के बाद मैंने यह किताब लिखी. इस दौर में मैं बहुत रिसर्च करती रही, नोट्स भी बनाती रही इन सब का नतीजा ये नावेल है. यहां मैं एक और बात जोड़ना चाहूंगी. अगर आपकी इजाजत हो.
1984 में सिखों के खिलाफ दंगे हुए, तब मैं पेट्रियट में काम करती थी. अरुणा जी पत्रकार के साथ-साथ एक्टिविस्ट भी थी. तो उन्होंने हम सब के पास बिस्किट का एक थैला और चाय की केटली दी और कहा कि इसे पीड़ितों में तक्सीम कर दो.
सबसे ज्यादा सिख शीशगंज गुरुद्वारा और हरकिशन सिंह पब्लिक स्कूल में जमा थे. तो हम चाय की केटली लेकर वहां दौड़े. वहां मैंने देखा कि हिंदुओं को सिखों के खिलाफ उकसाया जा रहा है. नारेबाजी हो रही है. और कोशिश की जा रही है कि अलगाववाद पैदा हो. इस तरह का यह मेरा पहला अनुभव था.
7. आपकी बाकी किताबों की तरह ही ‘मेरे हिस्से की रोशनाई’, ‘स्याही की एक बूँद’ (संस्मरण) यह दो संस्मरण भी अहम है. इनके बारेमें क्या कहेंगी ?
• जो माहौल बिगड़ रहा है, दूरियां पैदा की जा रही है. मैं नहीं मानती कि वह दूरियां है. मैं यह समझती हूं कि मैं नकली तौर पर यह दूरियां पैदा की जा रही है. इसलिए यह बताना जरूरी है कि एक वक्त में, जो बहुत पहले का नहीं है, ऐसी दूरियां नहीं थी. और माहौल बहुत अच्छा था.
सारी कम्युनिटीज में मोहब्बतें जिंदा थी. और हम एक दूसरे के साथ सिर्फ सुखदुख ही नहीं बांटते थे, बल्कि एक दूसरे का मजाक भी उड़ाया करते थे. यह बातें मैंने भी बचपन में सुनी है कि ‘तू तो मुलानी है तू जुम्मे के जुम्मे नहाएगी.’ और जवाब बन में भी कहती थी कि ‘तुम लोग तो कव्वे हो जो सुबह-शाम पानी में डुबकी लगाया करते हो.’ तब कोई यह नहीं सोचता था कि मेरे स्वाभिमान को ठेस लग गई है. या मेरी भावनाए आहत हुई है.
• इन दो किताबों में उस दौर का जिक्र है. दोस्ती का जिक्र है, मोहब्बत का जिक्र है, मजाक भी है, एक दूसरे पर हमले भी है. और फिर एकजुट होकर के बैठना और काम करना भी है. सर जोड़कर के नई चीजें कैसे लिखे जाए, कैसे छापे, कैसे फिल्में अच्छी बने, जिससे समाज प्रगतिशील हो इसपर काम करना है.
मां-बाप की जनरेशन और उसके बाद की भी जनरेशन इसी गौरों फिक्र में रहती थी कि यह देश जो इतना खूबसूरत, इतना अच्छा है उसे और बेहतर कैसे बनाया जाए. बेहतरी की कोई सीमा नहीं होती इस बात को मैंने आगे रखा.
और उसी का जिक्र इन दो किताबों में है. ‘मेरे हिस्से की रोशनाई’ में मैंने अपने पिता यानी सज्जाद जहीर के बारे में लिखा है. और ‘स्याही की एक बूंद’ में मैंने अपनी मां यानी रजिया सज्जाद जहीर को याद किया है. इन दो संस्मरणों में मैंने पीछे देखने के साथ साथ आगे देखने की भी कोशिश की है.
8. आपकी किताबों पर पाठकों की क्या प्रतिक्रिया रही?
• ‘डिनाइड बाय अल्लाह’ आठ भाषाओं में आ गई है. ‘माय गॉड इज वुमन’ भारत की नौ भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं और अब उसका फ्रेंच संस्करण प्रसिद्ध होने जा रहा है. इन सब में मेरी यह कोशिश थी कि कानून कैसे बदले.
और इस प्रक्रिया में मुस्लिम महिला, इस्लामी कानून और संविधान यह तीनों शामिल है, तो मुझे इन तीनों पर नजर रखनी होगी. और इन पर एक साथ काम करना होगा. सायराबानो और बाकी पेटीशनर की वजह से ट्रिपल तलाक खत्म हुआ.
मुझे खुशी है कि इसकी पिटिशन में डिनाइड बाय अल्लाह को एक जगह कोट भी किया गया. पर हमारी गुहार यहां तक सीमित नहीं है. हम बहूपत्नीत्व के खिलाफ भी कानून चाहते हैं. तो कोशिश बरकरार है.
• जाहिर है कि इन कोशिशों में कई बार मुखालिफत भी होती है. मैं किसी मस्जिद में गई हुई थी. वहां कहा गया कि यह औरत तो इस्लाम के खिलाफ है. फिर मैंने मौलवी साहब से बातचीत की. उनसे कहा की मैं इस्लाम के खिलाफ नहीं लिखती.
पर आप एक बात बताइए कि महिलाओं को पीछे रखकर समाज को क्या फायदा हो रहा हैं? अगर वह फायदे मेरे समझ में आते हैं तो मैं जरूर आपकी बात मान लूंगी. और मैं कहूंगी कि मैंने जो कुछ लिखा गलत लिखा खराब लिखा.
और अगर आप साबित नहीं कर रहे तो आप भी यही कीजिए. तो वह गुस्से में आ गए और कहां मैं बहस नहीं करता. महिलाओं के साथ तो बिल्कुल नहीं करता. और उन्होंने बात टाल दी. फिर आधे घंटे के बाद वह आये और मुझसे कहने लगे कि मोहतरमा आप ने दुपट्टा ठीक से नहीं ओढा है.
इस तरह से आप को शर्मिंदा करने की भी कोशिश की जाती है. लेकिन आपको तैयार रहना होता है. मैंने उनसे कहा कि आप भी नजर नीचे रखीये. कुरान में हुक्म है कि पराई औरत को नहीं देखना चाहिए. आप कैसे मेरे चेहरे को देख रहे हैं ?
हम यह क्यों सोच रहे हैं कि जिसकी लंबी दाढ़ी है जिसने जुब्बा और कुर्ता पहन रखा है वह इस्लाम की बात करेगा. उसी को समुदाय भी समझ में आएगा. हमारे लिए जरूरी है कि हम यह समझे कि हमारा हितेषी कौन है और कौन हमारे लिए बात कर रहा है.
हम लोग सुपरफिशलिटी या सतही में ज्यादा फस गए हैं. पजामा इस तरह का, टोपी किस तरह की हो वगैरा वगैरा. उसके अलावा वह जितनी बेईमानीया कर रहा है उसको हम नजरअंदाज करेंगे.
इसकी मिसाल हमें गुजरात में देखने को मिलती है. जहां एक मुस्लिम महिला ने मुसलमानों के खिलाफ बयान दिए, झूठ बोली, जेल गई. उसको कम्युनिटी से निकालने की कोई बात नहीं हुई. लेकिन अगर आप यह कह दे कि हलाला नहीं होना चाहिए, ट्रिपल तलाक नहीं होना चाहिए तो आपको तुरंत कम्युनिटीसे बाहर निकालने की बातें की जाएगी.
इस चीज को बदला तभी जा सकता है जब मुल्ला और मुसलमानों के बीच का डायनेमिक्स बदलेगा. वह नहीं बताएँगे कि मुझे किस तरह से जिंदगी गुजारनी है, अपना रवैया कैसा रखना है, अपने बच्चों को कितना पढ़ाना है.
मेरी बच्ची अगर बिना हिजाब या हिजाब के साथ निकलना चाहे तो उसके साथ खड़ा रहना है. इस तरह से मेरी जाती जिंदगी में मौलवी की दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए. वह नमाज पढ़ाये और निकाह पढ़ाये.
वैसे निकाह पढ़ाने के लिए भी मौलवी की जरूरत नहीं है. मरने के बाद नमाजे जनाजा पढ़ाने के लिए भी मौलवी की जरूरत नहीं है. कुरान हमें कह रहा है कि हमने आपको मजहब दिया है और मजहब को आप अपने तरीके से समझे और जिए. जो लोग बहुत सी हिदायतें दे रहे हैं मुझे लगता है कि उन्हें हमने अलग करना चाहिए.
9. आपका अलग अलग भूमिकाओ द्वारा समाज से जुडी हुई है. आपने उसे संजीदगी से देखा है. भारतीय मानस के बारे में आपको क्या लगता है? और मुस्लिम मानस के बारे में ?
• सारे समुदायों में किन्ही कारणों से इनसिक्योरिटी बहुत ज्यादा है. उनकी वजह अलग-अलग है, लेकिन एंड रिजल्ट एक ही है. असुरक्षितता. और इसी की वजह से लोगों की निर्भरता अंधश्रद्धा पर ज्यादा है. इससे लड़ने की बहुत ज्यादा जरूरत है.
उर्दू के पहले दौर की लेखिका रशीद जहां कि आप कहानियां पढ़े. वह डॉक्टर थी. इसलिए उनकी पहुंच लोगों के घर तक थी. उन्होंने लिखा हैं कि कैसे औरतें अपनी इनसिक्योरिटीज के वजह से तावीज और बाबाओं के चक्कर में आ जाती थी.
हमे इस अंदरूनी खौफ से लड़ने की जरूरत है. डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर भी कहते थे कि आप आंखें खोल कर देखिए, इसको साबित कीजिए, और अगर नहीं कर पाए तो मुझसे बातचीत कीजिए.
मैं इस अंधश्रद्धा की दूसरी साइड आपके सामने खोल दूंगा. इस तरह की बातचीत होते रहना जरूरी है. जो लगातार कम होती जा रही है. पर यह सिर्फ धर्म की चोट नहीं है. यह कैपिटलिजम की भी चोट है.
आप इतने अकेले और इतनेसिक्योर महसूस करते हैं कि धर्म के अलावा आपके पास कोई रास्ता ही नहीं रह जाता. फिर वह जो रतजगा हो रहा है जगराता हो रहा, कथा सुनाई जा रही है है वहां आप पहुंच जाते हैं. आज मैं देखती हूं कि लोग 10-10 12-12घंटे मशीनों पर बैठकर काम कर रहे है. कैपिटलिजम का यह स्वरूप अमानवीय है.
10. मुसलमानों की समाजी स्थिति कैसी है? क्या बाकि समुदायों जितने स्वतंत्रता के फल उन्हें मिले? उनके पिछड़ेपन के लिए कौन जिम्मेदार है?
• हमको स्वतंत्र हुए 75साल हो गए हैं. मुझे ऐसा लगता है कि मुसलमानों में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जैसा नेता नहीं हुआ, जिसका खामियाजा हम भुगत रहे हैं. एक तरफ तो वो कॉन्स्टिट्यूशन भी लिख रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ दलित समाज के लिए भी काम कर रहे हैं और इस समाज के साथ उनकी बातचीत हो रही है.
वह इन लोगों को राय दे रहे हैं कि तुम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं. ऐसा नेतृत्व मुसलमानों में पैदा नहीं हुआ. हालांकि एक ऐसे शख्स मुझे नजर आते हैं. डॉ जाकिर हुसैन. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से वह यह कहकर अलग हुए थे की यहां सिर्फ जमींदारों के बच्चे सीखते हैं.
मुझे फिक्र गरीब तबके की है. और फिर उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना की जो दिल्ली से बिल्कुल बाहर है. ऐसी जगह जहां बिल्कुल अनपढ़ और गरीब मुसलमानो की बस्ती है. लोग उनसे कहते थे कि ऐसे इलाके में कौन पढ़ने के लिए आएगा?
पर आज वह हिंदुस्तान की एक बेहतरीन यूनिवर्सिटीज में से एक है. ऐसी और यूनिवर्सिटी की जरूरत थी जो अपर क्लास को केटर ना करें. क्योंकि उनके लिए तो बहुत सारी सुविधाएं उपलब्ध है. गरीब तबके के लिए यह सहुलते नहीं है.
और यही गरीब तबका है जिसने पाकिस्तान का विरोध किया था. वह नहीं चले गए पाकिस्तान. वह यहां रहे क्योंकि वह बंधे हुए थे यहां की जमीन से. उनके लिए पिछले 75सालों में ढंग से काम नहीं हुआ. और सच्चर कमेटी भी इसी की ओर इशारा करती है. कि मुसलमानों में गरीबी और अशिक्षितता का प्रमाण और समाजों के मुकाबले कहीं ज्यादा है.
मुस्लिम समाज की बेहतरी के लिए कोशिश होती रही है. डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था कि पढ़ाई लिखाई बहुत बड़ा अस्त्र है. हर एक मुश्किल में हाल-फिलहाल में देख रही हूं कि लड़कियां कोशिश कर रही हैं पढ़ रही है ऊंचे ओहदे पर जा रही है लेकिन मुसलमान लड़कों में पढ़ाई का प्रमाण कम है.
और मेरे ख्याल से यह पूरे भारतीय समाज की मुश्किल है. लड़का हमारी कब्र पर मिट्टी डालेगा, अंतिम संस्कार करेगा, घर चलाएगा ऐसे सामाजिक कारणों से हमने लड़कों को जो बेवजह का महत्व दिया है.
उस लाड-प्यार की वजह से वह पढ़ लिख नहीं रहे हैं. और लड़की के मां-बाप को यह फिक्र सता रही है कि हमारी पढ़ी-लिखी लड़की का रिश्ता कम पढ़े-लिखे लड़के से कैसे करें? इस वजह से बहुत जगह लड़कियों को भी पढ़ने से रोका जा रहा है.
11. बतौर साहित्यिक आप हमारे समाज के भविष्य की तरफ कैसे देखती है?
• मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि समाज में तब्दीलया दो ही लोग लाएंगे. 1महिलाएं और दूसरे साहित्यकार. उसमें हम फिल्म और ड्रामावालों को भी शामिल कर देते हैं. उनके ऊपर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू हो.
वो इस तरह की बातें भी कहते रहे, फिल्में भी बनाते रहे, लिखते भी रहे जिससे समाज में जागरूकता पैदा हो. अगर आप पूछेंगे कि कलाकार बनेंगे कैसे तो मुझे लगता है उसके लिए शिक्षा एक जरूरी हिस्सा हो जाती है.
• मौजूदा दौर में पढ़ाई लिखाई तब्दीलयों के लिए जरूरी है. आप देखेंगे कि पढ़ाई को ही यह रूढ़िवादी रोकने की कोशिश कर रहे हैं. क्यों जेएनयू और जामिया जैसी यूनिवर्सिटीज पर अटैक हो रहे है ? क्योंकि खुली शिक्षा मिले ना.
वह जो रिजर्व कैटेगरी है उसमें लड़के लड़कियां भी भर्ती हो ना सके. दलित भी पीछे रहे मुसलमान भी पीछे रहे, और सेकंड क्लास सिटीजंस बनके रहे. इसलिए हमें यह देखना होगा कि शिक्षा को नुकसान ना होने पाए.
• दूसरी बात एक्टिविज्म की है. एक्टिविज्म हर किसी को करने की जरूरत है. हमने मान लिया है कि यह ग्रुप है जो एक्टिविज्म करेगा दूसरा ग्रुप नीतियां बनाएगा. अब वो वक्त नहीं है कि हम विभाजित होकर के काम करें.
जब लोग मुझसे पूछते हैं कि तुमने चार पांच क्षेत्रों में हात क्यों आजमाया? तो मैं उन्हें कहती हूं कि बहुत सारी चीजें करनी थी पर जिंदगी एक ही है इसलिए मैंने बहुत सारी चीजें की.
• सभी को निडर होना है सभी को बात करते रहना है की तबदीली आए. क्योंकि समाज अगर रुक गया थम गया तो खत्म हो जाएगा. तो वही हालत हो जाएगी जो इजिप्ट में फेहरोज की हुई. कहने के लिए पिरमिड्स दुनिया की सबसे पुरानी चीजें हैं.
उनकी आप तारीफ करते रहें… लेकिन वह दौर भी खत्म हुआ. और इसी वजह से खत्म हुआ कि उसने आगे बढ़ना, सोचना खत्म कर दिया. हमारे समाज के ऐसी हालत ना हो. और जब मैं हमारा समाज कहती हूं तो मैं सिर्फ मुसलमानों की बात नहीं करती.
• यह बहुत खतरे की बात है कि हिंदुओं में जो उदारता थी वह खत्म होती जा रही है. गोमती नदी के किनारे हमारा घर था. लोग वहां नहाने जाते थे. और पापा को देख कर प्यार से मुस्कुरा के जय सियाराम कहा करते थे.
मेरे पापा कहते थे कि देखो इनके धर्म में कितनी उन्नति है कि यह महिला का नाम पहले लेते हैं. यह सियाराम कहते हैं. आज देखिए वह बदल गया है. जय श्री राम हो गया है. इस चीज को समझिए कि पेट्रीआर्की किस तरह से आगे बढ़ रही है.
हमें इसलिए जय श्री राम से लड़ना है और उनसे पूछना है कि हमारी सिया कहां गई? तो यह लड़ाई हमें कई स्तरों पर लड़नी है. और लड़ते रहने के लिए ऊर्जा बनाए रखने के लिए हम सर जोड़ के मिल बैठकर आपस में संवाद करते रहे.
12. भारत जैसे बहुसंस्कृतिक और बहुधार्मिक देश में बहुलतावाद और सौहार्द की क्या अहमियत लगती है?
• मेरे नाटक में एक प्रसंग है- बहुत मेहनत और मशक्कत के बाद कबीर आसमान से नीचे आते हैं क्योंकि उन्हें बनारस देखना होता है. वह पोस्ट ऑफिस कर देखते हैं तो वहां वाराणसी लिखा होता है.
यूनिवर्सिटी के आगे वाराणसी लिखा हुआ है. तो वो कहते हैं कि मैं तो गलत जगह उतर गया हूं. यह तो मेरा बनारस नहीं है. तो वह छोला भटूरा बेचने वाले एक बंदे से पूछते हैं कि भैया यह जगह कौन सी है? तो कहता है बनारस है! तो कबीर कहते हैं चलो मैं ठीक जगह आ गया!
• कुछ लोग मुझसे नाराज होंगे कि मैं हर चीज पाकिस्तान से जोड़ देती हूं. पाकिस्तान में रागों के नाम तक बदले गए. और वह इस्लामिक किए गए. बड़े गुलाम अली पाकिस्तान से वापस आ गए. उनका पहला कंसर्ट लाहौर में हो रहा था.
एक छोटा ख्याल गाते हुए उसमें कन्हैया का जिक्र आया. तो किसी ने उठकर कहा कि यह हिंदू गाने यहां पर मत गाइए. तो वह उठकर खड़े हो गए और कहां मैं जा रहा हूं यहां से वापस. क्योंकि मैं अगर यह नहीं गा सकता तो मुझे यहां नहीं रहना है.
और वो वापस चले गये, कुर्तुलैन हैदर इसीलिए वापस आ गयी. क्यों की वो कह रही थी, मेरे खून में बुद्धिजम भी मिला है, हिन्दुइज्म भी मिला है, सारी चीजों का मिश्रण है मुझ में. तो उनपर सवाल उठाये जाने लगे. और आग का दरिया लिखने के बाद वो नहीं रुकी वहां.