डा. रख़्शंदा रूही मेहदी
उर्दू साहित्य की एक अनुपम विधा मर्सिया निगारी है. मर्सिया अरबी शब्द ‘रिसा‘ से बना है जिसका अर्थ है - मृतकों की याद में रोना या दुख प्रकट करना. मगर परंतु विशेषः मर्सिया का तात्पर्य इमाम हुसैन और उनके अनुयायी व साथियों द्वारा यज़ीद की सेना के खि़लाफ़ इराक़ के मैदान-ए- कर्बला में लड़ी गई जंग का वर्णन और जंग में शहीदों की स्मृति में लिखे शोक गीतों से होता है. मूल रूप से अरबी से फ़ारसी काव्य में और फ़ारसी काव्य से उर्दू काव्य में इस विद्या का अवतरण हुआ.
कर्बला की जंग 10 मुहर्रम, 61 हिजरी (10 अक्टूबर, 680 ईसा पूर्व) को हुई थी, और इसमें हज़रत इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) और उनके साथी और अनुयायी शहीद हुए थे. कर्बला की जंग में उनके साथियों और अनुयायियों को लेकर आम धारणा है कि उनकी संख्या कुछ सवा सौ से हज़ार तक थी.
इस घटना में हज़रत इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के साथियों और अनुयायियों ने नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के धर्मिक और सामाजिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए जान की बाजी लगाई थी. उनकी बलिदानी आत्मा इस्लामी इतिहास में महत्वपूर्ण घटना के रूप में याद की जाती है, और इसे मुहर्रम और आशूरा के दिनों पर याद किया जाता है.
भारत की सरज़मीन सूफ़ी-संतों की प्रेम-भक्ति से रसमग्न है. कर्बला के इस दिलदोज़ वाक़्य को ग़ैर मुस्लिम लेखकों और विशेषः कवियों ने श्रद्धापूर्वक अपने काव्य में व्यक्त किया है जो आपसी दुख-दर्द की सांझी विरासत का प्रमाण है.इंतज़ार हुसैन की पुस्तक ‘मर्सिया में हिंदू योगदान‘ में अनेक ग़ैर मुस्लिम मर्सियागो कवियों का उल्लेख मिलता है.कुछ प्रसिद्ध कवियों द्वारा रचे मर्सिये यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं. इसमें क्रम में रूप कुमारी का चर्चित हाजिर है-
रूप कुमारी का लिखा ये सलाम उस समय के कई रिसालों में छपा और बहुत मशहूर हुआ. रूप कुमारी को उर्दू साहित्य की इकलौती ग़ैर मुस्लिम मर्सियागो शायर होने का गौरव प्राप्त है.उन्होंने पहला सलाम 1931 में और अंतिम मर्सिया 1937 में कहा. सात वर्ष वो अपनी अछूती मर्सिया कविता से आशिकाने हुसैन के दिलों पर अक़ीदत के रत्नों से सराबोर करती रहीं.
सुप्रसिद्ध मर्सिया ‘ घबराएगी ज़ैनब‘ लाला छंगूलाल दिलगीर लखनवी की रचना है. ये मीर अनीस के मर्सिये से पहले 417 मर्सिए रच चुके थे. पहले ये रोमानी शायरी किया करते थे, मगर मर्सिया लिखने के बाद उन्होंने अपनी समस्त रोमानी शायरी मोती झील में बहा दी और केवल मर्सिया लिखते रहे.
कहा ज़ैनब ने के बिन भाई के हो आई मैं
आपके लाडले शब्बीर को खो आई मैं
त्रिलोक नाथ आज़म जलालाबादी लिखते हैं-
गुर सरन लाल अदीब लखनवी का एक चर्चिम मर्सिया है-
रघुबीर सरन दिवाकर उर्फ़ राही अमरोहवी का मर्सिया है-
संत दर्शन जी महाराज दर्शन अपनी नज़्म ‘ फ़ातेह कर्बला‘ में कहते हैं-
सरोजनी नायडू की नज़्म ‘षबे ष्षहादते उज़मा‘ का उर्दू अनुवाद मौलाना सफ़ी लख्नवी ने किया है-
दिल्लू राम कौसरी ने लिखा है-
पंडित दया शंकर नसीम का एक चर्चित मर्सिया है-
सूरज सिंह सूरज ने लिखा है-
हकीम छन्नूमल देहलवी का एक चर्चित मर्सिया है-
राय बहादुर बाबू अतारदीन ने कर्बाला की घटना पर लिखा है-
सरकश प्रसाद लिखते हैं-
मुंशी विश्वनाथ प्रसाद माथुर लखनवी का चर्चित मर्सिया है-
नथुनी लाल वहशी ने इमाम हुसैन पर लिखा है-
कुंवर महिंदर सिंह बेदी का एक चर्चित मर्सिया है-
अदीब सीतापुरी ने लिखा है-
जय सिंह ने कर्बला के वाक्य पर लिखा है-
राम प्रकाष साहिर ने लिखा है-
मुंशी प्रेमचंद का “कर्बला” उनके महत्वपूर्ण नाटकों में से एक है, जो भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. यह नाटक मुस्लिम समुदाय की ऐतिहासिक कर्बला की घटना पर आधारित है, जो हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों के बलिदान की कहानी है.
केंद्रीय पात्र हुसैन हैं, जो अपने आदर्शों और धरोहरों के लिए सच्चाई और न्याय की रक्षा करने का संकल्प लेता और उसको जान की बाज़ी लगा कर पूरा करता है.कालिदास गुप्ता रज़ा का रचा मर्सिया शोरे ग़म‘ इस परंपरा को आगे बढ़ाने में प्रमुख स्थान रखता है.
वर्तमान समय के अखिल भारतीय हुसैनी मंच के संस्थापक रमा शंकर पाण्डेय अपनी पुस्तक ‘हुसैन से इंसानियत‘ में लिखते हैं-इमाम हुसैन के हृदय में मौजूद मानवता की सर्वोच्च रोशनी से संपूर्ण मानव जगत की मानवता के हृदय को प्रकाशमान करना तथा संपूर्ण मानव जाति के उद्धार एवं कल्याण को बढ़ावा देना, आतंकवाद व भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना और आगे चल कर अंतरराष्ट्रीय हुसैनी मंच के रूप में संपूर्ण दुनिया से आतंकवाद और भ्रष्टाचार का विनाश करना अखिल भारतीय हुसैनी मंच के उद्देश्य हैं. कर्बला के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए ग़ैर मुस्लिम कवियोंव साहित्यकारों का योगदान हमेशा से अनुकरणीय रहा है.
-लेखिका जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्कूल से जुड़ी हैं.
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