मीर की आत्मकथा फारसी में प्रकाशित की जाए ताकि इसके शोधकर्ताओं को गहन अध्ययन में लाभ मिले: भारत में ईरान के राजदूत

Story by  मोहम्मद अकरम | Published by  [email protected] | Date 13-01-2025
Mir's autobiography should be published in Persian so that researchers can benefit from in-depth study: Iran's Ambassador to India
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मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली

अंजुमन तरक्की उर्दू (हिंद) ने उर्दू साहित्य और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए मीर तकी मीर की पांडुलिपियों को डिजिटलीकृत किया है. यह उपलब्धि न केवल भारतीय साहित्य के इतिहास में, बल्कि वैश्विक स्तर पर उर्दू और फारसी साहित्य के अध्ययन में एक मील का पत्थर साबित होगी. भारत में ईरान के राजदूत डॉ. इरज इलाही ने अंजुमन के इस प्रयास की सराहना करते हुए इसे "एक बड़ी उपलब्धि" करार दिया.

अंजुमन तरक्की उर्दू द्वारा आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में भाग लेते हुए, डॉ. इरज इलाही ने मीर तकी मीर की गद्य और कविताओं की पांडुलिपियों को एकत्र करने और डिजिटलीकृत करने की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण बताया.

 उन्होंने कहा, "यह अंजुमन का असाधारण प्रयास है कि उसने न केवल मीर की आत्मकथा 'ज़िक्र-ए-मीर' के पूर्ण पाठ को प्राप्त किया, बल्कि माइक्रोफिल्म और डिजिटल तकनीक के माध्यम से इन दुर्लभ पांडुलिपियों का व्यापक उपयोग भी संभव बनाया है."

राजदूत ने यह सुझाव भी दिया कि अंजुमन को मीर की आत्मकथा के फारसी पाठ को प्रकाशित करना चाहिए, जिससे फारसी का ज्ञान रखने वाले शोधकर्ताओं और पाठकों को इसका गहन अध्ययन करने में मदद मिलेगी. उन्होंने पांडुलिपियों की प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए यह इच्छा भी व्यक्त की कि भारत में उर्दू और फारसी की हर लाइब्रेरी अंजुमन की तरह एक मिसाल बन सके.


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कार्यक्रम में इतिहासकार शरीफ हुसैन कासमी ने अंजुमन के योगदान की सराहना करते हुए कहा कि मीर तकी मीर पर प्रकाशित यह अंक अब तक के उर्दू साहित्य के सभी प्रकाशनों से श्रेष्ठ है. उन्होंने ईरानी राजदूत से आग्रह किया कि इस अंक को विश्व के हर उस पुस्तकालय तक पहुँचाने का प्रयास करें, जहां ओरिएंटल स्टडीज और फारसी के छात्र अध्ययनरत हैं.

कासमी ने यह भी बताया कि अंजुमन की लाइब्रेरी में 'नूर माइक्रोफिल्म' के माध्यम से हजारों उर्दू और फारसी पुस्तकों को डिजिटली संरक्षित किया गया है. यह प्रयास उन दुर्लभ पांडुलिपियों को संरक्षित करने की दिशा में है, जो समय के साथ नष्ट हो रही थीं.

कार्यक्रम के दौरान अंजुमन के ट्रस्टी और पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने अपने संबोधन में अंजुमन की ऐतिहासिक भूमिका और उसके संस्थापक डॉ. जाकिर हुसैन के योगदान को याद किया. उन्होंने कहा, "अंजुमन ने जिस सम्मान के साथ डॉ. जाकिर हुसैन की विरासत को संजोया है, वह किसी अन्य संस्थान में देखने को नहीं मिलता."

सलमान खुर्शीद ने यह भी स्वीकार किया कि उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि डॉ. जाकिर हुसैन ने इस्लामिया कॉलेज के संग्रह को अलीगढ़ स्थानांतरित किया था और इसमें 'ज़िक्र-ए-मीर' का सबसे महत्वपूर्ण पाठ शामिल था. उन्होंने इस बात पर गर्व व्यक्त किया कि अंजुमन बिना किसी सरकारी सहायता के आत्मसम्मान और स्वाभिमान के साथ अपने मिशन को आगे बढ़ा रही है.

अंजुमन तरक्की उर्दू (हिंद), जिसे उर्दू घर के नाम से भी जाना जाता है, भारत का सबसे पुराना भाषाई और साहित्यिक संगठन है. इसकी स्थापना 1882 में सर सैयद अहमद खान ने उर्दू और हिंदी के बीच बढ़ते संघर्ष को समाप्त करने और साझा सांस्कृतिक विरासत को बचाने के उद्देश्य से की थी.

1903 में इसका नाम बदलकर 'अंजुमन तरक्की उर्दू' कर दिया गया. इसके पहले सचिव प्रख्यात प्राच्यविद् अल्लामा शिबली नुमानी थे और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद सहायक सचिव नियुक्त किए गए. इस राष्ट्रवादी संगठन को महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डॉ. जाकिर हुसैन जैसे राष्ट्रीय नेताओं का समर्थन प्राप्त था.

मीर तकी मीर को उर्दू का "खुदा-ए-सुखन" कहा जाता है. उनकी कविताएँ और गद्य उर्दू साहित्य का अमूल्य खजाना हैं। उनकी आत्मकथा 'ज़िक्र-ए-मीर' उनकी रचनात्मकता, संघर्ष और जीवन के अनुभवों का जीवंत चित्रण है. इस पाठ का संरक्षण और डिजिटलीकरण न केवल साहित्यकारों और शोधकर्ताओं के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि उर्दू और फारसी के छात्रों के लिए भी एक अनमोल संसाधन है.

अंजुमन तरक्की उर्दू (हिंद) ने अपनी लाइब्रेरी में उपलब्ध सभी दुर्लभ पुस्तकों और पांडुलिपियों को डिजिटली संरक्षित करने की योजना बनाई है. इसका उद्देश्य इन सांस्कृतिक धरोहरों को अगली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना है.

अंजुमन तरक्की उर्दू का यह प्रयास साहित्य और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में मील का पत्थर है. यह भारत और विश्व स्तर पर उर्दू और फारसी भाषा और साहित्य के अध्ययन को नई दिशा देने में सहायक होगा. भारत में ईरान के राजदूत सहित अन्य विद्वानों और साहित्यकारों ने इस ऐतिहासिक उपलब्धि को न केवल सराहा, बल्कि इसके वैश्विक प्रसार की आवश्यकता पर भी जोर दिया.