स्मृति दिवस: ' मदर इंडिया ' के जनक महबूब ख़ाँ

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 29-05-2024
Memorial Day: Mehboob Khan, father of 'Mother India'
Memorial Day: Mehboob Khan, father of 'Mother India'

 

-ज़ाहिद ख़ान

अदाकार-निर्माता-निर्देशक महबूब ख़ाँ, नेहरू दौर के अहम फ़िल्मकार हैं.नेहरू दौर के इस मायने में कि साल 1935में महबूब ख़ाँ ने फ़िल्म ‘अल—हिलाल’ से फ़िल्मी दुनिया में डायरेक्शन का आग़ाज़ किया, तो 1962में आई ‘सन ऑफ इंडिया’ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी.इस दरमियान उन्होंने तक़रीबन दो दर्जन फ़िल्मों का डायरेक्शन किया.

 अपनी इन फ़िल्मों से महबूब ख़ाँ ने देशवासियों का मनोरंजन तो किया ही, उन्हें शिक्षित भी किया.उनकी कोई भी फ़िल्म उठाकर देख लीजिए, इनमें मनोरंजन है, तो एक पैग़ाम भी.देश के सुंदर भविष्य का सपना, इन फ़िल्मों में स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है.महबूब ख़ाँ ही नहीं, उस दौर के दूसरे बड़े फ़िल्मकारों बिमल रॉय, राजकपूर, बीआर चोपड़ा और के.आसिफ़ की फ़िल्मों में भी नेहरू के आदर्शों की अक्कासी दिखाई देती है.

 फ़िल्मी दुनिया का यह सुनहरा दौर था.इन निर्माता-निर्देशकों की फ़िल्मों ने देशवासियों को एक सूत्र में बांधने का महत्त्वपूर्ण काम किया, जिसकी हम बहुत कम चर्चा करते हैं.बहरहाल, 27मई 1964को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस दुनिया से अपनी आख़िरी विदाई ली, तो अगले रोज़ यानी 28 मई को महबूब ख़ाँ भी उनके नक़्शे क़दम पर चल दिए.

अफ़साना निगार और मशहूर जर्नलिस्ट ख़्वाजा अहमद अब्बास ने अपने एक मज़ामीन में इस पूरे दर्दनाक वाक़िये को कुछ इस तरह से बयां किया है, ‘‘फ़िल्म निर्देशक और निर्माता महबूब ख़ाँ, जिनका नेहरू और उनके आदर्शों के जानिब समर्पण इतना गहरा था कि जैसे उन्होंने नेहरू के न रहने की ख़बर सुनी, उन्होंने अपने पहले से ही बीमार दिल में दर्द की एक लहर महसूस की और कहा, ‘अब इस मुल्क में रहने से क्या फ़ायदा.’ इसके बाद वे भी हमेशा-हमेशा के लिए चल दिए.’’

भारतीय सिनेमा में ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के बाद ‘मदर इंडिया’ एक ऐसी बेमिसाल फ़िल्म है, जो हमारे मुल्क की समाजी, सियासी, मुआशी और तहज़ीबी ज़िंदगी को बेहतरीन तरीके़ से दिखलाती है.ख़ास तौर पर निर्माता-निर्देशक महबूब ख़ाँ ने अपनी इस फ़िल्म में भारतीय ग्रामीण समाज को जिस फ़नकारी और शिद्दत से फ़िल्माया है, वह लाजवाब है.

 महबूब ख़ाँ ने कई फ़िल्में बनाईं, अदाकारी की, फ़िल्म लेखन और निर्देशन किया, लेकिन उन्हें ‘मदर इंडिया’ के डायरेक्टर के तौर पर हमेशा याद किया जाएगा.‘मदर इंडिया’ के बाद, उनकी कोई फ़िल्म वह कमाल नहीं दिखा पाई.अलबत्ता ‘मदर इंडिया’ से पहले उनकी एक से बढ़कर एक फ़िल्में ‘रोटी’, ‘अनमोल घड़ी’, ‘अनोख़ी अदा’, ‘अंदाज़’, ‘आन’ और ‘अमर’ आईं और उन्होंने बॉक्स ऑफ़िस पर अपना जलवा दिखाया.

 आलम यह था कि उस वक़्त इन फ़िल्मों के मधुर गाने मुल्क के घर-घर में पहुंचे.यहां तक कि इन फ़िल्मों की मक़बूलियत सात समंदर पार भी पहुंची.महबूब ख़ाँ, बीसवीं सदी के चौथे और पांचवे दशक के कामयाब डायरेक्टर थे.उनका नाम ही फ़िल्मों की कामयाबी की जमानत माना जाता था.एक दौर था, जब मायानगरी मुंबई में महबूब ख़ाँ का डंका चारों ओर बजता था.

 उनके साथी निर्माता-निर्देशक, कलाकार, गीतकार, संगीतकार से लेकर फ़िल्मों से जुड़ा छोटा-सा छोटा टेक्नीशियन उन्हें इज़्ज़त-ओ-एहतिराम देते थे.वे वाक़ई सबके महबूब थे अपनी फ़िल्मों से उन्होंने सभी को अपना दीवाना बना रखा था.अफ़सोस, उन्हें बहुत कम उम्र मिली.महज़ 57साल की उम्र में उन्होंने यह दुनिया छोड़ दी.वरना, हिंदी फ़िल्मों के शैदाईयों को उनकी और भी कई नायाब फ़िल्में देखने को मिलतीं.

 गुजरात के गणदेवी तालुका (जिला नवसारी) के बिलिमोरा में एक ग़रीब परिवार में 9 सितम्बर, 1907 में जन्मे महबूब ख़ाँ का पूरा नाम, महबूब ख़ाँ रमजान ख़ाँ था.उनकी इब्तिदाई ज़िंदगी बेहद संघर्षों में गुज़री.आज इस बात का शायद ही कोई यक़ीन करे कि फ़िल्मी दुनिया में आने से पहले उन्होंने घोड़े की नाल बनाने और उसकी मरम्मत का काम भी किया था.

 फ़िल्मों में महबूब ख़ाँ का आगाज़ निर्माता-निर्देशक अर्देशर ईरानी की फ़िल्म कंपनी ‘इंपीरियल’ के स्टुडियो में एक्सट्रा के काम से हुआ.छोटे-छोटे क़दम बढ़ाते हुए, जल्द ही वे उनके साथ सहायक निर्देशक हो गए.हर नौजवान की तरह महबूब ख़ाँ का भी ख़्वाब, फ़िल्मों में हीरो बनना था.उन्होंने ‘मेरी जान’ (1931), ‘दिलावर’ (1931), ‘जरीना’ (1932) और ‘चंद्रहास’ (1934) जैसी फ़िल्मों मे अदाकारी भी की, लेकिन कामयाब नहीं हुए.

 आख़िरकार वे डायरेक्शन के मैदान में आ गए और साल 1936में उनके डायरेक्शन से सजी पहली फ़िल्म ‘अल—हिलाल’ यानी ‘जजमेंट ऑफ अल्लाह’ आई.और इसके बाद, महबूब ख़ाँ ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा.‘सागर मूवीटोन’ और ‘नेशनल स्टूडियोज़’ के लिए उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्मों में ‘डेक्कन क्वीन’ (1936), ‘एक ही रास्ता’ (1939), ‘अलीबाबा’ (1940), ‘औरत’ (1940), ‘बहन’ (1941) और ‘रोटी’ (1942) शामिल हैं.

 महबूब ख़ाँ की ‘रोटी’ वह फ़िल्म है, जिसमें मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर ने न सिर्फ़ अदाकारी की, कुछ नग़मे-ग़ज़लों को भी अपनी मखमली आवाज़ दी.फ़िल्म का मौज़ू अप्रत्यक्ष तौर से साम्राज्यवाद की मुख़ालफ़त करना था, जो उस वक़्त के हिसाब से बेहद चुनौतीपूर्ण काम था.

साल 1945में महबूब ख़ाँ ने अपना ख़ुद का प्रोडक्शन हाउस ‘मेहबूब प्रोडक्शंस’ क़ायम किया.इस बैनर पर 1946में उन्होंने ‘अनमोल घड़ी’ का निर्देशन किया,जिसमें गायक सुरेंद्र, नूरजहाँ और सुरैया अहम भूमिकाओं में थे.

उनकी पहली ही निर्देशित फ़िल्म म्यूजिकल हिट साबित हुई.संगीतकार नौशाद के संगीत से सजी इस फ़िल्म के सभी गाने सुपरहिट हुए.ख़ास तौर पर ‘आवाज़ दे कहां है’,‘जवां है मुहब्बत हसीं है ज़माना’, ‘आजा मेरी बरबाद मुहब्बत के सहारे’ गानों का तो कोई जवाब नहीं.

 सुरेंद्र, नूरजहाँ और सुरैया के अलावा ‘अनमोल घड़ी’ में शमशाद बेगम, ज़ोहराबाई अंबालेवाली और मुहम्मद रफ़ी ने भी गायकी की.एक ही फ़िल्म में इतने सारे बड़े गायक शायद ही किसी दूसरी फ़िल्म में एक साथ आए हों.फ़िल्म में प्लेबैक सिंगर मुहम्मद रफ़ी ने अपना पहला गीत, ‘तेरा खिलौना टूटा बालक’ रिकार्ड किया था.

 इस फ़िल्म के दो साल बाद यानी 1948में ‘अनोखी अदा’ फ़िल्म आई.इसने भी वही कामयाबी दोहराई.फिर तो यह सिलसिला शुरू हो गया.पूरे एक दशक तक महबूब ख़ाँ ने एक से बढ़कर एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्मों का निर्माण और निर्देशन किया.जिनमें क़ाबिल-ए-तारीफ़ फ़िल्में हैं रूमानी ड्रामा ‘अंदाज़’ (1949), म्यूजिकल ड्रामा ‘आन’ (1951), मेलोड्रामा ‘अमर’ (1954) और सोशल एपिक ‘मदर इंडिया’ (1957).

‘अंदाज़’ वह फ़िल्म थी, जिसमें राजकपूर और दिलीप कुमार दोनों एक साथ पर्दे पर नज़र आए.अफ़सोस ! यह लाजवाब जोड़ी, फिर कोई नहीं दोहरा पाया.मजरूह सुल्तानपुरी के नग़मो और नौशाद की मौसिक़ी से सजी इस फ़िल्म के सभी गाने सुपरहिट हुए.‘अनमोल घड़ी’ की तरह ‘अंदाज़’ ने भी साल में सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म का तमगा हासिल किया.

 साल 1957 में आई ‘मदर इंडिया’ वह फ़िल्म है, जिसने महबूब ख़ाँ को सफ़लता के शिखर पर पहुंचा दिया.अमरीकी लेखक पर्ल एस. बक की किताबों ‘द गुड अर्थ’ और ‘द मदर’ से प्रेरित होकर, साल 1940में महबूब ख़ाँ ने एक फ़िल्म ‘औरत’ बनाई थी.जिसे उस वक़्त ज़्यादा चर्चा नहीं मिली थी.उन्होंने एक बार फिर इसी कथानक पर काम किया। वज़ाहत मिर्ज़ा और एस.अली रज़ा ने स्क्रिप्ट लेखन और डायलॉग का ज़िम्मा संभाला.

 हमेशा की तरह संगीत की ज़िम्मेदारी नौशाद के कंधों पर थी, तो ग्रामीण जीवन के दुःख, संघर्ष और उल्लास को साकार करते गीतों ‘ओ गाड़ीवाले गाड़ी धीरे’, ‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया’, ‘होली आई रे कन्हाई’, ‘नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे’, ‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया’ की रचना गीतकार शकील बदायूनी ने की.

 नरगिस, राजकुमार, सुनील दत्त और कन्हैया लाल की अदाकारी और फ़िल्म के संगीत ने दर्शकों पर इस क़दर जादुई असर किया कि चारों ओर ‘मदर इंडिया’ के ही चर्चे थे.अपने आदर्शों और उसूलों में बंधी भारतीय नारी को महबूब ख़ाँ ने जिस सशक्त अंदाज़ में फ़िल्म के पर्दे पर पेश किया, वह वाक़ई अनूठा था.

 उस दौर में जब हिंदी सिनेमा में नायक प्रधान फ़िल्मों का बोलबाला था, उन्होंने नायिका प्रधान फ़िल्म बनाकर, सचमुच एक बड़ा जोखि़म लिया था.लेकिन उनकी यह हिम्मत काम आई.‘मदर इंडिया’ ने साल 1958में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और निर्देशक का ‘फ़िल्मफे़यर’ पुरस्कार तो जीता ही, राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी नवाज़ी गई.

 यही नहीं उस साल सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फ़िल्म के लिए 'अकादमी पुरस्कार' के लिए भी नामांकित हुई.ज़ाहिर है कि फ़िल्म के लिए यह एक बहुत बड़ी कामयाबी थी.

 भारतीय सिनेमा में ‘मदर इंडिया’ एक मील का पत्थर फ़िल्म मानी जाती है.महबूब ख़ाँ इस कामयाबी को दोबारा न दोहरा पाए.साल 1962में उन्होंने ‘मदर इंडिया’ की तर्ज़ पर ‘सन ऑफ इंडिया’ बनाई, लेकिन यह फ़िल्म फ्लॉप रही.अलबत्ता इस फ़िल्म का गाना ‘नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं’ आज भी बच्चों का मनपसंद गीत है.

 और देश के राष्ट्रीय दिवस 26जनवरी और 15 अगस्त पर ख़ूब बजता है.महबूब ख़ाँ वह निर्माता-निर्देशक हैं, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में कई नये ट्रेंड चलाए.मसलन त्रिकोणीय प्रेम कहानी (‘अंदाज़’) सबसे पहले वे लेकर आए, तो हीरो को एंग्री यंग मैन की छवि (‘मदर इंडिया’) उन्होंने ही दी.बाद में इसी थीम पर कई हिंदी फ़िल्में बनीं और कामयाब भी हुईं.

 महबूब ख़ाँ को इस बात का भी श्रेय है कि उन्होंने कई मशहूर अदाकारों और अदाकाराओं सुरेंद्र, दिलीप कुमार, राजकपूर, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार, राजकुमार, नरगिस, निम्मी और नादिरा को अपनी शानदार फ़िल्मों से फ़िल्मी दुनिया में स्थापित किया.आगे चलकर वे फ़िल्म स्टार बने.महबूब ख़ाँ का एक और बड़ा योगदान ‘महबूब स्टूडियो’ की स्थापना था.

 जिसमें न जाने अभी तक कितनी फ़िल्में शूट हुई हैं.व्यक्तिगत उपलब्धियों की बात करें, तो महबूब ख़ाँ साल 1961 में दूसरे ‘मॉस्को इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल’ में जूरी के मेंबर थे.वे ‘फ़िल्म फे़डरेशन ऑफ इंडिया’ के भी अध्यक्ष रहे.

 साल 1963 में उन्हें भारत सरकार ने चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया.2007, महबूब ख़ाँ का जन्मशती साल था.इस मौक़े को यादगार बनाने के लिए भारतीय डाक विभाग ने उन पर एक डाक टिकट जारी किया.‘मदर इंडिया’ जैसी बेहतरीन फ़िल्म बनाने वाले महबूब ख़ाँ सच मायने में ‘सन ऑफ इंडिया’ थे.हिंदी सिनेमा का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, महबूब ख़ाँ का नाम सुनहरे हुरूफ़ में अलग से चमकता हुआ दिखाई देगा.