-ज़ाहिद ख़ान
जाँ निसार अख़्तर, तरक़्क़ीपसंद तहरीक से निकले वे हरफ़नमौला शायर हैं, जिन्होंने न सिर्फ़ शानदार ग़ज़लें लिखीं, बल्कि नज़्में, रुबाइयां, कितआ और फ़िल्मी नग़्में भी उसी दस्तरस के साथ लिखे. सरल और आसान ज़बान में बड़ी बात कहने का हुनर उनमें था. आम आदमी को भी उनकी शायरी समझ में आ जाती थी.
तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों के साथ जाँ निसार अख़्तर ने भी शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर, ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाईयों से जोड़ा. उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी मुख़ालफ़त है.
वतन—परस्ती और क़ौमी-यकजेहती पर भी उन्होंने कई बेहतरीन नज़्में लिखी. ‘‘मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं/जो शाने पर बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं.’’ दूसरी आलमी जंग, देश की आर्थिक दुर्दशा और तमाम तात्कालिक घटनाक्रमों पर भी उन्होंने नज़्में, ग़ज़लें कहीं.
जाँ निसार अख़्तर साम्प्रदायिक सौहार्द के कट्टर हिमायती थे. उनकी कई नज़्में इस मौज़ूअ पर हैं. ‘‘एक है अपना जहाँ/एक है अपना वतन/अपने सभी सुख एक हैं/अपने सभी ग़म एक हैं/आवाज दो हम एक हैं.’’
जाँ निसार अख़्तर तरक़्क़ीपसंद शायरी के सुतून थे, लेकिन उनकी शायरी में सिर्फ़ एहतिजाज या बग़ावत के ही जज़्बात नहीं है. इश्क-मुहब्बत के नर्म, नाज़ुक एहसास भी शामिल हैं. गर उनकी वो शायरी देखें, तो वे एक रूमानी लहज़े के शायर नज़र आते हैं.
इस शायरी को पढ़ने के बाद कोई कह ही नहीं सकता कि उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसे नीरस विषय पर भी नज़्में कही होंगी. ‘‘अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं/कुछ शे'र फ़कत उनको सुनाने के लिए हैं.'', ''हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या/चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए.’’
जां निसार अख्तर की ग़ज़लों, नज़्मों की कई किताबें शाया हुईं. ‘ख़ाक-ए-दिल’, ‘ख़ामोश आवाज़’, ‘तनहा सफ़र की रात’, ‘जाँ निसार अख़्तर-एक जवान मौत’, ‘नजर-ए-बुतां’, ‘सलासिल’, ‘तार-ए-गरेबां’, ‘पिछले पहर’, ‘घर-आंगन’ (रुबाईयां) उनकी अहम किताबें हैं.
जाँ निसार अख़्तर का एक अहम कारनामा ‘हिंदुस्तान हमारा’ है. दो वॉल्यूम में शाया हुई इस किताब पर उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर काम किया था. किताब तीन सौ सालों की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल सरमाया है.
वतन—परस्ती, क़ौमी-यकजेहती के साथ इस किताब में मुल्क की कुदरत, रिवायत और उसके अज़ीम माज़ी को उजागर करने वाली ग़ज़लें, नज़्में शामिल हैं. हिंदोस्तानी त्यौहार, तहज़ीब, दुनिया भर में मशहूर मुल्क के ऐतिहासिक स्थल, मुख़्तलिफ़ शहरों, आज़ादी के रहनुमाओं, देवी-देवताओं यानी हिंदुस्तान की वे सब बातें, वाक़ियात या किरदार जो हमारे मुल्क को अज़ीम बनाती हैं, से संबंधित शायरी सब एक जगह मौज़ूद है.
वाक़ई यह एक अहमतरीन काम है. जिसे कोई दृष्टिसंपन्न लेखक, संपादक ही मुमकिन कर सकता था. इस किताब के ज़रिए उर्दू शायरी का एक ऐसा चेहरा सामने आता है, जो अभी तक छिपा हुआ था. भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब को बनाने-बढ़ाने में उर्दू शायरी ने जो योगदान दिया है, यह किताब सामने लाती है.
साहिर लुधियानवी से जाँ निसार अख़्तर का गहरा याराना था. मुंबई में उन्होंने अपना ज़्यादातर वक़्त साहिर के साथ ही गुज़ारा. साल 1955 में आई फिल्म ’यासमीन’ से जाँ निसार अख़्तर के फ़िल्मी करियर की शुरुआत हुई.
उन्होंने तक़रीबन अस्सी फ़िल्मों में गीत लिखे. जिनमें उनकी अहम फिल्में हैं ‘अनारकली’, ‘सुशीला’, ‘रुस्तम सोहराब’, ‘प्रेम पर्वत’, ‘त्रिशूल’, ‘रज़िया सुल्तान’, ‘नूरी’ आदि. संगीतकार ख़य्याम के लिए जाँ निसार अख़्तर ने शानदार गीत लिखे.
‘‘बेकसी हद से जब गुज़र जाए’’ (फ़िल्म-कल्पना), ‘‘बेमुरव्वत, बेवफ़ा, बेगान-ए-दिल आप हैं’’ (फिल्म-सुशीला), ‘‘आप यूं फासलों से गुजरते रहे...’’ (शंकर हुसैन), ‘‘ये दिल और उनकी निगाहों के साये..’’ (प्रेम पर्वत), ‘‘आजा रे आजा रे मेरे दिलबर आ रे...’’ (नूरी), ‘‘ऐ दिले नादां ऐ दिले नांदा...’’, (रज़िया सुल्तान) जैसे सदाबहार नग़मे जाँ निसार अख़्तर की उम्दा शायरी की वजह से ही लोगों की पसंद बने.
फिल्म ‘नूरी’ के गीत के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला. सरल और आसान ज़बान में बड़ी बात कहने का हुनर उनमें था. आम आदमी को भी उनकी शायरी समझ में आती थी. मौसिक़ार ख़य्याम ने अपने एक इंटरव्यू में जाँ निसार अख़्तर की गीतों को लिखने की असाधारण क़ाबिलियत के बारे में बतलाते हुए कहा था,‘‘जाँ निसार अख़्तर में अल्फ़ाज़ और इल्म का ख़जाना था.
एक-एक गीत के लिए वे कई-कई मुखड़े लिखते थे. फ़िल्म ‘रज़िया सुल्तान’ में उन्होंने ‘‘ऐ दिले नादाँ...’’ गीत के छह-छह मिसरों के लिए कम से कम कुछ नहीं तो सौ अंतरे लिखे होंगे.’’ उनके बारे में कमोबेश ऐसी ही बात, शायर निदा फाज़ली ने भी कही थी. बावजूद इसके जाँ निसार अख़्तर को फिल्मों में उतना मौक़ा नहीं मिला, जितना वे इसके हक़दार थे.
उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में जाँ निसार अख़्तर के बेमिसाल काम के लिए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान से सम्मानित किया गया. साल 1976 में ‘ख़ाक-ए-दिल’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला.
महाराष्ट्र अकादमी पुरस्कार के अलावा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए. जाँ निसार अख़्तर को अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो उनकी शरीक-ए-हयात सफ़िया अख़्तर के ख़त पढ़िए, जो उन्होंने जाँ निसार को लिखे हैं.
वे भले ही उनसे दूर रहे, लेकिन सफ़िया की उनके जानिब मुहब्बत जरा सी भी कम नहीं हुई। सफ़िया अख़्तर की कैंसर से बेवक्त हुई मौत ने जाँ निसार अख़्तर पर गहरा असर डाला. दिल को झिंझोड़ देने वाली अख़्तर की नज़्में ‘ख़ामोश आवाज़’ और ‘ख़ाक—ए-दिल’ सफिया अख़्तर की मौत के बाद ही लिखी गई हैं.
नज़्म ’ख़ाक—ए—दिल’ में उनका अंदाज़ बिल्कुल जुदा है,‘‘आहट मेरे क़दमों की सुन पाई है/इक बिजली सी तनबदन में लहराई है.’’ मशहूर अफसाना निगार कृश्न चंदर ने जाँ निसार अख़्तर की शायरी पर लिखा है, ‘‘जाँ निसार वो अलबेला शायर है, जिसको अपनी शायरी में चीख़ते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आंच पर पकती है.’’
जाँ निसार अख़्तर बहुत ही मिलनसार, महफ़िलबाज़ और ख़ुशमिज़ाज इंसान थे. अपने वालिद जाँ निसार अख़्तर को याद करते हुए, उनके बेटे शायर-गीतकार जावेद अख़्तर ने एक इंटरव्यू में कहा है, ‘‘उन्होंने हमेशा मुझे यह सीख दी कि मुश्किल ज़बान को लिखना आसान है, मगर आसान ज़बान कहना मुश्किल है.’’
जावेद अख़्तर की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाक़ी जतलाए. यकीन न हो, तो जाँ निसार अख़्तर की ग़ज़लों के कुछ अश्आरों पर नज़र-ए-सानी कीजिए, ख़ुद ही समझ में आ जाएगा. ‘‘ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें/इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं.’’, ‘‘इश्क़ में क्या नुक़सान नफ़अ है हम को क्या समझाते हो/हम ने सारी उम्र ही यारों दिल का कारोबार किया.’’
जाँ निसार अख़्तर एक बोहेमियन थे. किसी भी तरह की रूढ़ि और धार्मिक कर्मकांड से आज़ाद. सही मायने में तरक़्क़ीपसंद, आज़ादख़्याल ! उन्हें ज़िंदगी में कई रंज-ओ-ग़म मिले. मगर इतने रंज-ओ-ग़म झेलने के बाद भी उनके दिल में किसी के भी जानिब कड़वाहट नहीं थी.
वे हमेशा सबसे दिल खोलकर मिलते थे. नौजवान शायर उन्हें हर दम घेरे रहते थे. जाँ निसार ने अपने एक ख़त में लिखा है, ’‘आदमी जिस्म से नहीं, दिल-ओ-दिमाग़ से बूढ़ा होता है.’’ यह बात उन पर भी अमल होती थी. ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक उन्होंने अपने ऊपर कभी बुढ़ापा हावी नहीं होने दिया.
रात में देर तक चलने वाली महफ़िलों और मुशायरों में वे अपने आपको मशगूल रखते थे. ‘‘फ़िक़्र—ओ—फ़न की सजी है नयी अंजुमन/हम भी बैठे हैं कुछ नौजवानों के बीच.’’ अपनी ज़िंदगी में उन्होंने कभी किसी से कोई शिकवा नहीं किया.
‘‘ज़िंदगी ये तो नहीं तुझ को सँवारा ही न हो/कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो.’’ 19 अगस्त, 1976 को ज़िंदगी का क़र्ज़ उतारकर, जाँ निसार अख़्तर इस जहां से उस जहां के लिए रुख़सत हो गए, जहां से लौटकर फिर कभी कोई वापस नहीं आता.
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