पहले गदर में मंगल पांडे को मुस्लिम सैनिकों का मिला भरपूर समर्थन

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 08-04-2023
मंगल पांडे: पहले ग़दर के नायक
मंगल पांडे: पहले ग़दर के नायक

 

राकेश चौरासिया

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 1857 की पहली क्रांति का गर्व से स्मरण किया जाता है, जिसमें मंगल पांडे की भूमिका किसी नायक से कम नहीं थी. क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था कि अंग्रेजों के अपने सैनिकों ने विद्रोह ही नहीं किया, बल्कि एक अंग्रेज अफसर की खुद मंगल पांडे ने हत्या कर दी. उस विद्रोह का जो वाकया हुआ, वह इसलिए संभव हो पाया कि उसमें मंगल पांडे का हिंदू ही नहीं, बल्कि उस पलटन के मुस्लिम सिपाही भी साथ दे रहे थे.

अंग्रेजी राज में रैयत का हर आदमी परेशान था. पहला सबसे बड़ा कारण यह था कि अंग्रेजों ने बंगाल, बोम्बे और मद्रास रेजीडेंस के अधिकार क्षेत्रों में मुगलों के मुकाबले दोगुना लगान वसूलना शुरू कर दिया था. यहां तक कि राहगीरों पर भी टैक्स लगाया गया. इसके अलावा अत्याचार की अनगिनत कहानियां अलग से हैं, जिनसे आम आदमी को जीना दूभर हो गया था.

आम जन की तरह अंग्रेजी फौज के सिपाही भी सब देख, सुन, समझ रहे थे. बेशक मंगल पांडे ब्रिटिश फौज के सिपाही थे, लेकिन लगभग सभी सैनिकों की तरह उनमें भी अपनी मातृभूमि के प्रति सम्मान कम न था. मंगल पांडे 34 बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के सिपाही थे, जो बंगाल रेजीडेंसी की पलटन थी.

बंगाल रेजीडेंसी की फौज का ढांचा कुछ इस तरह था कि उसमें अगर 1000 जवान होते थे, तो कमोबेश उनमें 800 हिंदू और 200 मुस्लिम सैनिक हुआ करते थे. 800 हिंदुओं में भी लगभग 400 ब्राह्मण हुआ करते थे और अन्य सैनिक अलग हिंदू जातियों के होते थे. बंगाल इन्फेंट्री में ब्राह्मणों का अन्य जातियों के हिंदू सैनिक तो सम्मान करते ही थे, बल्कि ब्राह्मणों की सर्वमान्य सामाजिक श्रेष्ठता के कारण मुस्लिम सैनिक भी उनका सम्मान करते थे.

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उधर मंगल पांडे को अपने परिवार से समाजिक प्रशिक्षण कुछ इस तरह मिला था कि मंगल पांडे ने मजहब के आधार पर मुस्लिमों से भेदभाव करना सीखा ही नहीं था. उनका जन्म 19 जुलाई 1927 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा गाँव में हुआ था. उनके पिता दिवाकर पाण्डेय भूमिहार ब्राह्मण थे, जो पारंपरिक हिंदू संस्कृति को मानने वाले थे. मंगल पांडे का बाल्यकाल सुहूरपुर में गुजरा था. पिता दिवाकर पांडे का मुस्लिमों से काफी मेल-जोल था. दिवाकर पांडे अपने पुत्र मंगल को अक्सर दरगाहों पर लगने वाले उर्स मेलों में भी ले जाते थे. दिवाकर पांडे अपने घर में मुस्लिम मित्रों को बुलाकर मौके-बेमौके दावत भी देते थे. इस माहौल में रहने के कारण मंगल पांडे मुस्लिमों के प्रति बहुत सहज थे और कदाचित यही कारण था कि गांव के मौलवी का पुत्र नक्की खान उनका दोस्त बन गया था, जो उनका हमउम्र था. उनका बचपन का काफी भी नक्की खान के साथ बाल क्रीडाओं में गुजरा था. इसलिए 22 साल की उम्र में मंगल पांडे बंगाल इन्फेंट्री के मुलाजिम हुए, तो हिंदू साथियों के साथ उनका मुस्लिम सैनिकों में भी पूरा मेल-जोल रसूख हो गया.

उधर, मंगल पांड के जो साथी मुस्लिम सैनिक थे, उनमें इस बात का भी गहरा गुस्सा था कि अंग्रेजों ने अवध के नवाब वाजिद अली की रियासत हड़प ली थी. दरअसल, भारतीय सैनिकों की बगावत से ठीक एक साल पहले, 1856 में लार्ड डलहौजी ने ‘डॉक्टरिन ऑफ लैप्स’ के तहत रानी लक्ष्मी बाई की झांसी की तरह अवध हुकूमत पर कब्जा कर लिया था और नवाब वाजिद अली को हिरासत में कलकत्ते भेज दिया था. हालांकि नवाव का बेगम हजरत महल से एक बेटा बिरजिस कद्र भी था, लेकिन अंग्रेजों ने उसे वली के तौर पर मान्यता नहीं दी थी. हालांकि बाद में डलहौजी को बाद में भारत छोड़कर जाना पड़ा था, लेकिन अवध की रियासत छिनने का मुसलमानों भारी रंज था.

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ये तमाम हालात ऐसे थे कि ब्रिटिश पलटन में हिंदू हो या मुसलमान, अंदर ही अंदर सुलग रहे थे. फिर एक मौका ऐसा आया कि सभी मंगल पांडे की कयादत में बगावत पर उतारू हो गए. माजरा यह था कि ब्रिटिश हुकूमत ने खास भारत के लिए एक खतरनाक एनफील्ड रायफल बनवाई थी. लंदन में बनी इस रायफल में जो कारतूस भरे जाते थे, उनके खोल पर गाय और सुअर के मांस की चर्बी लगी हुई थी. अंग्रेजों को यह अंदाजा नहीं हो पाया कि यह चर्बी हिंदुओं और मुसलमानों को इस कदर नाराज कर देगी कि वे बगावत कर उठेंगे. जब यह बात सैनिकों को पता चली, तो उनमें नाराजगी सातवें आसमान पर पहुंच गई. हिंदुओं के लिए गाय जितनी पूज्यनीय है, उतना ही मुस्लिम सुअर से घृणा करते हैं. जबकि सैनिकों को बंदूक में भरने से उस कारतूस का खोल दांत से काटकर हटाना पड़ता था, जो गाय और सुअर की चर्बी का था और जो उन्हें मंजूर न था.

उन दिनों सैनिक चर्बी वाली बात पर आपस में ही चर्चा कर रहे थे कि ये अंग्रेज तो हिंदू और मुसलमान सैनिकों का धर्म बिगाड़ देंगे. इसी बात को लेकर सैनिकों का पहला गुस्सा तब फूटा, जब 24 जनवरी को सैनिकों ने बैरकपुर में टेलीग्राफ दफ्तर जला दिया.

 

अंग्रेज अफसर को तब इस बात की गंभीरता का अंदाजा हुआ, लेकिन अंग्रेज अफसर चर्बी वाली बात जब तक संभाल पाते, उससे पहले ही, 29 मार्च, 1857 को ऐतिहासिक घटना हो गई. उस दिन 34 बंगाल नेटिव इन्फेंट्री का लेफ्टिनेंट बाउ अपने बंगले से चर्च जाने वाला था कि उसे सूचना मिली कि चर्बी वाली बात पर सैनिकों में बहुत गुस्सा है. बैरक में मंगल पांडे नाम का सिपाही कह रहा है कि वह धर्म बिगाड़ने वाले अंग्रेज अफसरों को छोड़ेगा नहीं और उन्हें मार डालेगा. सभी सैनिक उनकी हां में हां मिला रहे थे

खबर सुनकर लेफ्टिनेंट बाउ ने मामले को हल्के में लिया. वह अपनी पिस्टल लेकर और घोड़े पर सवार होकर यूनिट की तरफ चल दिया. उसे आता देखकर परेड ग्राउंड में यूनिट के बाकी सैनिक बैरकों से निकलकर जमा हो गए. बाउ ने पूछा मंगल पांडे कहां है.

मंगल पांडे उस समय एक तोप के पीछे छुपा हुआ था. उसने कहा कि मंगल पांडे जहां हो, अभी सरेंडर करे. इतने में धांय की आवाज आई और गोली बाउ के घोड़े की जांग में लगी. दोनों नीचे गिर पड़े. बाउ ने तब मंगल पांडे की ओर फायर किया, लेकिन मंगल पांडे बच गए.

उनके पास दोबारा रायफल लोड करने का समय नहीं था और उन्होंने तलवार से हमला करके बाउ को घायल कर दिया. बाउ ने मदद के लिए सैनिकों को पुकारा, लेकिन सेना के जमादार ने बाउ की मदद न करने का संकेत दिया. थोड़ी देर बाद बाकी के अंग्रेज अफसर अपनी वफादार फौज के साथ आ गए और मंगल पांडे को पकड़ लिया गया.

उन पर मुकदमा चलाया गया. अदालत ने उन्हें दोषी घोषित कर दिया और मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फांसी पर लटका दिया गया, लेकिन मंगल पांडे का बलिदान व्यर्थ नहीं गया. उसके बाद पूरे देश में बादरशाह बहादुर शाह जफर की कयादत में बगावत की लहर दौड़ गई, जो बेशक नाकाम रही और अंग्रेजों ने हालात अपने हक में कर लिए, मगर इस पहली गदर ने अंग्रेजों के हौसले पस्त कर दिए और बाद में उनके पैर उखड़ते ही गए.

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