डा रख़्शंदा रूही मेहदी
ग्यारहवीं शताब्दी के बाद इस्लाम धर्म का भारत में प्रभाव बढ़ने पर कृष्ण भक्ति और सूफीवाद में आश्चर्यजनक समागम देखने को मिला. सूफीमत में ईश्वर और भक्त का रिश्ता प्रेमी और प्रेमिका के संबंध की तरह मान्य है.
श्री कृष्ण भारतीय संस्कृति में धार्मिक अवतार के साथ प्रेम के रूपक हैं. राधा और गोपियां या सखाओं का कृष्ण प्रेम सूफीवादी प्रेममार्गी भक्ति के काफी नज़दीक है. उर्दू शायर कृष्ण जी के भोले मासूम नटखट निश्छल प्रेम एवं मनोरम रास लीलाओं से भावनात्मक अनुभूति प्राप्त कर संवेदनशील अभिव्यक्ति का सरस काव्य का समृद्ध कोष हिंदी साहित्य को अर्पित करते रहे हैं.
ओडिशा राज्य के पूर्व राज्यपाल विश्वंभर नाथ पांडे अपने लेख में लिखते हैं-
सईद सुल्तान कवि ने ‘नबी बंगश‘ नामक ग्रंथ में कृष्ण जी को नबी का खिताब दिया- अली रजा नामक कवि ने राधा और कृष्ण के प्रेम पर सुंदर काव्य रचा. सूफी कवि अकबर शाह ने कृष्ण की तारीफ में काफी लिखा. बंगाल के पठान शासक सुल्तान नाजिर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने महाभारत और भागवत पुराण का बांग्ला में अनुवाद करवाया. ये उस दौर के सबसे पहले अनुवाद का दर्जा रखते है.‘‘
आलम शेख़ रीतिकाल के कवि थे. उन्होंने ‘आलम केलि’, स्याम स्नेही’ और माधवानल-काम-कंदला’ नाम के ग्रंथ लिखे. इनके काव्य से निम्न छंद देखिए-
‘पालने खेलत नंद-ललन छलन बलि,
गोद लै लै ललना करति मोद गान है ।
‘आलम’ सुकवि पल पल मैया पावे सुख,
पोषति पीयूष सुकरत पय पान है ।
मन तोसे प्रीत लगाई कान्हाई
काहू और की सूरत अब काहे को आई
इसके अलावा मौलाना जफर अली, शाह बरकतुल्लाह और ताज मुगलानी जैसे कवियों के नाम भी कृष्ण प्रेम संबंधी कविता से जोड़े जाते हैं. उस दौर के सबसे मशहूर कवि अमीर ख़ुसरो बताते हैं कि एक बार निजामुद्दीन औलिया ने अमीर ख़ुसरो से कृष्ण की स्तुति में कुछ लिखने को कहा तो खुसरो ने कालजई रंग ‘छाप तिलक सब छीनी रे से मोसे नैना मिलायके’ कृष्ण को समर्पित कर दी. कृष्ण भक्ति का सुंदर चित्रण इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है-
ऐ री सखी मैं जो गई थी पनिया भरन को,
छीन झपट मोरी मटकी पटकी मोसे नैना मिलाइके...
चिंतक, कवि, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राजनेता रहे मौलाना हसरत मोहानी यानी उर्दू के मकबूल शायर के बारे में एक बात मशहूर है कि वह अपने पास हमेशा बांसुरी रखा करते थे. हसरत मोहानी कृष्ण को ‘हजरत कृष्ण अलैहिररहमा‘ कहा करते थे-
मोसे छेर करत नंदलाल
लिए ठारे अबीर गुलाल
ढीठ भयी जिन की बरजोरी
औरन पर रंग डाल डाल
हमहूँ जो दिये लिपटाए के हसरत
सारी ये छल बल निकाल
कृष्ण प्रेमी सईद इब्राहीम उर्फ रसखान ने भगवद्गीता का अनुवाद फारसी में किया था किंतु यह ग्रंथ अप्राप्य है.उनका कृष्ण वर्णन कुछ ऐसा है मानो कृष्ण उनके सामने ही लीला कर रहे हैं-
‘सेस, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुभेद बतावैं
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पे नाच नचावें
अकबर के दरबारी कवि अब्दुर रहीम ख़ानख़ाना की कृष्ण भक्ति रचनाओं का नमूना देखें:
जेहि रहीम मन आपुनो, कीन्हों चतुर चकोर
निसि बासर लाग्यो रहै, कृष्ण चन्द्र की ओर.
मेहसिन काकोरवी के क़सीदे ‘मदीह अल मुरसलीन‘ की शुरूआत देखिए
सिमत काशी से चला जानिबे मथुरा बादल
बर्क़ के कांधे पे लाती है सबा गंगा जल
एक कविता में वे कृष्ण पर लिखते हैंः
‘यह लीला है उस नंदललन की, मनमोहन जसुमत छैया की
रख ध्यान सुनो, दंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की.’
नज़ीर अकबराबादी का कृष्ण प्रेम मिसाल के तौर पर दर्ज दिखता है। नज़ीर की दृष्टि में श्रीकृष्ण दुःख हरने वाले, कृपा करने वाले और परम आराध्य ही हैं। नजीर के काव्य की एक प्रसिद्ध कृष्ण प्रेम रचना देखें:
तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फिदा, अल्ला हो गनी, अल्ला हो गनी
है कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्ला हो गनी, अल्ला हो गनी
तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नजीर तेरा
तू बहरे करम है नंदलाला, ऐ सल्ले अला, अल्ला हो गनी, अल्ला हो गनी
नज़ीर कृष्ण को पैगंबर का दर्जा देते हैं. उन्होंने ‘बलदेव जी का मैला’ नामक कविता लिखी, जो कृष्ण के बड़े भाई बलराम पर केंद्रित है. ‘कन्हैया का बालपन’ शीर्षक वाली नज़ीर की कविता भी लोकप्रिय है. कहा जाता है कि भीख मांगने वाले जोगी के निवेदन पर नज़ीर अकबराबादी द्वारा रचित ‘बालपन बांसुरी बजैया‘ का पहला बंद देखिए-
‘क्या-क्या कहूं किशन कन्हैया का बालपन
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन.’
यारों सुनो ये दूध लुटैया का बालपन
और मधपुरी नगर के बसैया का बालपन
मोहन स्वरूप नृत करैया का बालपन
बन बन के ग्वाल गवैयें चरैया का बालपन
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन
उर्दू साहित्य में श्रीकृष्ण को विशिष्ट अदबी रुतबा हासिल है.
सीमाब अकबराबादी अपनी रचना ‘कृष्ण गीता‘ के प्रस्तावना में लिखते हैं-‘‘हिंदुस्तान में प्रेम और प्रीत यानि इश्क़ो-मुहब्बत के जितने नग़मे फैले हैं उनका सर चश्मा मैं श्री कृष्ण की बांसुरी ही समझता हूं.भगवत गीता की तालीम हर इंसान के लिए मुझे यकसां मुफ़ीद और क़ाबिले अम्ल नज़र आती है और मैं उसके अश्लोकों में सर ता सर रूहानियत पाता हूं.‘‘
इनकी एक नज़्म का उनवान ‘‘ वो बांसुरी कहां है‘‘ को पढ़ने के बाद सीमाब के दिल में कन्हैया जी के प्रति असीम श्रद्धा प्रेम व सम्रपण का अनुभव होता है.रतन नाथ सरशार के मनोभाव निम्न
शे‘र में कान्हा के सौन्दर्य को प्रकृति की उपमा देते हैं.
घटा उदी उदी शफ़क़ लाल लाल
कन्हैया के अबरू पे जैसे गुलाल
चकबस्त की नज़्म ‘ कृष्ण कन्हैया‘ उर्दू साहित्य में कृष्ण की भिन्न लीलाओं के मनमोहक वर्णन के लिए प्रसिद्ध है.लखनऊ आकर बसे नवाबों के आखिरी वारिस नवाब वाजिद अली शाह ने 1843 में ‘राधा कन्हैया‘ नाटक का मंचन करवाया था.
लखनऊ के इतिहास की विशेषज्ञ रोजी लेवेलिन जोंस अपनी पुस्तक ‘द लास्ट किंग ऑफ इंडिया’ में लिखती हैं -‘‘ ये पहले मुसलमान राजा थे जिन्होंने राधा-कृष्ण के नाटक का निर्देशन किया। लेवेलिन बताती हैं कि वाजिद अली शाह कृष्ण के जीवन से बेहद प्रभावित थे. वाजिद के कई नामों में से एक ‘कन्हैया’ भी था.
बॉलीवुड में राजा मेहदी अली खान, शकील बदायूंनी जैसे गीतकारों का कृष्ण वर्णन बेहद शानदार है.अली सरदार जाफरी का यह कत्आ देखिए-
अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाए
तो फित्नगरों का काम तमाम हो जाए
मिटाएं बिरहमन शेख तफर्रुकात अपने
जमाना दोनों घर का गुलाम हो जाए.
निदा फाजली. जितना अच्छा उन्होंने कृष्ण पर लिखा इस दौर में शायद ही कोई लिख पाया. उनका एक शेर देखिये :
‘फिर मूरत से बाहर आकर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला.’
वास्तव में, कृष्ण प्रेम दर्शन धर्म के परे है और इंसान को हर सूरत में प्रेम का रास्ता दिखाने का सहज मार्ग है. उर्दू साहित्य के कवियों की कृष्ण प्रेम से ओत प्रोत रचनाओं ने दोनों धर्मों के बीच बदअमनी के माहौल को प्रेम और सद्भाव में परिवर्तित करने का काम किया, हमें आज भी उसकी सख्त जरूरत है.