जानिए क्या हैं रोज़े के नियम

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 16-03-2023
जानिए क्या है रोज़े के नियम
जानिए क्या है रोज़े के नियम

 

फ़िरदौस ख़ान

रमज़ान का महीना बहुत ही मुक़द्दस है. इस महीने में मुसलमान रोज़े रखते हैं और अल्लाह की इबादत करते हैं. इसे इबादत का महीना भी कहा जाता है. यूं तो हर रोज़ ही अल्लाह की इबादत की जाती है, लेकिन रमज़ान में रोज़ों की वजह से इसमें इज़ाफ़ा हो जाता है.

एक हदीस के मुताबिक़ अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “अगर किसी बन्दे को रमज़ान क्या है और रमज़ान की कितनी बड़ी फ़ज़ीलत है, ये मालूम हो जाए तो वह तमन्ना करेगा कि बरसों-बरस रमज़ान ही रहें.

हज़रत सैयदना जाबिर बिन अब्दुल्लाह  से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम  ने फ़रमाया- “मेरी उम्मत को माहे रमज़ान में पांच चीजें ऐसी अता की गईं, जो मुझसे पहले किसी नबी को नहीं मिलीं.

  • पहली, जब रमज़ानुल मुबारक की पहली रात होती है तो अल्लाह इनकी तरफ़ रहमत की नज़र फ़रमाता है और जिसकी तरफ़ अल्लाह नज़रे रहमत फ़रमाए तो उसे कभी अज़ाब नहीं देगा.
  • दूसरी, शाम के वक़्त इनके मुंह की बू अल्लाह तआला के नज़्दीक मुश्क की ख़ुशबू से बेहतर है. यानी जो बू भूख की वजह से होती है.
  • तीसरी, फ़रिश्ते हर रात और दिन इनके लिए मग़फ़िरत की दुआएं करते रहते हैं.
  • चौथी, अल्लाह तआला जन्नत को हुक्म देता है- “मेरे बन्दों के लिए आरास्ता हो जा. अनक़रीब वे दुनिया की मशक़्क़त से मेरे घर और करम में राहत पाएंगे."
  • पांचवीं, जब माहे रमज़ान की आख़िरी रात आती है, तो अल्लाह तआला सबकी मग़फ़िरत फ़रमा देता है. क़ौम में से एक शख़्स ने खड़े होकर अर्ज़ किया कि “या रसूलल्लाह ! क्या वह लैलतुल क़द्र है ?" आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “नहीं, क्या तुम नहीं देखते कि मज़दूर जब अपने कामों से फ़ारिग़ हो जाते हैं, तो उन्हें उजरत दी जाती है.

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रमज़ान के रोज़े किस पर फ़र्ज़ हैं

इस्लाम में इबादत के मामले में मर्दों और औरतों में कोई फ़र्क़ नहीं किया गया है. रमज़ान के रोज़े उन मर्दों और औरतों पर वाजिब और फ़र्ज़ हैं, जो इसकी छह शर्तें पूरी करते हैं.

  1. पहली शर्त इस्लाह यानी रमज़ान के रोज़े सिर्फ़ मुसलमानों पर ही फ़र्ज़ किए गए हैं.
  2. दूसरी शर्त बालिग़ यानी रमज़ान के रोज़े बालिग़ पर फ़र्ज़ हैं. इस्लाम के मुताबिक़ 12साल से ज़्यादा उम्र के शख़्स को बालिग़ माना जाता है.
  3. तीसरी शर्त अक़्ल यानी अक़्ल रखने वाले शख़्स पर ही रोज़े फ़र्ज़ हैं, ज़ेहनी तौर पर कमज़ोर यानी दीवाने पर रोज़ा फ़र्ज़ नहीं है.
  4. चौथी शर्त जिस्मानी क़ूवत यानी अगर कोई शख़्स बीमारी या ऐसी ही किसी और वजह से रोज़ा रखने की ताक़त न रखता हो, तो उस पर भी रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ नहीं हैं.
  5. पांचवीं शर्त इक़ामत यानी मुक़ीम शख़्स पर ही रोज़ा फ़र्ज़ है, जबकि मुसाफ़िर पर रोज़े फ़र्ज़ नहीं हैं.
  6. छठी शर्त हैज़ और निफ़ास यानी हैज़ और निफ़ास वाली औरतों पर रोज़ा फ़र्ज़ नहीं है. वे अपने क़ज़ा रोज़े रमज़ान के बाद शव्वाल के महीने में पूरे कर सकती हैं

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अल्लाह तआला ने रोज़े के कुछ नियम मुक़र्रर किए हैं. अल सुबह फ़ज्र की अज़ान से पहले रोज़ेदार सहरी खाते हैं. सहरी अज़ान से पहले ही खा सकते हैं. सहरी खाकर वे रोज़े की दुआ पढ़ते हैं-

“और मैंने रमज़ान के कल के रोज़े की नीयत की है.” अगर कोई ये दुआ न पढ़े और नीयत कर ले कि या अल्लाह मैंने तेरे लिए रोज़ा रखा है, तो भी रोज़ा ही माना जाएगा.

लेकिन अगर वह रोज़े की नीयत न करे और दिनभर भूखा और प्यासा रहे, तो वह रोज़ा नहीं माना जाएगा. दरअसल ये एक तरह का फ़ाक़ा ही होगा और उसका कोई अज्र यानी सवाब नहीं है. उलेमा ने रोज़े की नीयत करने का बेहतर वक़्त वह बताया है, जब पहले रोज़े को इफ़्तार किया जाए, तो उसी वक़्त अगले दिन के रोज़े की नीयत कर ली जाए यानी दिल में ये नीयत कर ली जाए कि मुझे कल का रोज़ा रखना है.   

फ़ज्र की अज़ान शुरू होते ही रोज़े का वक़्त शुरू हो जाता है, जो मग़रिब की अज़ान तक जारी रहता है. शाम को जब सूरज ढल जाता है और आसमान पर रात की स्याही छाने लगती है, तो मग़रिब की अज़ान होती है.

अज़ान की आवाज़ सुनते ही रोज़ेदार रोज़ा खोलते हैं. इसे इफ़्तार कहा जाता है. और इस वक़्त दस्तरख़्वान पर मौजूद खाने-पीने की चीज़ों को इफ़्तारी कहा जाता है. इफ़्तारी के वक़्त वे रोज़ा खोलने की दुआ पढ़ते हैं-

“और मैंने तेरे लिए रोज़ा रखा था और तेरे रिज़्क़ से इफ़्तार करता हूं.”   

अमूमन रोज़ा खजूर खाकर खोला जाता है. खजूर से रोज़ा खोलना सुन्नत है. खजूर न होने पर बहुत से लोग नमक चखकर भी रोज़ा खोलते हैं. दरअसल खाने से पहले नमक चखना भी सुन्नत है. वैसे किसी भी चीज़ से रोज़ा खोला जा सकता है.           

हज़रत सैयदना यअला बिन मुर्रह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तीन चीज़ों को अल्लाह महबूब रखता है.

पहली इफ़्तार में जल्दी, दूसरी सहरी में ताख़ीर यानी देर और तीसरी नमाज़ के क़ियाम में हाथ पर हाथ रखना.”

किन वजहों से रोज़ा मकरूह होता है

रोज़े के लिए सिर्फ़ नीयत करना ही काफ़ी नहीं है. रोज़ा मकरूह न हो इस बात का भी पूरा ख़्याल रखा जाना चाहिए. रोज़े की हालत में कुछ खाने और पीने से रोज़ा मकरूह हो जाता है. उल्टी होने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है.

इस बारे में दो राय हैं. अगर अपने आप उल्टी     हो जाए तो रोज़ा नहीं टूटेगा, लेकिन जान बूझकर उल्टी की, तो रोज़ा टूट जाएगा. जिस्म के किसी भी हिस्से से ख़ून निकलने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है.

कुछ उलेमा मानते हैं कि चोट लगने की वजह से ख़ून निकले, तो रोज़ा मकरूह नहीं होगा. बीड़ी-सिगरेट और हुक़्क़ा पीने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है. तम्बाक़ू और गुटखा खाने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है.

इंजेक्शन लगवाने, भाप लेने, इन्हेलर लेने, आंखों और नाक में दवा डालने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है. रोज़े की हालत में दांत निकलवाने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है. दांतों को ब्रश करने और मंजन करने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है.

एहतलाम हो जाने से रोज़ा नहीं टूटता, लेकिन जान बूझकर मनी निकाली जाए, तो रोज़ा मकरूह हो जाएगा. हमबिस्तरी करने से भी रोज़ा मकरूह हो जाता है. रोज़े की हालत में पति-पत्नी के मिलन पर पाबंदी है, लेकिन रात में वे मिल सकते हैं.

पहले पूरे रमज़ान में इसकी मनाही थी, लेकिन बहुत से लोग इस पर अमल नहीं कर पाते थे और ख़ुद को नाफ़रमानों में शामिल कर लिया करते थे. बाद में अल्लाह ने एक आयत नाज़िल करके इस पाबंदी में ढील दे दी. 

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि “ऐ मुसलमानो ! तुम्हारे लिए रोज़ों की रातों में अपनी बीवियों के पास जाना हलाल कर दिया गया है. वे तुम्हारा लिबास हैं और तुम उनका लिबास हो.

अल्लाह जानता है कि तुम अपने हक़ में ख़यानत करते थे. इसलिए उसने तुम्हें मुआफ़ कर दिया और तुम्हारी ख़ताओं को दरगुज़र किया. फिर तुम उनसे मिलो और जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दिया है, उसे मांगों और खाओ और पियो, यहां तक कि सुबह की सफ़ेद धारी रात की स्याह धारी से अलग होकर आसमान पर नज़र आने लगे.

फिर रात तक रोज़ा पूरा करो. और जब तुम मस्जिदों में ऐतकाफ़ में बैठे हो, तो उस दौरान औरतों से न मिलो. ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं. फिर उनके क़रीब भी मत जाओ. इसी तरह अल्लाह लोगों के लिए अपनी आयतें वाज़ेह तौर पर बयान करता है, ताकि वे परहेज़गार बन जाएं. 

(क़ुरआन 2:187)

किन हालात में रोज़ा मकरूह नहीं होता

बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं, जिनसे रोज़ा मकरूह नहीं होता, लेकिन हम गुमान कर बैठते हैं कि रोज़ा मकरूह हो गया. अगर कोई भूल से कुछ खा या पी ले, तो रोज़ा मकरूह नहीं होता. लेकिन शर्त ये है कि उसे रोज़े की याद आते ही वह फ़ौरन खाना या पीना खाना बंद कर दे और अपनी भूल से हुए ग़लती के लिए अल्लाह से माफ़ी मांग ले. 

अगर नहाते वक़्त पानी मुंह या नाक में चला जाता है, तो इससे भी रोज़ा मकरूह नहीं होता.रोज़े की हालत में सुरमा लगाने , मेहंदी लगाने, ख़ुशबू लगाने, ख़ुशबू सूंघने, तेल लगाने , बाल और नाख़ून काटने, कान के बाहर के हिस्से में दवा लगाने आदि से रोज़ा मकरूह नहीं होता.

अगर हमबिस्तरी की वजह से किसी का रोज़ा टूटा, तो उसे शव्वाल के महीने में क़ज़ा रोज़ा रखना होगा और इसके लिए कफ़्राफ़ारा भी अदा करना होगा.

 कफ़्फ़ारा क्या है

दरअसल रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ हैं और इन फ़र्ज़ रोज़ों को तोड़ने पर जो जुर्माना अदा किया जाता है, उसे कफ़्फ़ारा कहते हैं. कफ़्फ़ारे के तौर पर तीन चीज़ें दी गई हैं.

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पहला किसी ग़ुलाम को आज़ाद किया जाए.

दूसरा दो महीने तक मुसलसल रोज़े रखे जाएं और अगर एक भी रोज़ा छूट गया तो फिर से दो महीने तक मुसलसल रोज़े रखे जाएं. लेकिन औरतें मजबूरी में छूटे गए रोज़े पूरे कर सकती हैं. उन्हें दोबारा से रोज़े रखनी की ज़रूरत नहीं है.

तीसरा अगर रोज़ा रखने की क़ूवत न हो, तो साठ मोहताजों को दो वक़्त का खाना खिलाएं. अगर साठ दिन तक किसी मोहताज को खाना खिलाया जाए या उसे खाने के पैसे दे दिए जाएं तो भी कफ़्फ़ारा अदा हो जाएगा.

अगर खाना न खिला सके, तो साठ फ़क़ीरों को अनाज देकर भी कफ़्फ़ारा अदा किया जा सकता है. ये अनाज इतना होना चाहिए, जितना एक आदमी की तरफ़ से सदक़ा तुल फ़ित्र दिया जाता है या इसकी क़ीमत दे दी जाए.   

चूंकि रमज़ान इबादत का महीना है. क़ुरआन करीम में अल्लाह ने इसे मुक़द्दस महीना क़रार दिया है. इसलिए इस महीने की हुरमत की जानी चाहिए. रमज़ान में रोज़े रखने का मक़सद लोगों को परहेज़गार बनाना है, उन्हें बुराइयों से बचाकर नेकी के रास्ते पर ले जाना है.

इसलिए रोज़े की हालत में तमाम तरह की बुराइयों से ख़ुद को बचाना चाहिए. यही कोशिश होनी चाहिए कि अपनी जानिब से किसी को ज़रा सी भी तकलीफ़ न पहुंचे, किसी का दिल न दुखे और किसी का कोई नुक़सान न हो. 

(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)

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