महफूज आलम / पटना
मौलवी खुदा बख्श खान न केवल एक पुस्तक प्रेमी थे, बल्कि एक समाज सुधारक भी थे. वे बिहार से थे और आज उनकी याद में उनके द्वारा स्थापित सार्वजनिक पुस्तकालय के माध्यम से स्मरण किया जाता है. आज इसे पटना में खुदा बख्श पुस्तकालय के रूप में जाना जाता है और यह शहर के ऐतिहासिक स्थानों में से एक है.
खुदा बख्श ने अपना जीवन, धन और संपत्ति पुस्तकों को खरीदने और उनकी रक्षा करने में समर्पित कर दी. कोई आश्चर्य नहीं कि आज उनके प्रयास पुस्तकालय में 2,000 से अधिक पांडुलिपियों के विशाल भंडार में परिलक्षित होते हैं. कुछ पांडुलिपियाँ दुर्लभ हैं और शोधकर्ताओं और इतिहासकारों द्वारा बहुत खोजी जाती हैं.
विभिन्न देशों के विद्वान अरबी, फ़ारसी और अन्य भाषाओं की पांडुलिपियों पर शोध करने के लिए पुस्तकालय में आते हैं.
Academician and poets who to this reporter
लगभग 200 वर्षों तक भारत के एक विशाल क्षेत्र पर शासन करने के बाद, मुगल साम्राज्य अपनी पकड़ और चमक खो रहा था. इस स्तर पर, उस युग की पुस्तकों और अन्य साहित्यिक दस्तावेजों के खो जाने का खतरा था.
1857 की क्रांति के बाद सुल्तानों, बादशाहों, राजाओं, महाराजाओं और नवाबों की निजी किताबें बिखरी पड़ी थीं. वे अरबी और फ़ारसी के सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ थे, जिनमें इतिहास का बहुत कुछ पता चलता था. इसमें संस्कृत, पाली, पश्तो, तुर्की, हिंदी और उर्दू जैसी भाषाओं में धर्म, भारतीय इतिहास, राजाओं और चिकित्सा से संबंधित प्रामाणिक दस्तावेज़ शामिल थे.
खुदा बख्श खान ने इन बिखरी हुई किताबों को इकट्ठा करना अपने जीवन का मिशन बना लिया. बाद में, इस संग्रह को आज बिहार के पटना के खुदा बख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी में रखा गया. खुदा बख्श खान बिहार के सीवान जिले के रहने वाले थे. उनका जन्म 1842 में हुआ था.
खुदा बख्श खान को किताबों के प्रति प्रेम अपने पिता से विरासत में मिला था, जिन्होंने अपनी पांडुलिपियों और किताबों का संग्रह उन्हें विरासत में दिया था. खुदा बख्श खान के पूर्वज मुगल बादशाह औरंगजेब के दरबारी थे. उनके पिता पटना में एक प्रसिद्ध वकील थे. खुदा बख्श खान ने कानून की डिग्री भी हासिल की और पटना में प्रैक्टिस शुरू की.
वे एक प्रसिद्ध वकील बन गए और उन्होंने अपनी सारी कमाई किताबें खरीदने और उन्हें सुरक्षित रखने में लगा दी. खुदा बख्श पब्लिक लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक और इतिहासकार प्रोफेसर इम्तियाज अहमद कहते हैं कि खुदा बख्श खान पांडुलिपियों को खरीदने के लिए कुछ भी कर सकते थे. "उन्हें किताबों का बहुत शौक था और वे अपनी सारी कमाई किताबों पर खर्च कर देते थे. वे उन्हें अपने घर में रखते थे और उन्हें आम लोगों के लिए खोल देते थे."
प्रो. इम्तियाज अहमद कहते हैं कि किताबों के इतिहास में खुदा बख्श खान का नाम अहम है.
खुदा बख्श खान ने 1891 में एक सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना की थी. इस पुस्तकालय का उद्घाटन बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल ने किया था. इसके उद्घाटन के समय पुस्तकालय में करीब 4000 दुर्लभ पांडुलिपियां थीं, लेकिन आज पांडुलिपियों की संख्या 21 हजार से ज्यादा है और किताबों की संख्या लाखों में है.
प्रोफेसर इम्तियाज अहमद कहते हैं कि खुदा बख्श खान जीवन भर दुर्लभ पांडुलिपियां खरीदते रहे. उन्होंने अपने जीवन से एक घटना का हवाला दिया: एक बार उन्हें एक हत्या के मामले में मुकदमा लड़ना था. वे तत्कालीन मजिस्ट्रेट के पास गए और उन्हें मामले के बारे में बताया. मजिस्ट्रेट ने कहा, "मौलवी साहब, मुझे पता है कि इस मुकदमे से आपको अच्छा पैसा मिलेगा जिसका आप अच्छे से इस्तेमाल करेंगे." मजिस्ट्रेट को यह भी पता था कि मौलवी खुदा बख्श इन पैसों से किताबें खरीदेंगे.
प्रो. इम्तियाज अहमद कहते हैं कि खुदा बख्श ने अपने ऑफिस असिस्टेंट को 50 रुपये अतिरिक्त दिए ताकि वह पांडुलिपियां खरीद सके. हालांकि, बाद में अपने कठिन समय के दौरान उन्हें स्ट्रोक हुआ और उनके परिवार के पास कोई आय नहीं बची. उस समय उन्हें अपनी पांडुलिपियों के लिए कई प्रस्ताव मिले, लेकिन उन्होंने अपनी गरीबी के बावजूद उनका विरोध किया.
इम्तियाज अहमद कहते हैं कि यह भाग्य की विडंबना थी कि सरकार ने उन्हें 50 रुपये मासिक वजीफा दिया. एक तरह से, लोगों ने व्यावहारिक न होने के लिए उनकी आलोचना की, लेकिन सभी ने उनका सम्मान किया. खुदा बख्श ने चाहा था कि चाहे कुछ भी हो जाए, पुस्तकालय में रखी किताबें कभी भी बाहर नहीं निकाली जाएँगी.
बीएन मंडल विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर डॉ. पी फिरोज अहमद कहते हैं कि अगर खुदाबख्श पुस्तकालय नहीं होता तो वे आज जिस मुकाम पर हैं, वहाँ नहीं पहुँच पाते. उन्होंने पुस्तकालय में मौजूद संसाधनों के आधार पर अपना शोध पूरा किया.
"मैं मुस्लिम समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर अपने शोध का श्रेय खुदा बख्श पुस्तकालय को देना चाहूँगा. यह पुस्तकालय पटना के लोगों के लिए खुदा बख्श खान का एक बड़ा तोहफा है." पटना के अशोक राज पथ पर स्थित खुदा बख्श खान पब्लिक लाइब्रेरी शहर के प्रतिष्ठित स्थलों में से एक है.
पहली बार पटना आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह एक ऐसी जगह है, जहाँ उसे अवश्य जाना चाहिए. पी फिरोज अहमद कहते हैं, "कोई भी व्यक्ति चाहे वह ज्ञान, साहित्य, फिल्म उद्योग, कलाकार, खेल, शोधकर्ता या राजनीतिक नेता के क्षेत्र से हो, वह सबसे पहले नालंदा (विश्वविद्यालय) जाता है, उसके बाद खुदा बख्श लाइब्रेरी जाता है." पटना विश्वविद्यालय, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, मगध विश्वविद्यालय के छात्र और देश-विदेश के शोधकर्ता इस लाइब्रेरी से लाभ उठाते हैं. पूरे दिन लाइब्रेरी में लोगों की भीड़ लगी रहती है. इसमें शोधकर्ताओं के लिए अलग से वाचनालय है.
आज सरकार या शिक्षा जगत के सभी बड़े लोग खुदा बख्श लाइब्रेरी से जुड़े हुए हैं. मैं वहां का आजीवन सदस्य हूं, इसलिए इस लाइब्रेरी से मेरा व्यक्तिगत जुड़ाव है. मैं खुदा बख्श खान का हमेशा ऋणी रहूंगा. अल्लाह बख्श खान को जन्नत में ऊंचा स्थान दे, उनकी सेवाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता." उर्दू लेखक असलम जावदान कहते हैं कि खुदा बख्श खान का असली नाम मौलवी खुदा बख्श खान था,
वे एक महान समाज सुधारक थे. वे हर वर्ग, खासकर महिलाओं की शिक्षा में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने के लिए बहुत गंभीर थे. खुदा बख्श खान का परिवार काफी शिक्षित था और परिवार का शिक्षा से काफी लगाव था. इसी शैक्षणिक रुचि के परिणामस्वरूप खुदा बख्श खान ने एक पुस्तकालय की स्थापना की.
असलम जावदान कहते हैं कि संग्रह के मामले में खुदा बख्श पुस्तकालय पूरे उपमहाद्वीप में अद्वितीय है. खुदा बख्श खान के काम का दायरा काफी व्यापक है. उन्होंने न केवल पुस्तकों का संग्रह किया, बल्कि समाज और शिक्षा को बेहतर बनाने का भी प्रयास किया. पुस्तकालय की स्थापना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है. उर्दू और हिंदी के कवि निलिंशु रंजन कहते हैं कि निस्संदेह खुदा बख्श खान बिहार के इस महान व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने अजीमाबाद के लोगों को वह उत्कृष्ट कृति और अनमोल उपहार दिया है, जिसे बनाने में सदियाँ लग जाती हैं.
उन्होंने एक पुस्तकालय की स्थापना की, जहाँ अरबी, फारसी और उर्दू के अलावा संस्कृत के भी दुर्लभ ग्रंथ हैं. खुदा बख्श पुस्तकालय के इस बहुमूल्य भंडार के कारण ही दुनिया इसकी ओर आकर्षित होती है. शोध के क्षेत्र से जुड़े लोग दुनिया भर से यहाँ आते हैं.
संसद द्वारा 1969 में पारित एक अधिनियम के तहत केंद्र सरकार इस पुस्तकालय का रखरखाव करती है. खुदा बख्श खान ने प्राचीन काल की दुर्लभ औषधियों के अलावा मुगल काल की ऐसी दुर्लभ चीजें संग्रहित की थीं, जिनका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है. खुदा बख्श का निधन 3 अगस्त 1908 को हुआ और वे कई पीढ़ियों के लिए एक विरासत छोड़ गए.