जलियांवाला बाग हत्याकांड: 'हिंदू-मुस्लिम एकता' बनी थी असली वजह

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 16-04-2025
Jallianwala Bagh Massacre: 'Hindu-Muslim unity' was the real reason
Jallianwala Bagh Massacre: 'Hindu-Muslim unity' was the real reason

 

साकिब सलीम

13 अप्रैल 1919 का दिन भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है – जलियांवाला बाग हत्याकांड. यह केवल एक नृशंस नरसंहार नहीं था, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के उस डर की परिणति थी जो उन्हें हिंदू-मुस्लिम-सिख एकता से था. हाल के ऐतिहासिक दस्तावेज़ और रिपोर्ट्स यह उजागर करते हैं कि जनरल आर. ई. एच. डायर ने इस जनसंहार को अंजाम इसलिए दिया क्योंकि उसे भारत में बढ़ती धार्मिक एकता और राजनीतिक चेतना से खतरा महसूस हो रहा था.

डायर ने 11 अप्रैल 1919 को अमृतसर रवाना होने से पहले अपने बेटे से कहा था:“मुसलमान और हिंदू एक हो गए थे. मुझे इसकी उम्मीद थी.एक बहुत बड़ा शो आने वाला है.”इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि डायर की योजना केवल भीड़ को नियंत्रित करने की नहीं, बल्कि एकजुट हो रही भारतीय जनता को सबक सिखाने की थी..

 राम नवमी पर दिखाई दी अद्वितीय एकता

9 अप्रैल 1919 को अमृतसर में निकले राम नवमी के जुलूस में हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे. भीड़ ने “हिंदू-मुस्लिम एकता” के नारे लगाए.ब्रिटिश संसद में पेश एक रिपोर्ट के अनुसार:“यह विशुद्ध रूप से एक हिंदू त्योहार था, लेकिन इसमें मुसलमानों ने भी उतनी ही भागीदारी दिखाई. 

देवी-देवताओं की जयकार की जगह ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ के नारे गूंजे.”यह एकता ब्रिटिश अधिकारियों के लिए चिंता का विषय बन गई.

 ब्रिटिश नजर में एकता थी राजनीतिक षड्यंत्र

हंटर कमेटी, जो जलियांवाला बाग हत्याकांड की जांच के लिए गठित की गई थी, ने भी माना:“हिंदू-मुस्लिम एकता को राजनीतिक हितों में बढ़ावा दिया गया. अमृतसर में यह एकता सामान्य आंदोलन से अधिक शक्तिशाली थी.”

डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्य पाल जैसे नेता इस एकता के प्रतीक बनकर उभरे. 13 अप्रैल को बाग में जमा भीड़ इन दोनों की गिरफ्तारी के विरोध में एकत्र हुई थी.

 डायर को मिला ‘भाग्य का अप्रत्याशित उपहार’

डायर के जीवनी लेखक इयान कॉल्विन लिखते हैं:“यह अप्रत्याशित भीड़, एक खुली जगह पर जमा हुई – यह डायर के लिए ‘भाग्य का तोहफा’ था. उसने उन लोगों को वहीं पा लिया जहाँ वह चाहता था – अपनी तलवार की पहुंच में..

बाग में भाषण देने वाले नेताओं में हिंदू, मुसलमान और सिख सभी शामिल थे –हंसराज, अब्दुल अजीज, बृज गोपी नाथ, गुरबख्श राय, राय राम सिंह, धैन सिंह, और अब्दुल मजीद. यह सभी उस समन्वित भारतीय आवाज के प्रतिनिधि थे जिसे डायर ने कुचलना चाहा.

 दिल्ली से अमृतसर तक डर का फैलाव

डायर ने दिल्ली में भी हिंदू-मुस्लिम एकता देखी थी. वहाँ फतेहपुरी मस्जिद और जामा मस्जिद में हिंदू-मुस्लिम एक साथ एकत्र होकर अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगा रहे थे. “हिंदू-मुसलमान की जय” नारा ब्रिटिश अधिकारियों के लिए भय का प्रतीक बन चुका था..

डॉ. हेलेन फीन का ऐतिहासिक विश्लेषण

डॉ. हेलेन फीन अपने शोध में लिखती हैं:“राम नवमी के दिन हिंदू और मुसलमानों की साझा भागीदारी ने एकता को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया. रॉलेट एक्ट से कहीं अधिक, पिकेट गोलीबारी और नेताओं की गिरफ्तारी ने आम जनता की गरिमा पर सीधा हमला किया, जिसने विरोध को विस्फोटक बना दिया.”

उनके अनुसार, गांधी का अहिंसक आंदोलन और सत्याग्रह की अवधारणा उस समय पंजाब में प्रभावी नहीं थी. जनसंघर्ष की असली ताकत थी – जनता की एकजुटता.

जलियांवाला बाग का हत्याकांड केवल एक सैन्य अत्याचार नहीं था – यह ब्रिटिश हुकूमत का भयभीत उत्तर था एक ऐसी भारत के लिए, जो धर्म और जाति से ऊपर उठकर एक हो रहा था। डायर की गोलियों ने सिर्फ सैकड़ों निर्दोषों की जान नहीं ली, बल्कि उस समय की हिंदू-मुस्लिम-सिख एकता को भी तोड़ने का प्रयास किया.

आज, जब हम 13 अप्रैल को याद करते हैं, तो सिर्फ बलिदान नहीं, बल्कि वह एकता और भाईचारे की भावना भी याद रखनी चाहिए, जो जलियांवाला बाग के भीतर एक स्वतंत्र भारत की नींव रख रही थी.