डा. फैयाज अहमद फैजी
सूफीवाद की जब भी चर्चा होती है, तो जेहन में एक मध्यम प्रेममार्गी इस्लामी रहस्यवाद का स्वरूप उभर कर सामने आता है. जहां तक इस्लाम के प्रसार की बात है, तो ऐसी मान्यता है कि जहां एक ओर ताकत और तलवार के बल पर जिहाद व केताल द्वारा इस्लाम का प्रसार किया गया. वहीं दूसरी ओर जिहाद के विपरीत प्रेम, शांति और भाईचारे द्वारा इस्लाम का प्रसार सूफीवाद द्वारा किया गया. हालांकि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सूफी वहीं गए, जहां पहले से ही जिहाद व केताल द्वारा इस्लामी परचम बुलंद किया जा चुका था. अर्थात सूफीवाद मुस्लिम बादशाहों के तलवारों के साये में फला-फूला.
लेकिन क्या वाकई सूफीवाद प्रेम, शांति और भाईचारे द्वारा इस्लाम के प्रसार का साधन था या फिर यह विशुद्ध रूप से एक नस्लवादी आध्यात्मिक शासन की परिकल्पना? इस लेख में इसी बात को समझने का प्रयास किया गया है.
अरबों (मुसलमानों) के तीसरे खलीफा उस्मान (र.) के विरुद्ध कई प्रकार के आरोप थे, जिसमें एक आरोप यह भी था कि वो अपने सजातीय/सनस्लीय बंधुओं (बनू उमय्या) को शासन- प्रशासन में अधिक भागीदारी दे रहे हैं. इस कारण उनके विरुद्ध विद्रोह करके उनकी हत्या कर दी गई. ऐसी परिस्थिति में अली (र.) को खलीफा नियुक्त किया गया.
लेकिन सीरिया के गवर्नर माविया (र.) जो उस्मान (र.) के सजातीय (बनू उमैय्या जनजाति से) थे, ने यह कहते हुए केन्द्रीय सत्ता (खिलाफत) से विद्रोह कर दिया कि मुझे अपने कबीले के उस्मान (र.) की हत्या का क़सास (बदला) लेने का इस्लामी अधिकार है और उस्मान (र.) के हत्यारों को जब तक मुझे नहीं सौंपा जाता, मैं बैत नही करूँगा (अर्थात नवनियुक्त खलीफा को खलीफा स्वीकार नही करूँगा).
नवनियुक्त खलीफा अली (र.) ने इसका संज्ञान लेते हुए माविया (र.) को विद्रोही करार दिया और उनके विरुद्ध स्वयं सेना लेकर कूच किया और सीरिया के निकट कूफ़ा नामक स्थान पर नई राजधानी बसाई, ताकि सीरिया के समीप रह कर माविया (र.) को दंडित किया जा सके. किंतु अपने पूरे शासन काल में माविया (र.) पर कई बार चढ़ाई करने के बाद भी सफल नहीं हो सके. इस प्रकार उस समय दो समानांतर इस्लामी शासन चलते रहे, जिसका नेतृत्व क़ुरैश जनजाति की दो उपजाति के लोग करते रहे.
जब खिलाफत क़ुरैश के एक अन्य उपजाति बनू उमैया के पास चली गयी, तब कुछ लोगों ने बनू-उमैया के खिलाफ यह कहते हुए विद्रोही मुहिम चलाई कि खिलाफत तो बनू-हाशिम जनजाति का हक़ है और यह खिलाफत मुहम्मद (स.) की बेटी फातिमा (र.) और अली (मुहम्मद के चचेरे भाई फिर दामाद) के वंश (बनू फातिमा-बनू हाशिम का उप वंश) में होनी चाहिए, क्योकि क़ुरैश की यह उपजाति मुहम्मद (स.) की वंशावली से अधिक निकट हैं और खिलाफत की वापसी का संघर्ष करना शुरू किया. जिसमें उनका साथ बनू-अब्बास नामक क़ुरैश की एक अन्य उपजाति ने साथ दिया. लेकिन सत्ता (खिलाफत) बनू हाशिम (बनू फातिमा/सैयद) के बजाय बनू अब्बास को प्राप्त होती है.
अब्बासियों के शासन काल में सैयद जाति के बहुत से लोगों ने खिलाफत प्राप्ति के लिए यह कहते हुए विद्रोह किया कि चूंकि हम, अली-फातिमा की संतान होने के नाते मुहम्मद (स.) के घर वाले हैं. इसलिए खिलाफत (सर्वोच्च इस्लामी सत्ता) पर हमारा नैसर्गिक अधिकार है, लेकिन ये लोग कभी पूर्ण रूप से सफल नही रहे.
जब सैयद जाति (बनू फातिमा) के लोग भौतिक सत्ता (खिलाफत) नहीं प्राप्त कर पाते हैं, तो ऐसी सूरत में आध्यात्मिक सत्ता की परिकल्पना की नींव डाली गई, जो सूफी परम्परा कहलायी. सूफी परम्परा को इस्लाम का अभिन्न अंग प्रतिस्थापित करने के लिए बहुत से किस्से-कहानियां रचीगईं, जो कालांतर में इतनी मशहूर हुई कि अब सच जान पड़ती हैं.
इसमें सर्वोपरी "गौस" होता है, उसके बाद "कुतुब", कहीं-कहीं गौस और क़ुतुब को एक ही माना गया है. फिर "निक़बा/नुक़्बा" ये तीन की संख्या में होते हैं, फिर "अमना" ये पाँच होते हैं. "अवताद" या "अबरार" ये सात होते हैं. फिर "अब्दाल" इनकी संख्या चालीस मानी गयी है. "अख़्यार" इनकी संख्या तीन सौ होती है. सभी के कार्यक्षेत्र, सत्ता शक्ति एवं अधिकार क्रमवार अलग-अलग होते हैं और किसी को किसी की सीमा के अतिक्रमण की आज्ञा नहीं है.
ऊपर की श्रेणी वाले किसी औलिया/वली/सूफी की मृत्यु के बाद नीचे के रैंक वाला सूफी प्रोमोट होकर ऊपर पहुंच जाता है और उसकी खाली जगह को नीचे की श्रेणी वाला सूफी आकर भर देता है, यही श्रेणीवार चलता रहता है. विभिन्न मतानुसार इनके पद, श्रेणी और संख्या के सम्बंध में विभेद पाया जाता है. कुछ वलियों (सूफियों) की पोजीशन बहुत ऊपर होती है, उनका शासन उनके मारने के बाद भी यथावत बना रहता है.
सैयद होना एक अनिवार्य तथ्य है. कोई भी गैर सैयद गौस, क़ुतुब अब्दाल आदि नहीं बन सकता. दूसरी अनिवार्य शर्त वली/सूफी/पीर का पुरुष होना है.(एक दो अपवाद छोड़ कर). ये गौस, कुतुब, अब्दाल आदि गुप्त होते हैं और आम आदमी इसका पता नहीं कर सकता कि कौन से वली/सूफी गौस है कि कुतुब है कि अब्दाल आदि, केवल पहुँचे हुए सूफी/वली ही इसका पता जानते हैं कि कौन क्या है और किस क्षेत्र का क्षत्रप है. अक्सर उनके मरने के बाद किसी पहुँचे हुए सूफी से यह तथ्य ज़ाहिर होता है कि फलाँ सूफी तो कुतुब था या अब्दाल था आदि.
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सूफी परम्परा का मानना है कि यही गौस, कुतुब, अब्दाल आदि मिलकर पूरी दुनिया का निज़ाम (व्यवस्था) चलाते हैं. अमेरिका से लेकर भारत तक सभी शासन व्यवस्था व प्रबन्ध इन्हीं सूफियों के मातहत चलती है. यही ईश्वर के प्रतिनिधि हैं. एक कहानी मशहूर है कि एक बादशाह पंजाब से दिल्ली की यात्रा कर रहा था. यात्रा से पूर्व उस क्षेत्र के वली/सूफी से आज्ञा एवं दुआ लेने जाता है.
वली/सूफी दुआ देकर उसे विदा करते हुए कहता है कि जब तुम फलाँ जगह पहुंचना, तो फलाँ वली/सूफी से आज्ञा एवं दुआ ज़रूर ग्रहण कर लेना, क्योंकि मेरा कार्यक्षेत्र वहाँ समाप्त हो जाता है और वहाँ से उनका कार्यक्षेत्र शुरू होता है. इसलिए उनके क्षेत्र में उनकी ही आज्ञा एवं दुआ काम करेगी. इस तरह की बहुत से किस्से-कहानियाँ सूफीवाद की किताबों में भरी पड़ी मिल जाएंगी.
सूफी परम्परा के खलीफा का सिलसिला अली (र.) से जाकर मिलता है. फिर अली से मुहम्मद (स.) में मिल जाता है. सूफीवाद में अली को इस्लाम का पहला खलीफा माना जाता है. (दमादम मस्त कलंदर अली दा पहला नंबर) इसका आधार मुहम्मद के कथनों को बनाया जाता है, जिसमें कुछ प्रमुख निम्नवत हैं....
“मैं जिसका मौला* हूँ अली उसके मौला हैं”
(तिर्मिज़ी हदीस न० 6082, 6094)
*मौला का अर्थ गुलाम, मालिक, अभिभावक, दोस्त, लीडर, संरक्षक आदि के होते हैं, जो प्रसंग के अनुसार प्रयोग होते हैं, यहां मौला का अर्थ मालिक से है.
“अली मुझसे हैं और मैं अली से हूँ और वह मेरे बाद सभी अनुआयियों के अभिभावक हैं”
(तिर्मिज़ी भाग-2, पेज 298,ईमाम हकीम मुस्तद्रक, भाग 03, पेज न० 111)
“मैं ज्ञान हूँ और अली उसका द्वार हैं.”
(ईमाम हकीम मुस्तद्रक, भाग 04, पेज न० 96, हदीस 4613, अब्दुल्लाह पुत्र ज़ुबैर द्वारा वर्णित)
सूफी परंपरा में भी खिलाफत (नेतृत्व) देने की प्रक्रिया रही है, जिसमें एक खलीफा अपने मुरीदों (शिष्यों) में से किसी एक को बैत लेने का अधिकार देता है, जो आगे चल के उस सूफी परम्परा का खलीफा, पीर या मुर्शद कहलाता है. यहाँ भी हदीस (मुहम्मद के क्रियाकलाप एवं कथन) की प्रसिद्ध किताब बुखारी में लिखा है, हदीस “अल-अइम्मतू मेन अल-क़ुरैश" अर्थात नेतृत्वकर्ता (नेता,अमीर,खलीफा) क़ुरैश (सैयद, शेख) में से ही है, के रिफरेन्स (हवाले) देकर खिलाफत हमेशा क़ुरैश (सैयद, शेख) लोगों को ही दिया जाता है और उसमें भी सैयद को वरीयता दिया जाता है और फिर सैयदों में फ़ातिमी सैयदों को वरीयता देने की मान्यता है.
(यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि अली की अन्य पत्नियों से उत्पन्न पुत्रों और उनके वंश को फातिमा से उत्पन्न पुत्रों और उनके वंश की अपेक्षा कम दर्जे की मान्यता है.) आज भी ये परंपरा चली आ रही है.
सूफी या पीर का जहाँ कब्र होता है, उसे दरगाह/दरबार कहा जाता है, जिसका अर्थ राजदरबार होता है. सूफी या पीर अपने नाम के आगे या पीछे शाह का शब्द जोड़ते है, जिसका अर्थ राजा के होता है. इनके मुरीद (चेले) इनको सरकार कहते हैं, जैसे कि सरकार का यह हुक्म है... सरकार आने वाले हैं... सरकार के हुज़ूर पेश होना है आदि.
इससे साफ तौर पर पता चलता है कि यह एक प्रकार की परोक्ष सत्ता का ही निर्धारण है. एक प्रकार से ये सूफी या पीर समानांतर सरकार चलाते थे और सरकार में अपने मनपसंद आदमी को पहुँचाना और कभी-कभी राजा भी अपने मनपसंद के आदमी को बनवा लेते थे. एक समय और कहीं-कहीं आज भी इनकी पोजीशन मध्यकालीन यूरोप के ईसाई पोप की तरह है और आज भी ये अशराफ सूफी, वली, उलेमा सरकार से निकटता बनाये हुए हैं और शासन -प्रशासन में अपना दखल रखते हैं.
अतः उपर्युक्त विवरण से यह बात साफ हो जाती है कि सूफी परम्परा, सैयदवाद का ही पोषक है.
(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं.)