देशज पसमांदा विभूति दुल्ला भाटी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-01-2025
Indigenous Pasmanda personality Dulla Bhatti
Indigenous Pasmanda personality Dulla Bhatti

 

faiziडॉ फैयाज अहमद फैजी

लोहड़ी का त्योहार आते ही दुल्ला भट्टी की याद बरबस ही आ जाती है.दुल्ला भट्टी के प्रसिद्धि का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि लोहड़ी के लोकगीतों में उनका वर्णन एक आवश्यक अंग के रूप में विद्यमान है.यह परंपरा कई सदियों से चली आ रही है.इस दिवस को रात में अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करते हुए अग्नि में गुड़, मूंगफली, रेवड़ी , तिल, गजक, मकई का लावा आदि अर्पित किए जाते हैं.नाच गाना होता है मित्र नातेदार एक दूसरे को बधाइयां देते हैं.

बुआ बहन के यहाँ लोहड़ी ले जाने का परम्परा आज भी चलती है.पुत्रि या पुत्र जन्म और विवाह के बाद आने वाले पहले लोहड़ी का विशेष उत्सव की तरह आयोजन किया जाता है.लोहड़ी का पर्व पंजाबी लोकाचार और पंजाब की सांझा विरासत का अभिन्न अंग और सशक्त प्रतीक भी है.

इसे पंजाब मे बसने वाले सिख ईसाई,हिंदू,मुसलमान सभी अपना पर्व समझ कर मानते हैँ.हां अशरफवाद द्वारा लोहड़ी के इस पर्व को मानाने पर भरपूर प्रहार के फलस्वरुप कुछ मुसलमानो में अरुची अवश्य दिखती है.फिर भी पंजाब के देशज पसमांदा समाज में ये आज भी उसी हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता है.

दुल्ला भट्टी देशज पसमांदा समाज से आते थे.उनका जन्म सन 1547ईस्वी में चॉक के पास चिनाब नदी के तट संदल पार के पिंड भटियां के टोला बदर में फरीद भाटी के घर हुआ था.आधुनिक दौर में यह जगह लाहौर से 128किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित है.

उनकी माता ने बचपन में लोरी के रूप में मुगलों की जुल्म और अत्याचार की कहानी सुना सुना कर बालक दुल्ला को बड़ा किया था.जिसका दुल्ला भाटी के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा.दुल्ला भाटी के दादा संदल भाटी और पिता फरीद भाटी किसानो और समाज के पीड़ितों को संगठित कर उनके अधिकार की लड़ाई लड़ते थे.

मुगलों के बड़े ओहदेदारों ने दादा संदल भाटी और पिता फरीद भाटी की हत्या करवा दिया था.दुल्ला भाटी ने भी अपने दादा और पिता के इस संघर्ष को आगे बढ़ा.इसके साथ साथ उन्होंने ने मुग़ल अधिकारियो द्वारा प्रताड़ित हिन्दू और पसमांदा महिलाओं की रक्षा का भी बीड़ा उठा रखा था.

पूरी दुनिया में मौखिक इतिहास की अपनी परंपरा रही है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होते हुए लोगों के दिलों में जीवित रहती है.पंजाब में भी मौखिक इतिहास की सदियों पुरानी इसी परंपरा का पालन किया जाता रहा है.इन्हीं मौखिक इतिहास से दुल्ला भाटी का पता चलता है.

देशज पसमांदा समाज से आने वाले ज्यादातर विभूतियों के बारे में इन्हीं मौखिक इतिहास के स्रोतों से पता चलता रहा है चाहे वह बूटा मलिक रहे हो या गलवान रसूल, बाबा कबीर या दादू दयाल.ऐसा नहीं है कि सिर्फ देशज पसमांदा इतिहास के साथ ही ऐसा है,दुनिया के और सामाजिक, आर्थिक धार्मिक इतिहास के स्रोतों का आधार अधिकतर मौखिक ही रहा है.

इतिहास की पुस्तकों का सृजन मौखिक इतिहास से इकट्ठा करके लिखित इतिहास में संकलित किया गया है.इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मोहम्मद साहब के व्याख्यान, उनकी क्रियाकलापों को उनकी मृत्यु के लगभग 100से 150वर्षो के बाद मौखिक इतिहास से ही संकलित करके लिखित रूप मे प्रतिपादित किया गया है.

दुल्ला भाटी के मौखिक इतिहास के संकलन का कार्य किशन सिंह, बलदेव सिंह और मनप्रीत रतियां ने बखूबी अपनी अपनी पुस्तकों मे किया है.इसके इतर दलित, उपेक्षित और हाशिए की जातियों के महान व्यक्तित्व को उच्च जातियों से सम्बंधित करने की परंपरा भी रही है.

इसके पीछे अशराफवाद इस वैचारिकी को बल देने का प्रयास करता है कि तथाकथित नीची जातियों में कोई महान व्यक्ति पैदा हो ही नहीं सकता है.देशज पसमांदा दुल्ला भट्टी की वीरता साहस और उपेक्षित पीड़ित समाज के प्रति उनकी सहृदयता उनको महान व्यक्तित्व की श्रेणी में ला खड़ा करता है.

यह उस समय की बात है जब मुगल अकबर ने अपने राजस्व के बढ़ाने के उद्देश्य से पंजाब सहित अपने राज्य में नए करधन की प्रणाली शुरू की थी. साथ ही साथ एक फौजदार या मुगल प्रशासक भी नियुक्त कर दिया था.

इस क्रिया के फलस्वरुप दुल्ला भाटी ने शाही मुगल सत्ता के खिलाफ किसानों को एकजुट करके अपना प्रतिरोध प्रारंभ कर दिया.सरकारी कारवां लूटना मुगलों को घेरने और चुनौती देने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कई तरीकों में से एक था.इस प्रकार दुल्ला पंजाब के किसानों के लिए मुक्ति और आशा लेकर आया.

एक सफल विद्रोह का नेतृत्व करने के बाद दुल्ला भट्टी को अनंतः पकड़ लिया गया.लाहौर ले जाया गया,जहां सन 1599 ईस्वी को पसमांदा विरोधी क्रूर मुगल शासक अकबर के आदेश पर फांसी दे दी गयी.लाहौर के ऐतिहासिक मियानी साहब कब्रिस्तान में एक साधारण सी कब्र है,जहां एक बहादुर देशज पसमांदा चीर निद्रा में लीन है.

कभी कभार ही कोई आगंतुक उस पर फूल या कोई चादर चढ़ा जाता है.दुल्ला एक ऐसा नायक था जिसने बड़े पैमाने पर किसान विद्रोह के जरिए क्रूर मुगल सत्ता को चुनौती दी थी.दुल्ला ने स्थानीय किसानों और उत्पीड़ित लोगों की तरफ से लड़ाई लड़ी और मुगलों के खिलाफ उसके सभी अभियानों को बड़ी प्रसिद्धि मिली थीं.

ऐसे अनुपम और बेजोड़ वीरता के चलते दुल्ला पंजाब में मुग़लो के विरुद्ध बगावत का सबसे बड़ा प्रतीक बनकर उभरा.

फांसी के बाद उनकी प्रसिद्धि और प्रज्वलित हुई उसके नाम पर पंजाब मे हर घर गली नुकड़ पर उनके वीरता के क़िस्से और गीत गाए जाने लगे.युवा लड़कियों को मुगल ओहदेदारों, फौजदारों, प्रशासकों द्वारा शोषण से बचाने के उनके प्रयास इतने प्रसिद्ध थे कि वह एक लोकनायक बन गए.कहा जाता है की मुंदरी नामक एक लड़की को मुगल ओहदेदारों से बचने के लिए उसने संघर्ष किया और उसे मुक्त करा दिया.

तमाम सामाजिक, सैनिक और आर्थिक अड़चनो के बाद भी दुल्ला भाटी ने उस लड़की की शादी योग्य वर से लोहड़ी पर्व के शुभ अवसर पर करवाई थी.यही वजह है कि दुल्ला भट्टी को लोहड़ी के दिन याद किया जाता है.

एक देशज पसमांदा दुल्ला भट्टी द्वारा हिंदू लड़की की इज्जत बचाने की यह कहानी पंजाब और लोहड़ी की मिली जुली संस्कृति का प्रतीक बन गई साथ ही साथ पसमांदा समाज और हिंदू समाज में उपस्थित सदियों पुरानी सह अस्तित्व के बानगी को भी प्रस्तुत करता है.

( लेखक पेशे से चिकित्सक, स्तंभकार और पसमांदा एक्टिविस्ट हैं.)