मज़हबे-इस्लाम में मुहर्रम की अहमियत

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 07-07-2024
Importance of Muharram in Islam
Importance of Muharram in Islam

 

-फ़िरदौस ख़ान

मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है यानी हिजरी सन् का आग़ाज़ इसी महीने से होता है. क़ुरआन में भी इसकी अहमियत बयान की गई है. इसे इस्लाम के चार पाक महीनों में शुमार किया जाता है. अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस माह को अल्लाह का महीना कहा है.

moharram

नबी और मुहर्रम

  • दर हक़ीक़त इस्लाम में शुरू से ही मुहर्रम की बहुत बड़ी अहमियत रही है. मुहर्रम की दस तारीख़ को यानी आशूरा के दिन अल्लाह के पहले नबी हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की तौबा क़ुबूल की गई.
  • इसी दिन अल्लाह ने हज़रत इदरीस अलैहिस्सलाम को आसमान पर उठा लिया.
  • इसी दिन हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की कश्ती पहाड़ी पर आकर ठहरी थी.
  • इसी दिन अल्लाह ने हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम को आग से सही-सलामत बाहर निकाला.
  • इसी दिन हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की आंखों की रौशनी वापस आई.  
  • इसी दिन हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को क़ैद से रिहाई मिली.
  • इसी दिन हज़रत अय्यूब अलैहिस्सलाम ने मर्ज़ से निजात हासिल की.
  • इस दिन दरिया-ए नील ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को रास्ता दिया और फ़िरऔन के लश्कर को ग़र्क़ कर दिया.
  • इसी दिन हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम की तौबा क़ुबूल हुई.
  • इसी दिन हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम को उनका मुल्क वापस मिला.
  • इसी दिन हज़रत यूनुस अलैहिस्सलाम को मछली के पेट से निजात मिली.
  • इसी दिन हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को आसमान पर उठा लिया गया.

कर्बला का वाक़िया

कर्बला का वाक़िया भी मुहर्रम में ही वाक़ेअ हुआ था. यह वाक़िया इस्लाम की हिफ़ाज़त का सितून साबित हुआ. अगर इस्लाम को समझना है, तो मार्क-ए-कर्बला को जानना होगा. दरअसल इस्लाम और इस्लाम का दर्स मार्क-ए कर्बला में ही पोशीदा है. इस वाक़िये ने ये साबित कर दिया कि कौन हक़ पर है और कौन अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए हक़ पर होने का ढोंग कर रहा है.

इस वाक़िये ने क़यामत तक के लिए हक़ और बातिल के बीच एक ऐसी लकीर खींच दी, जिससे साफ़ पता चल जाता है कि कौन हिदायत पर है और कौन गुमराह है. इस वाक़िये से दुश्मने-इस्लाम और दुश्मने अहले-बैत मैदाने-कर्बला में बेनक़ाब हो गए.

यज़ीद भी हक़ पर होने का दावा कर रहा था और आलिमों का एक बड़ा गिरोह भी उसके साथ था. उसने इस्लाम में हराम जुआ, शराब और ब्याज़ जैसी तमाम बुराइयों को आम कर दिया. उसके अवाम पर ज़ुल्म भी लगातार बढ़ते जा रहे थे. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उसके ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की. यज़ीद ने उन पर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए ज़ोर डाला, लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया.

इस पर उसने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को क़त्ल करने का फ़रमान जारी कर दिया.हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना से अपने घरवालों, अपने जांनिसार साथियों के साथ कूफ़ा के लिए रवाना हो गए, जिसमें उनके ख़ानदान के 123 सदस्य शामिल थे.

यज़ीद की फ़ौज ने उन्हें कर्बला के मैदान में ही रोक लिया और उन पर यज़ीद की बात मानने के लिए दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने ज़ालिम यज़ीद की अधीनता क़ुबूल करने से मना कर दिया. इस पर यज़ीद ने दरिया-ए-फ़ुरात पर पहरा लगवा दिया और उनके पानी लेने पर सख़्ती से रोक लगा दी गई.

तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ानदान के बच्चे प्यास से तड़पने लगे, तो उन्होंने यज़ीद की फ़ौज से पानी मांगा. फ़ौज ने पानी देने से यह सोचकर मना कर दिया कि बच्चों की भूख-प्यास देखकर वे टूट जाएंगे. जब उन्होंने यज़ीद की बात नहीं मानी, तो फ़ौज ने उनके ख़ेमों पर हमला कर दिया.

इस हमले में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम समेत उनके ख़ानदान के 72लोग शहीद हो गए. इसमें छह महीने से लेकर 13साल तक के किशोर भी शामिल थे. दुश्मनों ने छह महीने के मासूम अली असग़र के गले पर तीन नोक वाला तीर मारकर उन्हें भी शहीद कर दिया.

उन्होंने सात साल आठ महीने के औन और मुहम्मद यानी आपकी बहन के बेटों के सिर पर तलवार से वार कर उन्हें भी शहीद कर दिया. उन्होंने 13साल के हज़रत क़ासिम को घोड़ों की टापों से कुचल कर शहीद कर दिया. हालत ये थी कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की औलादों को पानी और कफ़न तक नहीं मिला.  

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कर्बला में अपनी और अपने ख़ानदान की क़ुर्बानी देकर अल्लाह के उस दीन को ज़िन्दा रखा, जिसे उनके नाना लेकर आए थे.दुख और अफ़सोस की बात तो ये भी है कि नबी की औलादों को उन्हीं लोगों ने क़त्ल किया, जो मुसलमान होने का दावा करते थे.

वे जानते थे कि नबी करीम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपनी बेटी फ़ातिमा ज़हरा सलाम उल्लाह अलैहा, अपने दामाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम और अपने नवासों हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बहुत मुहब्बत थी. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि जिसका मैं मौला हूं, उसका अली मौला है. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फ़रमाया कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूं. अल्लाह तू उससे मुहब्बत कर, जो हुसैन से मुहब्बत करे.

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “अल्लाह से मुहब्बत करो कि उसने तुम्हें नेअमतों से नवाज़ा है, और अल्लाह की मुहब्बत की ख़ातिर मुझसे मुहब्बत करो और मेरी मुहब्बत की ख़ातिर मेरे अहले बैत से मुहब्बत करो.”(मिश्कात अल मसाबीह)  

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फ़रमाया- जिसने हसन अलैहिस्सलाम और हुसैन अलैहिस्सलाम से मुहब्बत की उसने मुझसे मुहब्बत की और जिसने उनसे बुग़्ज़ रखा उसने मुझसे बुग़्ज़ रखा.”(इब्ने माजा)      

अब्दुल्ला बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की रिवायत के मुताबिक़ नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत हुसैन अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाया था- “दोनों दुनिया में मेरे दो फूल हैं.” (सहीह बुख़ारी)  

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फ़रमाया कि “फ़ातिमा ज़हरा सलाम उल्लाह अलैहा मेरे जिस्म का एक टुकड़ा हैं, जिसने उन्हें नाराज़ किया उसने मुझे नाराज़ किया.”(सहीह बुख़ारी)  

ये जानने के बाद भी ज़ालिमों ने अपने ही नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जिगर के टुकड़ों को बूंद-बूंद  पानी के लिए तरसाया और फिर उनका बेरहमी से क़त्ल कर दिया.  दरअसल शुरू से ही हक़ और बातिल के बीच एक देखी या अनदेखी जंग चली आ रही है, जो ता क़यामत चलती रहेगी.

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इसमें एक छोटा तबक़ा हक़ के साथ होता है, जबकि बड़ा तबक़ा बातिल के साथ खड़ा रहता है. कर्बला में भी एक तरफ़ ज़ालिम यज़ीद की लाखों की फ़ौज थी, तो दूसरी तरफ़ हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ानदान के तीन दिन के भूखे-प्यासे गिनती के लोग थे. लेकिन जीत तो हक़ की ही हुई. बक़ौल बहार चिश्ती नियामतपुरी-

चिश्ती करबल में हुआ, ऐसा ज़ुल्म शदीद।

मारन हारे मर गये, ज़िन्दा सभी शहीद।।

हज़रत बहार चिश्ती नियामतपुरी साहब कहते हैं-

छूट जाएगा अगर हाथों से बाबे-करबला।

दीने-इब्राहीम रह जाएगा ख़्वाबे-करबला।

सानिहा-ए ग़म तो लाखों हैं, मगर है ही नहीं,

एक भी दुन्या की नज़रों में जवाबे-करबला।

तीरगी-ए दीनो-दुनिया छट गयी संसार से,

आ गया जब कर्बला में आफ़ताबे-करबला।

जी रहे हैं लोग जो बुग़्ज़े-अली में रात-दिन,

हश्र तक उन पर ही टूटेगा अज़ाबे-करबला।

आमदे-अकबर हुई तो शोर उट्ठा आ गया,

सूरते-ख़ैरुल बशर में माहताबे-करबला।

चल रहा चलता रहेगा हश्र तक बेरोक टोक,

दुनिया के हर एक ज़र्रे पर निसाबे-करबला।

देखके सूखे लबो-रुख़सारे-असग़र हश्र तक,

रोएगा बेचैनो-प्यासा ग़म से आबे-करबला।

हर बला रंजो-मुसीबत मेटना चाहो तो फिर,

पढ़ किताबों में किताबे-उम्किताबे-करबला।

सो रहे हैं हज़रते-असग़र तिरे आग़ौश में,

शोर रत्ती भर न होने दे तुराबे-करबला।

लेके मश्कीज़ा कभी दर्या कभी मैदान में,

टूट पड़ता था बिना बाज़ू उक़ाबे-करबला।

दे रहा है बू-ए हैदर,शक्ले-क़ासिम में ‘बहार’

गुल्शने-ज़ह्रा का गुल बनके गुलाबे-करबला।

(लेखिका आलिमा हैं)