प्रभाकर मणि तिवारी / कोलकाता
पश्चिम बंगाल में होली का त्योहार देश के बाकी हिस्सों के मुकाबले अनूठे तरीके से मनाया जाता है. यहां कई परंपराएं ऐसी हैं, जो इसे अलग बनाती हैं. मिसाल के तौर पर पूरे देश में जहां होलिका दहन के अगले दिन रंगों का त्योहार मनाया जाता है, वहीं बंगाल में यह होलिका दहन यानि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन ही मनाया जाता है. इसे यहां होली नहीं, बल्कि दोल उत्सव या दोल जात्रा कहा जाता है.
एक अंतर यह भी है कि देश भर में मनाई जाने वाली होली जहां होलिका, प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप के पौराणिक मिथक से जुड़ी है, वहीं बंगाल का दोल राधा और कृष्ण के प्रेम के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है.
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां मिली-जुली आबादी वाले इलाकों में मुसलमान और ईसाई तबके के लोग भी हिंदुओं के साथ होली खेलते हैं. इन दोनों समुदाय के लोग राधा-कृष्ण की पूजा से भले दूर रहते हों, रंग और अबीर लगवाने में उनको कोई दिक्कत नहीं होती. कोलकाता का यही चरित्र यहां की होली को सही मायने में सांप्रदायिक सद्भाव का उत्सव बनाता है.
समाजशास्त्रियों का कहना है कि पूरे देश में होली का त्योहार प्रेम और भाईचारे के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है. लेकिन बंगाल का दोल उत्सव उससे भी एक कदम आगे है.
यह महज एक धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति का उत्सव भी है. यही वजह है कि जात-पात और धर्म से ऊपर उठते हुए राज्य के विभिन्न हिस्सों में कई गैर-हिंदू आदिवासी समुदाय भी अपने-अपने तरीके से इस त्योहार का पालन करता है. दोल उत्सव बांग्ला समाज के ताने-बाने में गहराई से रचा-बसा है.
वैसे तो पश्चिम बंगाल के अलग-अलग हिस्से में इस उत्सव को अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है. लेकिन शांति निकेतन में होने वाली होली पूरी दुनिया में मशहूर है. कविगुरू रबींद्रनाथ टैगोर ने वर्षों पहले बसंत उत्सव की जो परंपरा शुरू की थी, वह आज भी जस की तस है. विश्वभारती विश्वविद्यालय परिसर में छात्र और छात्राएं आज भी पारंपरिक तरीके से यह उत्सव मनाती हैं.
लड़कियां लाल किनारे वाली पीली साड़ी में होती हैं और लड़के धोती और अंगवस्त्र जैसा कुर्ता पहनते हैं. इस मौके पर एक जुलूस की शक्ल में अबीर और रंग खेलते हुए विश्वविद्यालय परिसर की परिक्रमा की जाती है. इस उत्सव का गवाह बनने के लिए इस मौके पर देस-विदेश से लाखों लोग शांतिनिकेतन पहुंचते हैं.
बांग्ला कैलेंडर का आखिरी त्योहार होने की वजह से राज्य में इसे बसंत के स्वागत के तौर पर भी मनाया जाता है. यानी बंगाल में दोल उत्सव महज पौराणिक कथाओं पर आधारित एक त्योहार ही नहीं बल्कि बसंत के स्वागत और रबी की फसल कटने का आनंद जताने का उत्सव भी है.
दोल का मतलब हिंदी में झूला होता है और जात्रा का मतलब यात्रा. यहां यह त्योहार अपने शाब्दिक अर्थों में मनाया जाता है.
माना जाता है कि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन राधा जब अपनी सखियों के साथ झूला झूल रही थीं, तो भगवान कृष्ण ने चुपके से उनके चेहरे पर फाग या गुलाल मलकर पहली बार राधा के प्रति अपने प्रेम का इजहार किया था.
इस खुशी में उस दिन उन दोनों यानी राधा-कृष्ण को एक रंग-बिरंगी पालकी में बिठाकर पूरे शहर में घुमाया गया था. बंगाल का दोल उत्सव उसी परंपरा पर आधारित है.
अब बीतते समय के साथ पश्चिम बंगाल में होली मनाने का तरीका भी बदला है. पहले यह उत्सव एक सप्ताह तक चलता था. इस मौके पर जमींदारों की हवेलियों के दरवाजे आम लोगों के लिए खोल दिए जाते थे. उन हवेलियों में राधा-कृष्ण के मंदिर होते थे. वहां पूजा-अर्चना और सामूहिक भोज का दौर चलता रहता था.
अब एकल परिवारों की तादाद बढ़ने से होली का स्वरूप कुछ बदला जरूर है, लेकिन इस दोल उत्सव में अब भी वही रंग और मिठास है, जिससे मन झूले की तरह डोलने लगता है.