सूफिज्म का इतिहासः इश्क में खुद को मिटा देना ही तसव्वुफ है

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-06-2023
सूफिज्म का इतिहासः इश्क में खुद को मिटा देना ही तसव्वुफ है
सूफिज्म का इतिहासः इश्क में खुद को मिटा देना ही तसव्वुफ है

 

फिरदौस खान

तसव्वुफ़ इस्लाम का एक रहस्यवादी मसलक है. इसे मानने वाले सूफ़ी कहलाते हैं. सूफ़ी लफ़्ज़ कैसे आया. इसे लेकर मुख़तलिफ़ राय हैं. कुछ लोगों का मानना है कि मदीने में मस्जिदे नबवी के बाहर सहन-ए- सुफ़्फ़ा में बहुत से लोग बैठे रहते थे, जिन्हें असहाबे सुफ़्फ़ा कहा जाता था. यह भी कहा जाता है कि मस्जिदे नबवी के बाहर एक मिम्बर था, जिसे सुफ़्फ़ा कहा जाता था. इस पर बैठने वाले लोग सूफ़ी कहलाए. इनमें से बहुत से लोग ऊन से बुना हुआ चोग़ा पहनते थे और बहुत से लोग कम्बल ओढ़े रहते थे. अरबी ज़बान में ऊन को सुफ़ कहा जाता है. इसलिए ये लोग सूफ़ी कहलाए. अबू नस्र अल सर्राज की अरबी की पुस्तक ‘किताब उल लुमा’ के मुताबिक़ सूफ़ी लफ़्ज़ सुफ़ से आया है.
    
कुछ लोग सूफ़ी लफ़्ज़ को सफ़ा से जुड़ा हुआ मानते हैं. सफ़ा का मतलब है पाकीज़गी यानी जो लोग बुराइयों से बचे हुए हैं और जिनकी रूह पाकीज़ा है, वही सूफ़ी हैं. ईरान के मशहूर सूफ़ी शायर फ़रीरुद्दीन अत्तार रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी किताब ‘तज़किरातुल औलिया’ में सूफ़िज़्म की सत्तर परिभाषाओं का ज़िक्र किया है. इनमें तेरह परिभाषाओं में सफ़ा लफ़्ज़ का ज़िक्र किया गया है. मशहूर सूफ़ी अली अल हुजविरी यानी हज़रत दाता गंज बख़्श की सूफ़िज़्म पर आधारित फ़ारसी की किताब ‘कशफ़ अल महजूब’ के मुताबिक़ सफ़ा से ही सूफ़ी लफ़्ज़ वजूद में आया है.  
 
तसव्वुफ़ की शुरुआत कब हुई 
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हिजरत के बाद तसव्वुफ़ की शुरुआत हुई.  
दरअसल जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मक्का से हिजरत करके मदीना मुनव्वरा आए, तो उनके चाहने वाले बहुत से लोग भी मक्का से हिजरत करके मदीना आ गए. लेकिन यहां उनका न कोई रिश्तेदार था और न ही उनके पास रहने के लिए कोई जगह थी. मुफ़लिसी का आलम यह था कि उनके पास पहनने के लिए पूरे कपड़े तक नहीं थे. किसी के पास तहमद था तो क़मीज़ नहीं थी और किसी के पास क़मीज़ थी, तो तहमद नहीं था. उनके पास खाने के लिए भी कुछ नहीं था. वे कई-कई रोज़ तक बिना कुछ खाये फ़ाक़े से रहा करते थे, लेकिन किसी से कुछ नहीं मांगते थे. वे मस्जिदे नबवी के बाहर सुफ़्फ़ा नाम के एक मिम्बर पर बैठे रहते थे. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन्हें खाने को कुछ दे देते, तो वे उसे खाकर अल्लाह का शुक्र अदा करते थे.
 
इन लोगों के सिर पर तेज़ धूप और बारिश से बचने के लिए कोई छत भी नहीं थी. वे झुलसा देने वाली धूप में बैठे रहते थे. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें धूप से बचाने के लिए मस्जिदे नबवी के उत्तर पूर्वी हिस्से में ताड़ और खजूर के पत्तों से छत बनवा दी थी. वे इसके साये में बैठकर ज़िक्रे इलाही में मशग़ूल रहा करते थे. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन लोगों के साथ उठते- बैठते थे, उनके साथ खाना खाया करते थे और उनके साथ इल्म और हिकमत की बातें किया करते थे. इनकी असल तादाद के बारे में मुख़तलिफ़ क़ौल मिलते हैं. कहीं इनकी तादाद 300 बताई गई है, तो कहीं 400 बताई गई है. लेकिन मोतबिर किताबों में 148 का ज़िक्र मिलता है. इन्हीं लोगों को असहाबे सुफ़्फ़ा कहा जाता है. यहीं से सूफ़िज़्म की बुनियाद पड़ी. बाद में ये लोग सूफ़ी कहलाए. 
 
आगे चलकर जिन लोगों ने इनके इबादत के तरीक़े को अपनाया, उन्हें भी सूफ़ी कहा जाने लगा. इनकी इबादत का तरीक़ा यह था कि ये लोग हमेशा ज़िक्रे इलाही में मशग़ूल रहा करते थे. ये अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनके अहले बैअत से बेपनाह मुहब्बत करते थे. ये हर हाल में अल्लाह की रज़ा में राज़ी रहते थे. ये मुसीबत के वक़्त सब्र किया करते थे और सादगी से ज़िन्दगी बसर करते थे. इन्हें न दुनिया के माल व दौलत की कोई चाह थी और न ही शौहरत से कोई सरोकार था. ये ईमान के पक्के और दिल के सच्चे थे. 
 
बाद में उमय्यद ख़लीफ़ा हसन अल बसरी के ज़माने में सातवीं से आठवीं सदी में सूफ़िज़्म उरूज़ पर था. इसी वक़्त सूफ़ियों को सबसे ज़्यादा मुख़ालिफ़त का सामना भी करना पड़ा. तक़रीबन इसी दौरान सूफ़ी अरब की सरज़मीन से हिजरत करके दीन-ए-इस्लाम की तबलीग़ के लिए दुनिया के कोने-कोने में गए. नुबूवत तो आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के विसाल के साथ ही ख़त्म हो गई थी. ऐसे में दुनियाभर में अल्लाह के दीन को फैलाने में सूफ़ियों ने अहम किरदार अदा किया.   
 
बैअत होना यानी मुरीद होना
सूफ़िया किराम के यहां बैअत होना सबसे अहम तरीन रूक्न है, जिसके ज़रिये मुरीद की तालीम, तरबियत, हिदायत और इस्लाह का काम शुरू होता है.
बैअत-ए- शैख़ अल्लाह के हुक्म और अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अमल से साबित है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ऐ रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! बेशक जो लोग तुमसे बैअत करते हैं, वे अल्लाह ही से बैअत करते हैं. उनके हाथों पर तुम्हारे हाथ की सूरत में अल्लाह का हाथ है. यानी उनके हाथ पर मुर्शिद का जो हाथ है, वह अल्लाह ही का हाथ है. 
(क़ुरआन 48:10)
 
कुछ आलिमों के नज़दीक बैअत वाजिब है और कुछ ने बैअत को सुन्नत कहा है. 
 
बैअत की क़िस्में
हदीसों और मोतबिर किताबों के मुताबिक़ बैअत की कई क़िस्में होती हैं, जैसे बैअत-ए-इस्लाम, बैअत-ए-ख़िलाफ़त, बैअत-ए-हिजरत, बैअत-ए-जिहाद और बैअत-ए-तक़वा वग़ैरह. लेकिन तज़किया-ए-नफ़्स और तसफ़िया-ए-बातिन के लिए जो सूफ़िया किराम बैअत करते हैं, वे क़ुर्बे इलाही का ज़रिया बनते हैं. तसव्वुफ़ में इसी बैअत को बैअत-ए-शैख़ कहा जाता है.
 
जब कोई बैअत होना चाहता है, तो वह अपना हाथ अपने मुर्शिद के हाथ में देता है और इज़हारे-ग़ुलामी व बन्दगी
का अहद करता है. बैअत में बै का मतलब है बिक जाना यानी अपनी मर्ज़ी से अपने मुर्शिद के हाथों बिना मोल बिक जाना. कोई भी इंसान बिना मोल तो सिर्फ़ इश्क़ में ही बिकता है. और जब वह बिक जाता है, तो फिर वह ग़ुलाम हो जाता है और ग़ुलाम का अपना कोई वजूद नहीं रह जाता. इसी को तो इश्क़ कहते हैं.  
  
मुर्शिद उसे बताते हैं कि वह किस ख़ानवाद-ए-मार्फ़त यानी किस सिलसिले में बैअत कर रहा है. मुर्शिद जिस सिलसिले से होते हैं, उनका शागिर्द भी उसी सिलसिले में शामिल हो जाता है. किसी सिलसिले में वे शिजर-ए-मार्फ़त के अव्वल बुज़ुर्ग यानी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नाम-ए-मुबारक लेते हुए सिलसिला ब सिलसिला अपने मुर्शिद के ज़रिये अपने तक पहुंचाते हैं और किसी सिलसिले में यह सिलसिला मुर्शिद से लेकर आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक पहुंचता है. फिर मुर्शिद कहते हैं कि क्या तूने इस फ़क़ीर को क़ुबूल किया? बन्दा कहता है कि मैंने दिलो-जान से क़ुबूल किया. इस इक़रार के बाद उसे मुरीद कहते हैं. फिर उससे कहा जाता है कि हलाल को हलाल जानना और हराम को हराम समझना और शरीअते-मुहम्मदी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर साबित क़दम रहना. 
 
इस तरह बन्दे को शरीअत के ज़ाहिरी अरकान के साथ-साथ बातिनी अरकान भी अदा करने होते हैं. इस ज़ाहिरी और बातिनी शरीअत के मेल को ही तसव्वुफ़ कहा जाता हैं. ये राह इतनी आसान नहीं है. मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ान यानी मिर्ज़ा ग़ालिब के अल्फ़ाज़ में-
 
ये इश्क़ नहीं आसां, इतना समझ लीजे 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.

 

(लेखिका सूफ़िज़्म के चिश्तिया सिलसिले से जुड़ी हुई हैं और उन्होंने सूफ़ी-संतों के जीवन दर्शन पर आधारित किताब ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ लिखी है)