साकिब सलीम
अलेक्जेंडर फ्रेजर टाइटलर, लॉर्ड वुडहाउसली ने अपने 1791के प्रामाणिक पाठ, अनुवाद के सिद्धांतों पर निबंध में, एक 'अच्छे अनुवाद' का वर्णन इस प्रकार किया है, "वह, जिसमें मूल कार्य की योग्यता पूरी तरह से किसी अन्य भाषा में स्थानांतरित हो जाती है, जैसे कि जिस देश की वह भाषा है, उस देश के मूल निवासी द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जाता है, और दृढ़ता से महसूस किया जाता है, जैसा कि उन लोगों द्वारा किया जाता है जो मूल कार्य की भाषा बोलते हैं.
हाशिम रज़ा जलालपुरी द्वारा 15 वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कबीर की कविता का हाल ही में प्रकाशित उर्दू अनुवाद एक 'अच्छे अनुवाद' की सभी आवश्यकताओं को पूरा करता है.
Kabir Urdu Shairi Mai: Naghma-e-Fehm-o-Zaka(उर्दू कविता में कबीर: ज्ञान और समझ के गीत) नामक पुस्तक उर्दू कविता में कबीर की 100 कविताओं का संकलन है.
यह काम उनके पिछले काम, Mirabai Urdu Shairi Mai: Naghma-e-Ishq-o-Wafaकी अगली कड़ी के रूप में आता है, जो मीराबाई की कविता का उर्दू कविता में अनुवाद था.
हालाँकि मीराबाई और कबीर का उर्दू में अनुवाद करने के पहले भी कुछ प्रयास हुए हैं, हाशिम के अनुवाद काव्यात्मक प्रारूप में पहले हैं.इस प्रकार Tytlerद्वारा निर्धारित अनुवाद के तीन नियमों में से एक को पूरा किया गया, जो पिछले ऐसे कार्यों में अछूता रहा.
टाइटलर( Tytler) ने कहा, "लेखन की शैली और तरीका मूल के समान होना चाहिए." हाशिम इस कानून पर कायम हैं और इस अनुवाद को लिखने की शैली और तरीके के रूप में कविता को अपनाते हैं.
यह उन्हें अली सरदार जाफ़री( Ali Sardar Jafr) से अलग करता है जिन्होंने कबीर के उर्दू अनुवाद को गद्य रूप में करने का प्रयास किया था.पाँच शताब्दियों से भी अधिक समय बाद भी कबीर आज भी प्रासंगिक क्यों हैं ?
अली सरदार जाफरी सवाल का जवाब देते हैं.जाफ़री लिखते हैं कि आज हमें कबीर के मार्गदर्शन की और भी अधिक आवश्यकता है.मनुष्य चंद्रमा पर पहुंच गया है, विशाल मशीनें बनाई हैं.बीमारियों को हराया है,फिर भी दुनिया राष्ट्रों, धर्मों, जातियों और नस्लों में विभाजित है जो हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं.
जाफरी का मानना है,इसलिए इंसानों को कबीर के माध्यम से प्रेम के पंथ में एक नए विश्वास की जरूरत है.
उर्दू अनुवाद की आवश्यकता क्यों ?
कबीर की भाषा 15 वीं सदी की बोली सधुक्कड़ी थी.आज अधिकांश लोग इसे समझ नहीं पाते.जैसा कि एक प्रमुख नारीवादी उर्दू कवयित्री किश्वर नाहीद का कहना है कि युवा पीढ़ी को पहले के कार्यों का अधिक भाषाओं में अनुवाद करना चाहिए ताकि वे बड़े पैमाने पर जनता तक पहुंच सकें, हाशिम ने कबीर के शब्द को बड़े पाठक वर्ग तक फैलाने का बीड़ा उठाया है.
भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू शायरी के एक बड़े दर्शक वर्ग हैं.किताब उर्दू लिपि के अलावा देवनागरी लिपि में भी छपी है.यह कोई रहस्य नहीं है कि उर्दू शायरी वे लोग भी सुनते और साझा करते हैं जो उर्दू लिपि नहीं पढ़ सकते.तो, उम्मीद है, यह पुस्तक कबीर के ज्ञान को बहुत बड़े पैमाने पर जनता तक ले जा सकती है.
हाशिम ने कबीर की 'ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास माई' का उर्दू में अनुवाद इस प्रकार किया है:
मैं ना मस्जिद, मैं ना मंदिर, मैं ना तन्हाई मैं हूं
मैं न काबा, मैं न तीरथ, मैं न ऊंचाई माई हूं
कोई भी व्यक्ति जो उर्दू/हिन्दी समझ सकता है, अनुवाद की सहजता और छंद की सराहना करेगा.यहां हाशिम टाइटलर द्वारा प्रस्तावित अनुवाद के तीसरे नियम का पालन करते हैं, "अनुवाद में मूल रचना की सभी सहजता होनी चाहिए."
हाशिम ने कबीर की 'जाग प्यारी अब का सोवे, रैन गाई दिन काहे को खोवे' का उर्दू में अनुवाद इस प्रकार किया है:
अब तो बेदर्द नींद से हो जा
रात भी ढल चुकी है दिन निकला
हाशिम टाइटलर द्वारा दिए गए अनुवाद के पहले नियम पर भी कायम दिखते हैं.टाइटलर लिखते हैं, "अनुवाद को मूल कार्य के विचारों की पूरी प्रतिलिपि देनी चाहिए." उनका प्रत्येक अनुवाद मूल का पूरा विचार देता है, समझने में आसान है.इसकी शैली मूल पाठ के समकक्ष है.
पुस्तक में ऐसे कई बिंदु हैं जहां पाठक यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि क्या हाशिम के काम को अनुवाद कहा जाना चाहिए जैसा कि पश्चिमी दुनिया इसे समझती है या क्या यह 'ट्रांसक्रिएशन' है, जो नए मुहावरों के साथ कहानियों को दोबारा कहने की एक पूर्वी परंपरा है.
जूडी वाकाबायाशी बताते हैं, "संस्कृत अनुवाद - भारत में 'अनुवाद' के लिए कई समकक्षों में से एक - मूल रूप से 'पुनरावृत्ति' (एक अस्थायी अवधारणा) का मतलब, न कि अंतरभाषा हस्तांतरण (एक स्थानिक अवधारणा)".
कबीर के शब्दों पर एक नज़र डालें, "सरत सुहागन है पनिहारन, भरे ठाढ़ बिन डोर" और इसकी तुलना हाशिम ने जो कहा है उससे करें:
उसके देस में एक हुस्न ओ इश्क की देवी
वो भर रही है वाहा डोर के बिना पानी
हाशिम के शब्द यहां कबीर को पूरी तरह से समझाते हैं,लेकिन अपने आप में यह दोहा एक काव्य रचना है.जैसा कि मार Mar Díaz-Millónऔर María Dolores Olvera-Lobo का तर्क है, यह शाब्दिक अर्थ में अनुवाद नहीं है.
बल्कि एक प्रतिलेखन है.उन्होंने लिखा, "ट्रांसक्रिएशन को एक अनुवाद-संबंधी गतिविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो भाषाई अनुवाद, सांस्कृतिक अनुकूलन और किसी पाठ के कुछ हिस्सों के (पुनः) निर्माण या रचनात्मक पुन: व्याख्या की प्रक्रियाओं को जोड़ती है."
यह पुस्तक एक ओर जहां कबीर के लेखन को बड़े पैमाने पर जनता के सामने पेश करेगी, वहीं दूसरी ओर यह कविता की कला को भी प्रदर्शित करती है जिसे हाशिम को प्रदर्शित करना है.
पुस्तक की उर्दू शायरी उर्दू शायरी की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता को पूरा करती है.यानी इसमें एक तुकबंदी है जिसे गाया जा सकता है.