साकिब सलीम
हकीम अजमल खान ने भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के संरक्षण और पुनरुत्थान में जो योगदान दिया, वह ऐतिहासिक है. उन्होंने न केवल यूनानी और आयुर्वेद पद्धतियों को बचाने का प्रयास किया, बल्कि इन स्वदेशी चिकित्सा प्रणालियों को मान्यता दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
1900 के दशक की शुरुआत में, ब्रिटिश सरकार भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को समाप्त करने की ओर बढ़ रही थी. बॉम्बे सरकार ने एक ऐसा अधिनियम प्रस्तावित किया, जिसके अनुसार हकीमों और वैद्यों को तभी मान्यता मिल सकती थी, जब वे यूरोप में शिक्षा प्राप्त कर चुके हों या भारतीय विश्वविद्यालयों से डिग्री धारक हों. इससे यूनानी और आयुर्वेद पद्धतियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया.
ज़ेड. ए. निज़ामी के अनुसार, यह प्रस्तावित अधिनियम भारतीय चिकित्सा के लिए मौत की घंटी के समान था. इसका पूरा नियंत्रण मेडिकल काउंसिल के पास था, जो स्वदेशी पद्धतियों के चिकित्सकों को मान्यता देने से इंकार कर सकती थी.
इस संकट को भांपते हुए, हकीम अजमल खान ने इस अधिनियम के खिलाफ जनमत जुटाने की ठानी. 1910 में उन्होंने दिल्ली में पहला आयुर्वेदिक और तिब्बी सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें 300 से अधिक हकीमों और वैद्यों ने भाग लिया. इस सम्मेलन का उद्देश्य भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के लिए समर्थन जुटाना और उन्हें आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के समकक्ष मान्यता दिलाना था.
उन्होंने सरकार से मांग की कि चिकित्सा परिषद में वैद्यों और हकीमों को भी प्रतिनिधित्व दिया जाए. साथ ही, उन्होंने भारतीय चिकित्सा संस्थानों जैसे मदरसा तिब्बिया, बनवारीलाल आयुर्वेदिक पाठशाला और अन्य संस्थानों के प्रमाणपत्रों को सरकारी मेडिकल कॉलेजों के डिग्री धारकों के समकक्ष मान्यता देने की वकालत की.
हकीम अजमल खान की अथक मेहनत रंग लाई. 1919 में, सरकार ने स्वदेशी औषधियों की वैज्ञानिक जांच के लिए एक समिति का गठन किया. इसके बाद, मद्रास और बिहार की सरकारों ने तिब्बिया कॉलेजों की स्थापना की. उत्तर प्रदेश सरकार ने भारतीय चिकित्सा बोर्ड का गठन किया.
लखनऊ में तिब्बिया कॉलेज और हरिद्वार में आयुर्वेदिक कॉलेज की स्थापना के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम विश्वविद्यालयों में यूनानी और आयुर्वेदिक संस्थानों को वित्तीय सहायता भी प्रदान की गई.1919 के मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों ने चिकित्सा को राज्य के विषयों में शामिल कर दिया, जिससे स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियों के खिलाफ सरकार का भेदभाव समाप्त हो गया. इसके बाद से आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा पद्धतियों को सरकार का समर्थन मिलने लगा.
हकीम अजमल खान के प्रयासों ने यूनानी और आयुर्वेद चिकित्सा पद्धतियों को न केवल संरक्षण दिया, बल्कि उन्हें आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के समकक्ष खड़ा किया. उन्होंने इन पद्धतियों को वैज्ञानिक मान्यता दिलाने के लिए जिस धैर्य और संकल्प का प्रदर्शन किया, वह भारतीय चिकित्सा के इतिहास में अमूल्य योगदान है.
हकीम अजमल खान ने अपने विचारों और कर्मों से यह साबित कर दिया कि स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियां भारतीय समाज के लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं। वे इन चिकित्सा प्रणालियों के सच्चे उद्धारकर्ता थे.