-फ़िरदौस ख़ान
गुरु नानक सूफ़ी परम्परा के ही कवि और संत थे. उनका दर्शन, उनकी मान्यताएं और उनकी शिक्षाएं, सब सूफ़ियों जैसी ही हैं. सूफ़ी मानते हैं कि कायनात की रचना करने वाला अल्लाह एक ही है और सब उसी के बन्दे हैं. इसी तरह गुरु नानक भी तौहीद में यक़ीन रखते थे. उन्होंने ‘इक ओंकार’ का नारा दिया. इसमें ‘इक’ का मतलब है- एक, ‘ओं’ का मतलब है- ब्रह्मांड और ‘कार’ का मतलब है- निर्माता यानी सृष्टि का रचयिता एक ही है. यह सिख धर्म का एक मूल मंत्र है.
सिखों के पवित्र ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में दर्ज कबीर की इस रचना में भी तौहीद का ही ज़िक्र किया गया है.
अवलि अलह नूरु उपाइआ क़ुदरति के सभ बंदे
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे
लोगा भरमि न भूलहु भाई
ख़ालिकु ख़लक-ख़लक महि ख़ालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई
माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै
ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कुंभारै
सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई
हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई
अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा
कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा
यानी सबसे पहले अल्लाह ने नूर पैदा किया. फिर उस नूर से सब प्राणी बनाए. एक नूर से ही सारी कायनात बनाई, तो फिर कौन अच्छा है और कौन बुरा है. ऐ लोगो ! ऐ भाइयो, शक व शुबहा में गुमराह होकर मत भटको. रचयिता सृष्टि में है और सृष्टि रचयिता में है, वह सब जगह मौजूद है. मिट्टी एक ही है, लेकिन बनाने वाले ने उसे मुख़तलिफ़ तरीक़ों से गढ़ा है.
मिट्टी के बर्तन में कुछ भी कमी नहीं है, कुम्हार में भी कुछ कमी नहीं है. एकमात्र सच्चा ख़ुदा सबमें बसता है, उसकी रचना से ही सबकुछ बना है. जो कोई उसके हुक्म को समझ लेता है, वही ख़ुदा का बन्दा कहलाता है. अल्लाह तो अदृश्य है, उसे देखा नहीं जा सकता. गुरु ने मुझे यह मीठा गुड़ दिया है यानी ज्ञान दिया है. कबीर कहते हैं कि मेरी फ़िक्र और ख़ौफ़ दूर हो गए हैं, मैं हर जगह मौजूद ख़ुदा को देख रहा हूं.
गुरु नानक का भी यही कहना था कि सबका मालिक वही ख़ुदा है और सब उसी के बन्दे हैं, इसलिए सबसे प्रेम करना चाहिए. गुरु नानक को रबाब साज़ बहुत प्रिय था. वे अकसर इसे बजाते हुए भक्ति गीत गाते थे. उनके गीतों को सुनकर चलते मुसाफ़िर भी ठहर जाया करते थे. उनकी बहुत-सी रचनाएं गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं. वे लिखते हैं-
एक ओंकार सतनाम करता पुरखु
निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि
गुरु नानक इस बाणी में तौहीद का ज़िक्र करते हुए कहते कि सृष्टि का रचयिता एक है. उसी का नाम सच है. करने वाला वही सादिक़ है, जो सबकी हिफ़ाज़त करता है. वह सबकुछ करने में सक्षम है. वह बेख़ौफ़ है यानी उसे मौत का कोई ख़ौफ़ नहीं है. वह बैर भाव से दूर है यानी वह किसी से बैर नहीं रखता है.
वह काल से मुक्त है, वह न तो जन्म लेता है और न मरता है. वह हमेशा रहने वाला है. वह अजन्मा है. वह जन्म और मौत के फेर से परे है. वह ख़ुद के ही नूर से रौशन है, वह ख़ुद ही तो नूर है. गुरु के प्रसाद की वजह से सब मुमकिन है, क्योंकि गुरु ही जीवात्मा को अज्ञानता के अंधेरे से ज्ञान के उजाले की तरफ़ मोड़ता है.
उन्होंने अपनी बहुत-सी रचनाओं में ख़ुदा की तारीफ़ की है. वैसे भी सभी तारीफ़ें उस परवरदिगार के लिए ही तो हैं. इन तारीफ़ों पर उसी का ही तो हक़ है. ख़ुदा के वजूद का ज़िक्र करते हुए गुरु नानक कहते हैं-
आदि सचु जुगादि सचु
है भी सचु नानक होसी भी सचु
यानी हे नानक ! अकाल पुरख यानी ख़ुदा आरम्भ से ही अस्तित्व वाला है, युगों के आरम्भ से मौजूद है. इस वक़्त भी मौजूद है और आगे भी अस्तित्व में रहेगा.
उन्होंने सूफ़ियों की तरह ही लोगों को प्रेम, सद्भावना, एकता, समानता और भाईचारा का पैग़ाम दिया. उन्होंने अपनी शिक्षाओं को ‘नाम जपो, किरत करो और वंड छको’ के मूल मंत्र के ज़रिये ज़ाहिर किया, जिसका मतलब है नाम जपो यानी सिमरन करो, मेहनत करो और बांटकर खाओ.
सूफ़ियों ने भी हमेशा अल्लाह के ज़िक्र, हलाल यानी मेहनत की कमाई और बांटकर खाने को अहमियत दी है. उन्हें जो कुछ मिलता था, वे उसे ज़रूरतमंदों में बांट दिया करते थे. उनके लिए सब अल्लाह के बन्दे थे. वे किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करते थे.
अमीर-ग़रीब, ऊंच-नीच, जात-पात से परे सब उनके लिए बराबर थे. उनकी ख़ानकाहों पर आज भी लंगर लगते हैं, जिसमें लोगों को भरपेट खाना खिलाया जाता है. गुरु नानक इससे बहुत प्रभावित थे. उन्होंने भी भूखों को खाना खिलाने पर ज़ोर दिया. गुरुद्वारों में भी लंगर लगने लगे.
गुरुद्वारों में लोग सेवा के लिए भी जाते हैं. मर्द और औरतें लंगर का खाना बनाते हैं. बहुत से लोग गुरुद्वारों के बाहर बैठकर आने वाले लोगों के जूते साफ़ करते हैं. उनका कहना है कि ऐसा करने से जहां रब ख़ुश होता है, वहीं इससे उनमें किसी भी तरह का अहंकार पैदा नहीं होता. वे अहंकार से दूर रहते हैं, जो तमाम बुराइयों की जड़ है.
सूफ़ी ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ को अल्लाह की ही इबादत मानते हैं. इसी तरह गुरु नानक भी जनसेवा को ख़ुदा की इबादत मानते थे. इसे वे सच्चा सौदा कहते थे. एक बार की बात है कि उनके पिता ने उन्हें कारोबार के लिए कुछ रुपये दिए. उन्होंने बेटे से कहा कि इन रुपयों से सच्चा सौदा करना. गुरु नानक रुपये लेकर घर से निकल पड़े.
उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इससे क्या ख़रीदें. इसी कशमकश में रास्ते में उन्हें साधु-संतों की एक टोली मिल गई. उन्होंने साधु-संतों से कुशल-क्षेम पूछी. वे साधु भूखे थे. गुरु नानक ने कारोबार के लिए मिले रुपयों से उन्हें भरपेट भोजन करवा दिया. जब वे घर वापस आए तो पिता ने उनसे सच्चे सौदे के बारे में पूछा. गुरु नानक ने उनसे कहा कि उन्होंने भूखे साधु-संतों को खाना खिलाकर सच्चा सौदा कर लिया.इसमें कोई दो राय नहीं है कि गुरु नानक ने भी लोगों को वही शिक्षा दी, जो सूफ़ी देते हैं.
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)