उर्दू अख़बारों का वजूद ख़तरे में !

Story by  फिरदौस खान | Published by  [email protected] | Date 29-04-2025
Existence of Urdu newspapers in danger!
Existence of Urdu newspapers in danger!

 

firdous-फ़िरदौस ख़ान 

पिछले कुछ अरसे से जिस तरह देश में उर्दू के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. एक सवाल उर्दू अख़बारों के हवाले से भी है. सवाल यह है कि क्या उर्दू अख़बारों पर इसका बुरा असर पड़ सकता है?  

सबसे पहले उर्दू से नफ़रत के ताज़ा मामले पर नज़र डालते हैं, क्योंकि इसमें नफ़रत है, तो इसके साथ ही उम्मीद की रौशनी की एक किरण भी है. ग़ौरतलब है कि गत 16 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के अकोला ज़िले की पाटुर नगर परिषद के बोर्ड पर मराठी के साथ उर्दू भाषा का इस्तेमाल करने पर रोक लगाने की याचिका को ख़ारिज कर दिया.

यह याचिका पूर्व नगरसेविका वर्षाताई संजय बगाड़े ने दायर की थी. इस याचिका में कहा गया था कि नगर परिषद का कार्य केवल मराठी में ही हो सकता है और उर्दू का उपयोग बोर्ड पर नहीं होना चाहिए.

सबसे पहले यह याचिका पाटुर नगर परिषद ने ख़ारिज की थी. फिर बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे ख़ारिज किया. इसके बाद यह याचिका सर्वोच्च न्यालय में दायर की गई. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुधांशु धूलिया और के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि भाषा का धर्म नहीं होता और उर्दू को केवल मुसलमानों की भाषा मानना सच्चाई और भारत की विविधता की एक दुर्भाग्यपूर्ण ग़लतफ़हमी है.

भाषा किसी धर्म की नहीं, बल्कि समुदाय, क्षेत्र और लोगों की होती है. भाषा संस्कृति होती है और समाज की सभ्यतागत यात्रा का मापदंड होती है. उर्दू भाषा गंगा-जमुनी तहज़ीब की सबसे अच्छी मिसाल है और इसका जन्म भारत की भूमि पर हुआ है.

उर्दू को विदेशी या केवल एक धर्म विशेष की भाषा मानना पूरी तरह ग़लत है. हक़ीक़त यह है कि हिन्दी भाषा का दैनिक उपयोग भी उर्दू शब्दों के बिना अधूरा है. ख़ुद 'हिन्दी' शब्द भी फ़ारसी शब्द 'हिन्दवी' से आया है.

हमें अपने पूर्वग्रहों की सच्चाई से टकराने की ज़रूरत है. आइए, हम उर्दू और हर भाषा से दोस्ती करें. न्यायालय ने यह भी कहा कि 2022 के महाराष्ट्र लोक प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम में उर्दू भाषा के उपयोग पर कोई प्रतिबंध नहीं है.

सिर्फ़ मराठी का उपयोग अनिवार्य है, लेकिन उसके साथ अन्य भाषा के उपयोग की मनाही नहीं है. यह याचिका क़ानून की ग़लत व्याख्या पर आधारित है, इसलिए इसे ख़ारिज किया जाता है.

इस मामले में एक तरफ़ उर्दू से नफ़रत करने वाली महिला है, तो दूसरी ओर महिला को फटकार लगाने वाले न्यायाधीश हैं, प्रशासन है. इस महिला की याचिका हर उस जगह से ख़ारिज कर दी गई, जहां-जहां वह यह मामला लेकर गई.

पाटुर नगर परिषद अपने प्रदेश की भाषा मराठी के साथ-साथ बोर्ड पर उर्दू भी लिखवा रही है. ज़ाहिर है कि परिषद के लोग ऐसा ही चाहते हैं, यानी बहुसंख्यक वर्ग उर्दू के पक्ष में है.

ऐसे में महज़ कुछ लोगों के उर्दू से नफ़रत करने से इस शीरी ज़बान का कुछ बुरा होने वाला नहीं है. हाँ, इतना ज़रूर हो सकता है कि इन नफ़रती लोगों की देखादेखी इन जैसी मानसिकता के कुछ और लोग भी उर्दू से नफ़रत करने लगें.    

पिछले कुछ बरसों में देश में उर्दू को लेकर बहुत से विवाद सामने आए हैं. इसकी वजह यह है कि एक विशेष वर्ग के लोग इसे सिर्फ़ मुसलमानों से जोड़कर देखते हैं. उनकी यह सोच उर्दू के प्रति नकारात्मक धारणाएं बना रही है.

उर्दू को ‘मुस्लिम’ और ‘विदेशी’ भाषा बताया जा रहा है. हालांकि यह बिल्कुल ग़लत है, क्योंकि उर्दू का जन्म भारत में ही हुआ है और यहीं से इसका विकास भी हुआ. भारत से ही यह भाषा दुनिया के कोने-कोने तक पहुंची है.

उर्दू के ख़िलाफ़ नफ़रत से उर्दू अख़बारों को कितना नुक़सान होगा, इस बारे में दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता है. उर्दू अख़बारों का अपना एक पाठक वर्ग है, जो पारम्परिक रूप से उर्दू भाषी है. उर्दू के ख़िलाफ़ कितनी ही नफ़रत फैलाई जाए, यह वर्ग उर्दू से हमेशा मुहब्बत करेगा.

 इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि उर्दू पढ़ने वालों में पुराने लोग ही ज़्यादा हैं. नई पीढ़ी उर्दू से दूर होती जा रही है. दिल्ली की शाइस्ता उर्दू अख़बार पढ़ती हैं.

उनके शौहर और ससुर भी उर्दू अख़बार पढ़ते थे. अब अपने घर में वह अकेली उर्दू अख़बार पढ़ने वाली बची हैं. उनके बच्चों को उर्दू नहीं आती. इसलिए घर में तीन अख़बार आते हैं, एक उर्दू का, एक हिन्दी का और एक अंग्रेज़ी का.   
     
ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ मुसलमान ही उर्दू अख़बार पढ़ते हैं. ग़ैर मुस्लिम भी उर्दू अख़बार पढ़ते हैं. पंजाब और हरियाणा में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज़्यादा है, लेकिन इन पाठकों की मौत के साथ ही इनके घरों में उर्दू अख़बार आने बंद हो जाते हैं.

हरियाणा के हिसार के रहने वाले विजय बताते हैं कि उनके पिता और दादा उर्दू अख़बार पढ़ते थे, लेकिन उनके इस दुनिया से जाने के बाद उनके घर में अब कोई उर्दू पढ़ने वाला नहीं बचा. उन्हें उर्दू बहुत अच्छी लगती है, लेकिन वह सीख नहीं पाए. अब उन्हें इस बात का मलाल है.     
      
उर्दू के पाठक बहुत कम हैं, इसलिए उर्दू अख़बारों की प्रसार संख्या भी सीमित है. उर्दू अख़बारों को विज्ञापन भी बहुत ही कम मिलते हैं. उर्दू के ख़िलाफ़ नफ़रत की वजह से देश के उर्दू अख़बारों को नुक़सान होने की आशंका जताई जा रही है.

ऐसा कहा जा रहा है कि विज्ञापनदाता उर्दू अख़बारों से दूरी बना सकते हैं. इन आशंकाओं के बीच संभावना यह भी है कि उर्दू अख़बार अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने पर ज़ोर दें. वे ख़ुद को पहले से ज़्यादा बेहतर बनाएं, डिजिटल युग में अपनी पहुंच बढ़ाएं और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इससे जोड़ें. ऐसी हालत में उर्दू अख़बारों का भला ही होगा.   
दरहक़ीक़त उर्दू अख़बारों को शुरू से ही संघर्ष का सामना करना पड़ा है. पहले ब्रिटिश शासनकाल में उर्दू अख़बारों को निशाना बनाया जाता था. इसके बावजूद उन्होंने 1857 की क्रांति में अहम किरदार निभाया.

आज़ादी के बाद उर्दू अख़बारों की अनदेखी की गई. इसलिए उर्दू अख़बारों को अपना वजूद क़ायम रखने के लिए शुरू से ही जद्दोजहद करनी पड़ी है. यह भी मुमकिन है कि नफ़रत के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया में उर्दू भाषी और उर्दू प्रेमी उठ खड़े हों.

(लेखिका शायरा, कहानीकार और पत्रकार हैं)