ईद-ए-गुलाबी यानि होली जमकर खेलते थे मुस्लिम बादशाह

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 29-03-2021
बादशाह अकबर हरम में होली खेलते हुए
बादशाह अकबर हरम में होली खेलते हुए

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

अबकी होरी पे भावों के तंतुओं को इस गीत ने झनझनाया है - होली आयी रे कन्हाई, रंग छलके, सुना दे जरा बांसरी. बरसे गुलाल-रंग, मोरे अंगनवा, हो मोरे अंगनवा. अपने ही रंग में रंग दे, मोहे सजनवा, ओ मोहे सजनवा, ... हो देखो नाचे मोरा मनवा. तोरे कारन घर से आई, हूं निकल के, सुना दे जरा बांसरी. यह गीत हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब की मुकम्मल तस्वीर बयां करता है. 1957 में आई ‘मदर इंडिया’ मूवी के इस गीत को लिखा शकील बदायुंनी ने है, संगीत नौशाद अली ने दिया है और मकबूल अदाकारा शमशाद बेगम पर इसे फिल्माया गया है. होली के प्रति मुसलमान भाईयों का इससे बड़ा अनुराग और कहां मिलेगा. होली का उल्लास, उच्चश्रृंखता और आनंद ही अजब निराला है कि जब रंग-रसिया की मस्ती में जाति-धर्म के बंधन गिर जाते हैं. होली का रंग जब उफान पर आता है, तो हिंदू, सिख, बौद्ध और क्या मुसलमान, इस हिंदुस्तानी जमीन पर सभी मस्ती में डूब जाते हैं. मुगलों और दूसरे नवाबों के दौर में तो होली को नए आयाम तक मिले. जब ये बादशाह होली पर बड़ी-बड़ी महफिलें सजाते थे, तो उनमें शहर का हर खास-ओ-आम शामिल हुआ करता था. इसमें सबसे ज्यादा तो नवाब वाजिद अली शाह और मुगल बादशाह अकबर की होली मशहूर हुई हैं. आज भले ही कुछ शत्रु देशों के एजेंडे को लागू करके बुरी ताकतों ने यहां की फिजां में जहर घोलने की कोशिश की हो, लेकिन यहां हिंदू और मुसलमानों के बीच ईद, दिवाली, होली और रक्षाबंधन सांझे तौर पर मनाने की पक्की और पुरानी रवायतें रही हैं.

नवाब वाजिद अली शाह की होली

होली और उसके रंग की शुरुआत बेशक हिंदू परंपरा से हुई हो, लेकिन कालांतर में भारत मूल के या भारत में आए मुस्लिमों ने भी डूबकर होली खेली है. लखनउआ संस्कृति को अपनी बुलंदियों तक पहुंचाने वाले नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में होली के खास इंतजाम हुआ करते थे. हौदों और नादों में रंग घुलता था. पिचाकारियों की फुहारें गिरती थी. अवध के नवाब वाजिद अली शाह की होली, श्याम और गोपिकाओं के बारे में हम किसी और से क्यों सुनें और मानें, जो नवाब की खुद की लिखी यह ठुमरी सब अहवाल कहती है - ‘मोरे कन्हैया जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूंगी डटके. उनके पीछे मैं चुपके से जाके, रंग दूंगी उन्हें भी लिपटके.’

नवाब वाजिद अली शाही मानवीय संबंधों के प्रति इतने संवेदनशील थे कि एक मर्तबा होली और मोहर्रम एक ही दिन पड़ गया. हिंदुओं ने फैसला किया कि हजरत हसन और हजरत हुसैन की याद में मोहर्रम पर मातम मनाया जाता है. इसलिए वे इस बार होली न खेलेंगे. जब इस फैसले का नवाब को पता चला, तो उन्होंने कहा कि इतने बड़े त्यौहार को रोके जाने की कोई तुक नहीं है. न केवल सब हिंदू होली खेलेंगे, वरन वे खुद इस होली में जरूर शरीक होंगे. होली जमके खिली और नवाब ने भी अवाम के साथ होली खेली.

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नवाब वाजिद अली शाह 


आसिफुद्दौला की होली

नवाब वाजिद अली शाह ही नहीं नवाब आसिफुद्दौला और नवाब सादात अली खान के जमाने में भी नवाब खुल के होली खेला करते थे. जब एक बार दिल्ली से लखनऊ आकर अजीम शायर मीर तकी मीर ने नवाब आसिफुद्दौला के वक्त होली का जो रंग देखा, तो वे इतने मुतासिर हुए कि उन्होंने उन दृश्यों की बुनियाद पर ‘साकी नाम होली’ काव्य की रचना कर दी - आओ साकी, शराब नोश करें. शोर-सा है, जहां में गोश करें. आओ साकी बहार फिर आई, होली में कितनी शादियां लाई. और आसिफुद्दौला के बारे में मीर ने लिखा - होली खेला आसिफुद्दौला वजीर, रंग सोहबत से अजब हैं खुर्दोपीर.

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नवाब आसिफुदौला 


बसंत पंचमी से होती थी शुरुआत

होली का खुमार तो बसंत पंचमी से ही चढ़ना शुरू हो जाता है. इसमें सूफी संतों का योगदान तो आसमानी है. चाहे निजामुद्दीन औलिया या अजमेर की दरगाह हो या फिर बरेली, सब जगह दरगाहों पर बसंत पंचमी पर खास त्यौहार मनाया जाता है और सूफी कलाम गाए-सुने जाते हैं. सूफियों की इस पंरपरा को मुगलबादशाहों ने नई रवानी दी. दिल्ली का हो या आगरे का, लाल किल में जमके होली होती रही है. दिल्ली के लालकिले के पीछे यमुना के किनारे तो होली पर मेला ही जुटता था. दिल्ली और आगरा के लाल किलों में आब-ए-पाशी ( फूलों की बारिश) होती. टेसू और ढाक के अलावा अन्य फूलों से बने रंगीन पानी को भरकर पिचकारियों से चलाया जाता और बादशाह अकबर के समय में होली की रंगत शबाब पर पहुंची है.

अकबर की होली

इतिहासकार मुंशी जकीउल्लाह ने तो अपनी किताब ‘तारीख-ए-हिंदुस्तानी’ में इतना बड़ा तंज किया है- ‘कौन कहता है, होली हिंदुओं का त्योहार है.’ जकीउल्लाह लिखते हैं कि बादशाह बाबर हिंदुओं को होली खेलते देखा कि हिंदू एक-दूसरे को रंगों से भरे हौदों में पटक रहे हैं. बाबर पे इतनी मस्ती छाई कि उसने अपने बाथ टब को शराब से भरवा दिया और उसमें नहाया. उसके पौत्र जलालुद्दीन अकबर के दौर में महल में फूलों से बने रंग को हौदों और नादों में घोला जाता था. फब्बारों से भी रंगीन पानी निकलता था. टेसू और ढाक आदि फूलों को उबाल कर रंग बनाया जाता. उसमें केवड़ा और दूसरे इत्र मिलाए जाते.

अकबर खुद रूह (गुलाब जल) से होली खेलते थे. वे होली वाले दिन महल में रानियों संग होली खेलकर महल से बाहर भी आते थे और आम लोगों के साथ भी होली खेलते थे. शाम को महफिल सजती थी, जिसमें अकबर रसिया सुना करते थे और कवियों को इनामो-इकराम दिया करते थे. ढप, झांझ और नफीरी के साजिंदेे अपने हुनर और फन दिखाते. दीगर राजा भी अकबर को होली मुबारक कहने आते थे.

साल भर की तैयारियां

अबुल फजल ने आईन-ए-अकबरी में लिखा है कि अकबर को होली खेलने का इतना बड़ा शौक था कि वे सारे साल इसकी तैयारी करते थे. वे रंगों को एकत्रित करवाते थे और ऐसी पिचकारियों की इजाद करवाते थे, जिनसे दूर तलक रंग फेंका जा सके. इतिहासकारों ने अकबर की होली को बेमिसाल करार दिया है. केवल औरंगजेब को छोड़कर सभी मुगल बादशाहों के होली खेलने का जिक्र मिलता है. तुजुक-ए-जहांगीर में जहांगीर (1569-1627) ने लिखा है कि हिंदू वर्ष के अखिरी महीने फागुन में हिंदू एक दिन पहले शाम को होली जलाते हैं और फिर रंग, गुलाल और अबीर से हर गली-कूचे में अगले दिन होली खेली जाती है. जहांगीर खुद रानियों संग होली खेलते थे और होली की संगीत सभाओं में जरूर शिरकत करते थे और होली के हुड़दंग को महल के झरोखों से देख-देख लुत्फ उठाया करते थे.

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बादशाह जहांगीर रानियों संग होली खेलते हुए 


जफर के बाद रंग फीका हुआ

अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के समय अंग्रेजों ने कोहराम मचा रखा था, लेकिन फिर भी वे होली खेलते थे. उन्होंने तो होली को शाही-जश्न का रुतबा करार दिया था. उनके नगमों में फाग का गहरा असर दिखाई पड़ता है- ‘क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी...’. मुगलों के बाद अंग्रेजों को इस देश के त्यौहारों से कोई ताल्लुक न था. वे तो बस लूट-खसोट में मसरूफ रहते थे. इसलिए हिंदुओं और मुसलमानों की होली रंग धीरे-धीरे फीका पड़ता गया. हालांकि कई शहरों में अब भी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच होली का रंग अपनी रंगत में देखने को मिल जाता है.

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बादशाह मोहम्मद शाह होली खेलते हुए 

 

और आखिर में, सूफी संत बुल्ले-शाह ने होली की बिस्मिल्लाह इस तरह से की. मुलाहिज़ा कीजिए:

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नाम नबी की रतन चढ़ी,

बूंद पड़ी इल्लल्लाह

रंग-रंगीली उही खिलावे,

जो सखी होवे फना-फी-अल्लाह

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले,

सब सखियों ने घूंघट खोले

कालू बला ही यूं कर बोले,

ला-इलाहा-इल्लल्लाह

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नह्नो-अकरब की बंसी बजायी,

मन अरफा नफ्सहू की कूक सुनायी

फसुम-वजहिल्लाह की धूम मचाई,

विच दरबार रसूल-अल्लाह

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

हाथ जोड़ कर पाऊं पडूंगी

आजिज होंकर बिनी करुंगी

झगडा कर भर झोली लूंगी,

नूर मोहम्मद सल्लल्लाह

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

फज अज्कुरनी होरी बताऊं,

वाश्करुली पीया को रिझाऊं

ऐसे पिया के मैं बल जाऊं,

कैसा पिया सुब्हान-अल्लाह

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

सिबगतुल्लाह की भर पिचकारी,

अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी

नूर नबी ख्स, डा हक से जारी,

नूर मोहम्मद सल्लल्लाह

बुला शाह दी धूम मची है,

ला-इलाहा-इल्लल्लाह

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह