अभिषेक सिंह
दिवाली, जिसे रौशनी का त्योहार भी कहा जाता है, का जश्न मुगल काल के दौरान बेहद खास तरीके से मनाया जाता था. इस समय इसे “जश्न-ए-चिरागां” या “रौशनी का त्योहार” के नाम से पुकारा जाता था . यह केवल एक धार्मिक उत्सव तक सीमित नहीं था, बल्कि इसे एक भव्य सांस्कृतिक उत्सव के रूप में सभी धर्मों के लोग मिलकर मनाते थे.
लाल किले में भव्य दिवाली की तैयारियां और रंग महल की सजावट
दिल्ली के लाल किले में “जश्न-ए-चिरागां” का केंद्र बिंदु रंग महल होता था, जहाँ पर त्योहार की सजावट और आतिशबाजी का आयोजन होता. इस महल को चिरागदानों, झूमरों और फानूस से सजा दिया जाता था, जो पूरे किले को रौशन कर देते थे.
मुगल सम्राट की देखरेख में यह तैयारियां एक महीने पहले से शुरू हो जाती थीं. इसके लिए आगरा, मथुरा, भोपाल और लखनऊ जैसे स्थानों से सबसे बेहतरीन हलवाई बुलाए जाते थे, जो देसी घी से मिठाइयाँ और विशेष व्यंजन बनाते थे. आतिशबाजी का शानदार प्रदर्शन भी इसी समय होता था, जो किले के चारों ओर बिखरी रंग-बिरंगी रोशनी से आसमान को जगमगा देता था.
शाही दीपक और आकाश दीया की शुरुआत
मुगल सम्राट शाहजहाँ ने दिल्ली में शाही दिवाली का आयोजन विशेष तौर पर शुरू किया था. दिल्ली स्थानांतरित होने के बाद, उन्होंने लाल किले में एक विशाल दीपक, जिसे “आकाश दीया” कहा जाता था, जलाने की परंपरा शुरू की.
यह दीपक 40 गज ऊंचे एक विशेष खंभे पर रखा जाता था, और इसकी रोशनी न केवल किले को बल्कि चांदनी चौक तक का इलाका भी चमकाने में सक्षम थी. इस दीपक में लगभग 100 किलोग्राम से अधिक कपास के बीज का तेल या सरसों का तेल डाला जाता था, और इसे जलाने के लिए बड़ी-बड़ी सीढ़ियों का उपयोग किया जाता था.
चांदनी चौक में सामुदायिक सद्भाव का प्रतीक
दिवाली के इस शाही उत्सव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पुरानी दिल्ली के सभी समुदायों का एकजुट होना था. किले के आसपास के सभी रईस और व्यापारी अपनी हवेलियों को मिट्टी के दीयों से सजाते थे. इसके अतिरिक्त, चांदनी चौक के हिंदू परिवार नहर पर दीये रखते थे, जिससे पूरी चांदनी चौक रोशनी में नहाई हुई प्रतीत होती थी.
इस आयोजन में सिख समुदाय गुरुद्वारा सीसगंज से तेल का योगदान करता था, वहीं मुसलमान कपास (बत्ती) का प्रबंध करते थे। ओम प्रकाश, जो चांदनी चौक के निवासी हैं, बताते हैं कि उनके बुजुर्गों से उन्होंने सुना है कि चांदनी चौक से लेकर फ़तेहपुरी मस्जिद तक का पूरा इलाका पानी में दीयों की लौ के प्रतिबिंब से झिलमिलाता रहता था.
शाही किले में लक्ष्मी पूजन और आतिशबाजी का नजारा
अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के समय में लाल किले में दिवाली का आयोजन अत्यधिक भव्यता के साथ होता था. खासतौर पर लक्ष्मी पूजन का आयोजन किया जाता था, जिसके लिए पूजा सामग्री चांदनी चौक के कटरा नील से मंगवाई जाती थी.
साथ ही जामा मस्जिद के पीछे के पाइवालान क्षेत्र से आतिशबाजी के लिए पटाखे भी मंगवाए जाते थे. खील, खांड, बताशे, खीर और मेवे की मिठाइयाँ विशेष रूप से तैयार की जाती थीं. इसे किले में आम लोगों और कुलीनों के बीच वितरित किया जाता था.
लोगों की भारी भीड़ किले के बाहर मैदान में जमा होकर भव्य आतिशबाजी का आनंद लेती थी. फिरोज बख्त अहमद के अनुसार, शाहजहाँ अपनी रानियों और राजकुमारों को महरौली भेजते थे ताकि वे कुतुब मीनार से आतिशबाजी देख सकें.
सामुदायिक एकता की मिसाल
इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब “द लास्ट मुगल: द फॉल ऑफ दिल्ली, 1857” में बहादुर शाह जफर के समय को साम्प्रदायिक सद्भाव का एक अद्वितीय उदाहरण बताया है. दिवाली के समय जफर खुद को सात प्रकार के अनाज, सोना, मूंगा आदि से तौलते थे और इस सामग्री को गरीबों के बीच बांटने का आदेश देते थे.
इसके अलावा, उन्होंने हिंदू अधिकारियों को विशेष अवसरों पर उपहार भेजने की परंपरा बनाई, जिससे सभी समुदायों के बीच आपसी भाईचारे और सौहार्द का संदेश मिलता था. शाहजहानाबाद के पुराने निवासियों के अनुसार, त्योहार के समय मुस्लिम पड़ोसियों को मिठाई, खील-बताशे और पटाखों से भरी थालियाँ भेजना एक परंपरा थी.
महिलाओं की भूमिका और मिठाइयों का आदान-प्रदान
इस उत्सव में महिलाओं की भी अहम भूमिका होती थी. उत्सव की तैयारियाँ एक महीने पहले ही शुरू हो जाती थीं, जिसमें घरों में मिठाइयाँ बनाई जाती थीं. नारियल की बर्फी, बेसन और मूंग के लड्डू पहले से बनाकर रिश्तेदारों और दोस्तों में वितरित किए जाते थे. यह आदान-प्रदान भी साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक था, जिसमें सभी धर्मों के लोग समान उत्साह के साथ भाग लेते थे.
दिवाली और मुगल साम्राज्य का साम्प्रदायिक सद्भाव
मुगल सम्राटों के दौरान दिवाली का यह शाही उत्सव न केवल एक त्योहार बल्कि सभी धर्मों के लोगों के बीच साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक बन गया था. शाहजहाँ से लेकर बहादुर शाह जफर तक, हर शासक ने दिवाली को एक ऐसे अवसर के रूप में अपनाया जो साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देता था.
इस भव्यता और उदारता के साथ मनाए गए त्योहार ने यह साबित किया कि दिवाली केवल हिंदू त्योहार न होकर संपूर्ण समाज का उत्सव था, जिसमें मुगलों का योगदान और सहभागिता इस समृद्ध विरासत को जीवित रखने में महत्वपूर्ण रही.इस प्रकार, मुगल काल में दिवाली केवल रोशनी का त्योहार नहीं, बल्कि साम्प्रदायिक सद्भाव और सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक भी था.