मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली
फरवरी महीने के आखिरी दिन शुक्रवार को जिस वक्त दिल्ली बारिश में सराबोर हो रही थी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के मल्टीपर्पस में उर्दू और हिंदी में अनुवाद से पहले साहित्य के लिप्यांतरण का मुद्दा उठाने वाले तसनीफ़ हैदर की बात पर लोग एक अलग किस्म के जोश और गरमाहट से भर गए. हिंदी और उर्दू के बीच लिपि के झीने लेकिन बेहद मजबूत परदे का जिक्र करते हुए हैदर ने कहा, “फणीश्वरनाथ रेणु, ओमप्रकाश वाल्मीकि और मन्नू भंडारी जैसे कुछ लेखक हमारे (उर्दूवालों) लिए अनजान ही रहे. यहां तक कि हम उन तक भी देर से पहुंचे जो हमारी कहानियां लिख रहे थे.
शामी, राही मासूम रज़ा, बदीउज्जमां और मंज़ूर एहतेशाम जैसे नाम हमारे पसंदीदा लेखकों की फेहरिस्त से बहुत अरसे तक गायब रहे. यह बहुत हैरानी का बात नहीं है क्योंकि आजादी के बाद से लेकर अबतक हमने अपनी संस्कृति के जितने भी जितने भी पन्ने हमने लिखे और पढ़े है उनमें जानबूझकर एकदूसरे से अलग दिखाने और खुद को श्रेष्ठ बताने के लिए अपनों को अपनों से दूर रखने का एक इल्मी और किताबी तरीका ढूंढ निकाला गया.”
तसनीफ़ हैदर उन तीन युवा रचनाकारों में से थे, जिन्हें राजकमल प्रकाशन की 80वीं वर्षगांठ के सहयात्रा उत्सव में ‘भविष्य के स्वर’ नाम के आयोजन में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था. अन्य दो वक्ताओं में ज़ीन मेकिंग और फाइबर आर्ट की कलाकार कोशी ब्रह्मात्मज और रंगकर्मी और लेखक फहीम अहमद शामिल थे.
‘अदबी दुनिया’ नाम से उर्दू साहित्य का ब्लॉग चलाने वाले और इसी नाम से यूट्यूब पर चैनल चलाने वाले हैदर ने हिंदी और उर्दू के ठसक भरे अलगाव पर कहा, “कभी बहुत दूर बैठा इतिहास का कोई छात्र हमारी लुटी हुई जबानो-तहजीब को ठीक से खंगालेगा तो क्या अपनी हंसी रोक पाएगा? क्या वह नहीं सोचेगा कि लिपि का एक बारीक परदा टांगकर अंग्रेज और चंद चलताऊं किस्म के सियासी बाजीगरों के हाथों हम कैसे बेवकूफ बनाए गए?”
हैदर ने अपने लिखित संबोधन में कहा कि हमलोग चाहते हैं कि हमारे लिखने वालों को दुनिया की अज़ीम ज़बानों के अदब के लिखने वालों जैसा समझा जाए. हम अपनी ही जबान के एक बड़े से सरमाए से सिर्फ इसलिए महरूम है क्योंकि इधर के लोगों को उधर के लोगों की लिपि पढ़नी नहीं आती. लिपि की समस्या हमसे सुलझाई नहीं जा सकी और हम इसे झीने जैसी पतली दिखने वाली दीवार को क बड़ी रुकावट मानकर अपनी खोखली तहजीबों को जिंदाबाद कहते रहे.
क्या हो सकता था, कि एक उर्दू लिखने वाला यह जानता कि वह जो लिख रहा है वह तुरंत ही देवनागरी लिपि का लबादा ओढ़कर हिंदी के बड़े पाठक वर्ग तक पहुंच जाएगा. और क्या होता जब हिंदी के लिखने वाले को पता होता कि उसका लिखा सरहद के इधर और उधर रहने वाले बहुत से उर्दू के पाठक पढ़ लेते. तब क्या वह अपने लेखन के प्रति और अधिक जिम्मेदार, हस्सास और संजीदा नहीं होते?
उन्होंने कहा कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हिंदी के भव्य कार्यक्रम कराने वाली संस्थाएं कि कुछ लोगों को उर्दू हिंदी में लिखी जा रही कविताओं, कहानियों, इतिहास और दर्शन की किताबों का तबादला कराने के काम पर लगा दे. हिंदी में उर्दू का बहुत सा सरमाया इसम मामूली मेहनत और इच्छाशक्ति के न होने की वजह से अब तक नहीं पहुंच पाया है.
भविष्य के स्वर में शामिल दो अन्य वक्ताओं में कोशी ब्रह्मात्मज क्रोशिया, बुक मेकिंग, एंब्रॉयडरी और टेक्सटाइल्स में नए प्रयोग कर रही हैं. कोशी का काम मुंबई अर्बन आर्ट फेस्टिवल, क्वियर सर्कस (लंदन) और ब्लैंक गैरली (टोक्यो) में प्रदर्शित हो चुकी हैं.
फहीम अहमद रंगकर्मी और कहानीकार हैं और कई नाटकों का निर्देशन कर चुके हैं.
वह लोबान नाम का थिएटर प्लेटफॉर्म चला रहे हैं जिसके तहत कहानी कहने की कला, शिक्षा में थियेटर के महत्व और कैपिस्टी बिल्डिंग की कार्यशालाएं की जाती हैं.
बहरहाल, आयोजन में उर्दू और हिंदी के बीच पुल बनाने की बात दर्शकों के बीच चर्चा का विषय रही और इस बात से अधिकतर लोग सहमत दिखे कि लिप्यंतरण से ही आधी समस्या का हल निकल सकता है. आखिर, जो लोग गालिब और मीर को बिना अनुवाद के ही पढ़ और समझ सकते हैं तो बाकी के साहित्य के अनुवाद की क्या जरूरत है!