Birthday: One Saadat Hasan Manto lived in Bombay, the other in Lahore.
-ज़ाहिद ख़ान
हिन्दी—उर्दू अफ़साना निगारी में सआदत हसन मंटो की हैसियत, एक मील के पत्थर की—सी है. जिसे छूने की हर अफ़साना निगार की कोशिश होती है, लेकिन यह हसरत पूरी नहीं हो पाती.मंटो को इस दुनिया से गुज़रे एक लंबा अरसा हो गया, लेकिन दूसरा मंटो पैदा नहीं हुआ. आज भी उनका लेखन, नये लिखनेवालों को प्रेरणा देता है. ग़ालिबन आगे भी देता रहेगा.
11 मई, 1912 को अविभाजित भारत के लुधियाना जिले के क़स्बा सम्बराला में जन्मे मंटो की इब्तिदाई तालीम लुधियाना और अमृतसर में हुई. आला तालीम अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से मुकम्मल की. पढ़ाई के तुरंत बाद वे सहाफ़त के मैदान में आ गए. ‘मुसावात’ वह रोज़नामा था, जिससे मंटो ने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत की.
आगे चलकर वे और भी मशहूर अख़बार और मैगज़ीनों से जुड़े रहे. मज़ामीन, अफ़सानों के प्रकाशन से लेकर उन्होंने उन अख़बार-मैगज़ीन की एडिटिंग भी की. मंटो ने अपनी अदबी ज़िंदगी की इब्तिदा रूसी और फ्रांसीसी अदीबों के अदब के तर्जुमों से की. जिनकी शैली और अंदाज़-ए-फ़िक्र उनकी शुरुआती तहरीरों में नुमायां है.
उन्होंने उस वक़्त ‘हुमायूँ’ का ‘फ्रांसीसी नंबर’ और ‘आलमगीर’ के ‘रूसी अदब नंबर’ का संपादन भी किया. यही नहीं ऑस्कर वाइल्ड के ज़ब्तशुदा ड्रामे ‘वीरा’ और विक्टर ह्युगो की किताब ‘द लास्ट डेज़ आफ़ ए कंडेम्ड’ का ‘सरगुज़श्त-ए-असीर’ के नाम से उर्दू ज़बान में तर्जुमा किया. ‘सरगुज़श्त-ए-असीर’ ही मंटो की पहली किताब है.
मंटो अपनी नौजवानी से ही रूसी और चीनी अदब के परस्तार थे. लेकिन थोड़े ही अरसे के बाद, उन्होंने अपना एक ख़ास लेखन स्टाइल बना लिया. ‘तमाशा’ मंटो का पहला अफ़साना था, जो ‘ख़ुल्क़’ में शाए हुआ.
बारी अलीग इसके संपादक थे. मंटो के इब्तिदाई अफ़साने ‘शू शू’, ‘ख़ुशिया’, ‘दीवाली के दिये’ फ़िल्मी हफ़्तावार अख़बार ‘मुसव्विर’ में शाए हुए, जो कि मुंबई से निकलता था. आगे चलकर उन्होंने ‘मुसव्विर’ का संपादन भी संभाला. ‘साक़ी’, ‘नुक़ूश’, ‘अदब-ए-लतीफ़’ और ‘एहसास’ वे अदबी रिसाले हैं, जिनमें मंटो के अफ़साने और मज़ामीन अहमियत के साथ शाए होते थे.
मंटो ने दो सौ से ज़्यादा कहानियां लिखीं. व्यक्ति चित्र, संस्मरण, फ़िल्मों की स्क्रिप्ट और डायलॉग, रेडियो के लिए ढेरों नाटक और एकांकी, पत्र, कई पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लिखे, पत्रकारिता की. मंटो ने ‘ऑल इंडिया रेडियो’, नई दिल्ली में भी काम किया. जहां वे स्क्रिप्ट राइटर मुकर्रर किए गए थे.
उन्होंने फ़ीचर के अलावा सौ से ज़्यादा ड्रामे लिखे. ड्रामा लिखने पर, तो जैसे उन्हें महारथ ही हासिल थी. कोई भी विषय हो, वे उस पर फटाफट ड्रामा लिख देते. ड्रामा लिखने की उनकी रफ़्तार का आलम यह था कि महीने में तीस-चालीस ड्रामे और फ़ीचर तक लिख देते थे.
उस ज़माने में जब ज़्यादातर अदीब लेखन के लिए काग़ज़-क़लम का इस्तेमाल करते थे, मंटो ने सीधे टाइपराइटर पर अपना अदबी लेखन किया. इस बात को तस्लीम कर लेने में कोई हर्ज नहीं कि उनके इन ड्रामों से उर्दू अदब में मॉडर्न ड्रामों का आग़ाज़ हुआ.
नाटक का स्वरूप बदला। लेकिन मंटो अपने शाहकार अफ़सानों ‘नया क़ानून’, ‘हतक’, ‘बाबू गोपीनाथ’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘मोजे़ल’, ‘टोबा टेकसिंह’, ‘खोल दो’ के लिए ही जाने जाते हैं। मंटो के अफ़सानों का यदि अध्ययन करें, तो उनकी कहानियों के किरदार, हक़ीक़त निगारी में गोर्की के ‘द लोअर डेप्थ्स’ के किरदारों की याद दिलाते हैं.
‘चुग़द’ कहानी संग्रह के मुख़्तसर दीबाचे (भूमिका) में मशहूर शायर अली सरदार जाफ़री ने मंटो के अफ़सानों पर अपनी बेबाक राय देते हुए कहा है, ‘मंटो की अफ़साना निगारी हिंदुस्तान के दरमियानी तबके़ के मुजरिम ज़मीर की फ़रियाद है, इसलिए मंटो उर्दू अदब का सबसे ज़्यादा बदनाम अफ़साना निगार है.
वह बदनामी जो मंटो को नसीब हुई है, मक़बूलियत और शुहरत की तरह सिर्फ़ कोशिश से हासिल नहीं की जा सकती. इसके लिए फ़नकार में असली जौहर होना चाहिए. और मंटो का जौहर उसके क़लम की नोक पर नगीने की तरह चमकता है. मंटो ने उन किरदारों की तस्वीर-कशी (चित्रण) की है, जिनसे सरमायादारी निज़ाम ने उनकी इंसानियत छीन ली है.’
मंटो पर अपनी कहानियों में अश्लीलता बरतने और नग्नता चित्रण के इल्ज़ाम भी लगे. उनके अफ़सानों ‘काली सलवार’, ‘बू’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘ऊपर नीचे और दरमियान’ और ‘धुआं’ के ख़िलाफ़ भारत और पाकिस्तान की अदालतों में मुक़दमे चले.
यह बात अलग है कि बाद में वे इन इल्ज़ामों से ज़्यादातर में बरी हुए. उनके मुख़ालिफ़ीन अदालत में लाख कोशिशों के बावजूद उन पर यह घटिया इल्ज़ाम साबित न कर सके. साल 1934 से 1947 तक यानी इन चौदह बरसों में मंटो ने उनहत्तर अफ़साने लिखे, तो पाकिस्तान जाने के बाद साल 1948 से 1955 तक उन्होंने एक सौ इकसठ अफ़साने लिखे. ‘आतिशपारे’, ‘मंटो के अफ़साने’, ‘धुआँ’, ‘चुग़द’, ‘लज़्ज़त-ए-संग’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘यज़ीद’, ‘नमरूद की ख़ुदाई’, ‘फुँदने’ मंटो के अहम कहानी-संग्रह हैं। किताब ‘सियाह हाशिए’ में मंटो ने कहीं व्यंग्यात्मक, तो कहीं तल्ख़ अंदाज़ में साल 1947 में मुल्क के अंदर हुए फ़िरक़ावाराना फ़साद की दरिंदगी बयान की है.
बंटवारे के दौरान इंसान किस क़दर वहशी हो गया था, अपने छोटे-छोटे बत्तीस अफ़सानों, जिन्हें अफ़सानचों कहना दुरुस्त होगा, में दर्ज किया है. उनके यह अफ़साने आज भी पढ़नेवालों के दिल-ओ-दिमाग़ पर गहरा असर करते हैं. वे कुछ सोचने को मजबूर हो जाते हैं. प्रेमचंद के बाद मंटो पहले ऐसे अदीब हैं, जो अदब से फ़िल्म की तरफ़ गए.
सच बात तो यह है कि उनकी अदबी शोहरत, फ़िल्मी ज़िंदगी के बाद शुरू हुई. लेकिन मंटो फ़िल्म से फिर वापस अदब की तरफ़ लौटे और उन्होंने कई शाहकार कहानियां लिखीं. मंटो ने अदबी मैदान में पूरी तरह उतरने से पहले मुंबई में फ़िल्म कंपनियों ‘इम्पीरियल’, ‘सरोज’, ‘हिंदुस्तान सिने टोन’, ‘फिल्मिस्तान स्टुडियो’ और ‘बॉम्बे टॉकीज़’ में नौकरी की। इन फ़िल्म कंपनियों या स्टुडियो के लिए स्टोरी, स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखे.
फ़िल्म पत्रकारिता की। मंटो ने फ़िल्म ‘कीचड़’, ‘नौकर’, ‘बेगम’ की कहानी, स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखे, तो उस दौर की मशहूर फ़िल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ की स्टोरी भी मंटो ही की धारदार क़लम से निकली थी. उन्होंने कृश्न चंदर के साथ मिलकर एक फ़िल्म ‘बंजारा’ की कहानी लिखी.
मंटो ने एक फ़िल्म ‘आठ दिन’ में राजा मेहदी अली ख़ाँ और उपेन्द्रनाश अश्क के साथ एक्टिंग भी की. फ़िल्मी दुनिया में मंटो की दोस्ती का दायरा काफ़ी बड़ा था। अशोक कुमार, श्याम, एस. मुखर्जी, राजा मेहदी अली ख़ॉं, के. आसिफ़, रफ़ीक़ ग़ज़नवी, शाहिद लतीफ़ और बाबूराव पटेल से मंटो का अच्छा ख़ासा याराना था.
आगा हश्र काश्मीरी, अशोक कुमार, नूरजहाँ, नसीम बानो, नरगिस, सितारा देवी, नवाब काश्मीरी, इस्मत चुग़ताई और श्याम वगैरह के तो उन्होंने अपनी ज़िंदगी में शानदार ख़ाके भी लिखे. यह सब ख़ाके ‘गंजे फ़रिश्ते’ किताब में संकलित हैं.
मंटो भारत छोड़कर, पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे. लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ा. पाकिस्तान जाने का चुनाव मंटो का ख़ुद का नहीं था. बंटवारे के बाद मचे हंगामे और अफ़रा-तफ़री में उनकी बीवी सफ़िया और बेटियां पाकिस्तान चली गईं. और वहीं की होकर रह गईं.
मजबूरन मंटो को भी पाकिस्तान जाना पड़ा. उनके पाकिस्तान जाने के पीछे तरह-तरह के क़िस्से प्रचलित हैं। लेकिन मंटो पाकिस्तान क्यों गए ?, इस पूरे वाक़िए को ड्रामा निगार बलवंत गार्गी ने मंटो पर केन्द्रित अपने एक दिलचस्प ख़ाके में बयां किया है.
जब उन्होंने मंटो से इस बारे में उनकी कैफ़ियत पूछीं, तो उनका जवाब था-‘मेरे दोस्त पूछते हैं कि मैं पाकिस्तान क्यों जा रहा हूं ? क्या मैं डरपोक हूं ? मुसलमान हूं ? मगर वो मेरे दिल की बात नहीं समझ सकते. मैं पाकिस्तान जा रहा हूं. ताकि वहां एक मंटो हो. जो वहां की सियासी हरामज़दगियों का पर्दाफ़ाश कर सके.
हिंदुस्तान में उर्दू का मुस्तक़बिल ख़राब है. अभी से हिंदी छा रही है. मैं लिखना चाहता हूं, तो उर्दू में ही लिख सकता हूं. छपना चाहता हूं, ताकि हज़ारों तक पहुंच सकूं. ज़बान की अपनी मंतक़ (तर्कशास्त्र) होती है. कई बार जुबान ख़यालात भी होती है.
उसका तअल्लुक़ लहू से है. एक मंटो बंबई में रहा, दूसरा लाहौर में होगा.’ मंटो पाकिस्तान चले गए, पर उनका दिल हिन्दुस्तान में ही रहा. अमरीकी राष्ट्रपति ‘चचा साम’ के नाम लिखे, अपने पहले ख़त में मंटो ने अपने दिल का दर्द कुछ इस तरह बयां किया है, ‘मेरा मुल्क कटकर आज़ाद हुआ, उसी तरह मैं कटकर आज़ाद हुआ और चचाजान, यह बात तो आप जैसे हमादान आलिम (सर्वगुण संपन्न) से छिपी हुई नहीं होना चाहिए कि जिस परिंदे को पर काटकर आज़ाद किया जाएगा, उसकी आज़ादी कैसी होगी ?’ (पेज-319, पहला ख़त, सआदत हसन मंटो-दस्तावेज़ 4)
बहरहाल, लाहौर में जाकर मंटो ने बेशुमार कहानियां लिखीं. ज़रूरत होती, तो वे एक दिन में दो-दो कहानियां भी लिख लेते. लेखन ही से उनके घर का गुज़ारा होता था. इसके अलावा वो और कोई काम कर भी नहीं सकते थे. उन्होंने अपने लेखन-से पाकिस्तानी हुकूमत-से सीधे टक्कर ली, मज़हबी कट्टरपंथियों और फ़िरक़ापरस्तों के ख़िलाफ़ जमकर लिखा.
अमरीका के राष्ट्रपति के नाम ख़ुतूत लिखे, जिनमें शिद्दत की तंज़ थी. मंटो निडर और बाग़ी तबीयत के मालिक थे. समाज के झूठ और दोगलेपन को वे ज़रा भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. पाकिस्तान जाने के बाद, मंटो सिर्फ़ सात साल और ज़िंदा रहे. 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में उनका इंतिक़ाल हो गया.
मंटो जिस्मानी तौर पर भले ही पाकिस्तान चले गए, मगर उनकी रूह हिंदोस्तान के ही फ़िल्मी और अदबी हल्के में भटकती रही. मंटो का लिखा उनकी मौत के छह दशक बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के ज़ेहन में ज़िंदा है.