सेराज अनवर/पटना
दरगाह फ़ारसी शब्द है.जिसे अक्सर किसी प्रतिष्ठित सूफी-संत, पीर, वली या दरवेशकी कब्र को केन्द्रित कर बनाया जाता है.भारत में सूफ़िज़्म की उत्पत्ति इसी दरगाह से माना जाती है.सूफी मत यहीं से फैला.दरगाह में मजहब के मायने बदल जाते हैं.यहां आने वाले हर शख्स को इंसानियत,भाईचारा और मोहब्बत की शिक्षा मिलती है और यही वजह है कि दरगाहों को साम्प्रदायिक सद्भाव के रूप में पहचान मिली.यहां आकर धर्म की दीवार टूट जाती है.क्या हिन्दू,क्या मुसलमान बिना धार्मिक भेदभाव के दरगाहों में मत्था टेकते हैं और उनकी मुरादें पुरी होती है.
बिहार में प्राचीन इतिहास को समेटे कई दरगाहें हैं.जो अपने निर्माण,संस्कृति,मुराद,मन्नतें,साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए मशहूर हैं.बिहार देश का इकलौता राज्य है जहां जहानाबाद स्थित बीबी कमालो को देश की पहली महिला सूफी संत होने का गौरव हासिल है.तो भागलपुर स्थित मांगन शाह की दरगाह इसलिए मिसाल है कि यहां पहली चादर हिंदू चढ़ाते हैं.
भारत की साझी संस्कृति की नजीर देखनी हो तो गया जिले के केंदुई गांव चले आएं.यहां एक मुस्लिम फकीर की दरगाह को हिन्दू देखभाल करते हैं. मनेर शरीफ दरग़ाह की दास्तान भी कम आश्चर्यजनक नहीं है.कुल मिलाकर दिल्ली हजरत निजामुद्दीन, बदायूँ, अजमेर शरीफ, देवा शरीफ और जौनपुर की भांति बिहार भी दरगाहों ने मानवता की सेवा में महती भूमिका निभायी है और यह सिलसिला निरंतर परवान चढ़ रही है.
प्रस्तुत है ऐसी ही दरगाहों की दास्तान-:
बीबी कमालो
जहानाबाद-एकंगर सराय राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-110 पर प्रखंड मुख्यालय पर अवस्थित हजरत बीबी कमाल के मजार का काफी पुराना इतिहास है. पिछले चार साल से प्रतिवर्ष इस मजार पर सूफी महोत्सव का आयोजन हो रहा है.
सरकार ने इसे सूफी सर्किट का दर्जा दिया है. लोगों का कहना है कि वर्ष 1174 में बीबी कमाल अपनी बेटी दौलती बीबी के साथ काको आई थी.यहां आने के बाद से ही वह काको की ही रह गई. बीबी कमाल बिहारशरीफ के हजरत मखदुम शर्फुद्दीन बिहारी याहिया की काकी थी .
देश की पहली महिला सूफी संत होने का गौरव भी इन्हीं को प्राप्त है.फिरोजशाह तुगलक जैसे बादशाह ने भी बीबी कमाल को महान साध्वी के तौर पर अलंकृत किया था.उनके मजार पर शेरशाह तथा जहांआरा जैसे मुगल शासकों ने भी चादरपोशी कर दुआएं मांगी थी.
बीबी कमाल के मजार पर आज भी लोग रूहानी ईलाज के लिए आते हैं और मन्नत मांगते हैं. जनानखाना से दरगाह शरीफ के अंदर लगे काले रंग के पत्थर को कड़ाह कहा जाता है.जहानाबाद निवासी मेराज आलम गुड्डु के अनुसार यहां जो लोग सच्चे मन से मन्नत मांगते हैं उनकी मुरादें पूरी होती हैं.वैसे मानसिक रूप से ग्रसित लोग भी यहां आते हैं.
लोगों की ऐसी मान्यता है कि इस मजार में काफी शक्ति है.दरगाह के अंदर दरवाजे के समीप सफेद व काले पत्थर पर लोग अंगुली को घिसकर आंख पर लगाते हैं तो उसकी रौशनी बढ़ जाती है. इस मजार के समीप एक अतिप्राचीन कुंआ भी है.
मानना है कि इस कुएं के पानी का उपयोग कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिए फिरोज शाह तुगलक ने किया था.हजरत बीबी कमाल के दरगाह की चर्चा आइने अकबरी में भी की गई है.उनका मूल नाम मकदुमा बीबी हटिया उर्फ बीबी कमाल है और बीबी कमालो है.
उर्स के मौके पर यहां बिहार के अलावा उतर प्रदेश,पश्चिम बंगाल तथा झारखंड सहित देश के अन्य हिस्से से लोग यहां आते हैं और मजार पर चादरपोशी कर अमन चैन एवं समृद्धि की दुआ मांगते हैं.
मांगन शाह का दरगाह
पूरा भारतवर्ष विविधताओं से भरा हुआ है.खासकर बिहार में कई अनूठी संस्कृति हैं,जो एकता और अखंडता का मिसाल पेश करती है.ऐसा ही एक उदाहरण भागलपुर के अंतर्गत बिहपुर के मिल्की में स्थित है.
यहां हजरत दाता मांगन शाह रहमतुल्ला अलैह की दरगाह है.जहां पर अप्रैल माह में उर्स के दौरान मांगन शाह की दरगाह पर पहली चादर हिंदू की पेश की जाती है.जिसका वक्त भी मध्य रात्रि के 12 बजकर 05 मिनट पर तय है.
हिंदू-मुस्लिम एक साथ दुआ मांगते हैं. इसकी परंपरा वर्षों से चली आ रही है.ऐसा कहा जाता है कि उस समय के राजा झप्पन सिंह के यहां सूफी मांगन शाह रहा करते थे.ब्रिटिश की चाल में राजा का बेटा फंस गया था.जिसे फांसी की सजा मिलने वाली थी.
लेकिन,मांगन शाह ने राजा को कहा कि वह सकुशल घर लौटेगा और राजा झप्पन सिंह का बेटा वाकई सकुशल लौट गया.तब राजा को एहसास हुआ मांगन शाह एक सूफी संत हैं.इसके बाद मांगन शाह की प्रसिद्दि चारों ओर फैलने लगी.उर्दू दैनिक के पत्रकार अक़दम सिद्दीक़ी बताते हैं कि गंगा-जमुनी तहजीब के साथ-साथ सांप्रदायिक सौहार्द का अनूठा मिसाल देखना हो तो लोगों को एकबार मांगन शाह की दरगाह पर जरूर आना चाहिए
यहां पर हिंदू-मुस्लिम एक साथ एक- दूसरे के लिए दुआ मांगते हैं.यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है.सबसे खास बात मांगन शाह दरगाह की यही है कि यहां उर्स के दौरान पहली चादर एक बंगाली कायस्थ के परिवार की चढ़ती है, जिसे राजा झपपन सिंह के परिवार ने आदेश दिया था.
आज भी उस रीति-रिवाज को स्थानीय लोगों के द्वारा निभाया जा रहा है.काफी दूरदराज से लोग अपनी मन्नतें लेकर मांगन शाह पीर के दरबार में पहुंचते है.आसपास के लोग बताते हैं कि यहां पर आने वालों की हर मुराद मांगन शाह पीर बाबा जरूर पूरी करते हैं.
अनवर शाह शहीद
गया के अनवर शाह शहीद मजार की निगाहबानी हिंदू समाज ने संभाल रखी है.मजार का हिंदू परिवार के द्वारा देखभाल करना न सिर्फ सामाजिक सद्भाव की मिसाल है,दिलों को जोड़ने वाला भी है.
गया शहर से सटे बोधगया मार्ग पर है केंदुई गांव.इस गांव में चार सौ साल प्राचीन अनवर शाह शहीद का मजार है.मजार का क्षेत्रफल पांच हेक्टर में फैला है.चूंकि यहां मुस्लिम आबादी नहीं है, इसलिए विनोद सिंह वेलफेयर सोसायटी मजार का देखभाल करती है.
इस वजह कर आसपास के मुस्लिम गांव के लोग केंदुई को अच्छी निगाह से देखते हैं.वजह यह है कि नफरत के माहौल में भी यहां के लोगों ने भाईचारा का दामन नहीं छोड़ा है. कभी माहौल को बिगड़ने नहीं दिया. इसकी बेहतरीन मिसाल अनवर शाह की दरगाह है,जहां सैंकड़ों सालों से हिंदू परिवार चिराग रौशन कर रहा है.
अनवर शाह मजार को लेकर हिंदुओं की आस्था ऐसी है कि उनकी मांगी मन्नतें यहां पूरी होती हैं. गया और आसपास के जिलों से लोग मन्नत मांगने के लिए यहां आते है. मजार में जाकर उनकी मनोकामनाएं जल्द ही पूरी होती हैं.
केंदुई और आसपास के हजारों लोगों की गहरी आस्था इस मजार के प्रति है.होली-दिवाली का शुभारम्भ यहीं से होता है. दिवंगत मुखिया विनोद सिंह के बेटे और पूर्व वार्ड पार्षद संतोष सिंह कहते हैं, ‘‘हम हमेशा अपनी होली या दिवाली इसी जगह से शुरू करते हैं. फिर मंदिर जाते हैं.’’
मनेरशरीफ दरगाह
अपने स्वादिष्ट लड्डुओं के लिए प्रसिद्ध मनेर में है हजरत मखदूम शाह कमाल उद्दीन अहमद यहिया मनेरी का विश्व प्रसिद्ध मकबरा. जो मुग़ल वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है.इसे छोटी दरगाह भी कहते हैं.मखदूम शाह एक नामी पीर थे.
उनकी मृत्यु 1608 ई. में हुई थी. बाद में मुगल सम्राट जहांगीर के शासन में उस वक्त बिहार के शासक इब्राहिम खान ने मखदूम शाह दौलत के कब्र पर इस इमारत का निर्माण 1616 ई. को करवाया था.. इसी मकबरे में ही इब्राहिम खान को भी दफनाया गया है.
मकबरा कम ऊंचाई वाले आयताकार चबूतरे पर चुनार के बलुआ पत्थर से निर्मित है.दरगाह की खूबसूरती देखते बनती है, लोग इसे दूर -दूर से देखने आते हैं. दूर से देखने पर ऐसा लगता है, मानो कोई खिलौना रखा हो. सोलहवीं सदी में बना यह दरगाह आज भी अपनी खूबसूरती के लिए जानी जाती है.
दरगाह के अंदर मन्नतें भी पूरी होती हैं. ऐसा विश्वास है कि यहां धागा बांधने से मन की मुरादें पूरी होती हैं. मनेर शरीफ आने वालों को यूं तो घूमने के लिए कई और बेहतर जगह मिल जाएगी. लेकिन यहां आकर आपने मनेर के मशहूर लड्डू का लुत्फ नहीं उठाया तो यह सफर लगभग अधूरा ही माना जाता है.
यह एक प्रकार के मोतीचूर के लड्डू होते हैं, जिन्हें घी में तैयार किया जाता है. इन लड्डुओं का जिक्र बॉलीवुड की फिल्म 'खुदगर्ज' में भी किया गया है. मनेर का एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है और यह अब नए पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हो रहा है.
साथ ही मनेर सर्व धर्म समन्वय का प्रतीक भी बन गया है.पहली बार आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर मनेर स्थित हजरत मखदूम शाह दौलत मनेरी की दरगाह को तिरंगे के रंग में सजाया गया. सजावट से इसकी भव्यता देखने लायक थी.
बिहार शरीफ दरगाह
जहां अपने जमाने के सर्वाधिक लोकप्रिय, महान और सर्वोत्तम संत मखदूम जहां शेख शरफुद्दीन अहमद याहया मनेरी की कब्र और मकबरा है. आपको लोग प्यार से मखदूम जहां कहकर पुकारते है.आपके मकबरे को बडी दरगाह बिहार शरीफ के नाम से जाना जाता है.
बडी दरगाह शरीफ पर साल भर भक्तों और जायरीनों का तांता लगा रहता है. यहां साल भर में उर्स भी लगता है. जिसे बडी दरगाह का मेला या बडी दरगाह का उर्स के नाम से जाना जाता है.नालंदा जिले में होने के कारण इसे नालंदा बडी दरगाह या बिहार राज्य की महत्वपूर्ण दरगाह होने के कारण बिहार में बड़ी दरगाह के नाम से भी लोग जानते हैं.
782 हिजरी/ 1380 ईसवीं में मखदूम जहां के चिन्हित इस स्थान पर दफन होने के बाद से ही यह स्थान विशेष महत्व और श्रद्धा का अनुपम केंद्र बन गया और बड़ी दरगाह कहलाने लगा.बडी दरगाह शरीफ की सुंदरता देखते ही बनती है.हर समय प्रातः हो या संध्या, दोपहर हो या रात्रि यहां आश्चर्यजनक रूप से हार्दिक शांति और अलौकिक छत्र छाया का आभास होता है.
देर रात में आपके मजार के दर्शन का तो पूछना ही क्या, शांत वातावरण में आपकी महिमा तनिक और उजागर होकर चमकती है, और ह्रदय को छू जाती है.बड़े बड़े संत महात्माओं और ज्ञानियों ने आपकी दरगाह पर अपनी उपस्थिति दर्ज करके आत्म लाभ और आलौकिक सुख प्राप्त किया और तृप्त हुए. राजा से लेकर रंक तक की मनोकामना यहां पूरी होती आई है.
सुबह से रात तक यहां श्रृद्धालुओं का मेला सा लगा रहता है.दूर दूर से हर धर्म और जाति के लोग बड़े आदर और श्रद्धा के साथ यहां का दर्शन कर धन्य होते है.1171 हिजरी में नवाब मीर जाफर भी बिहार शरीफ दरगाह में श्रृद्धा पूर्वक हाजिर हुए और हयाते सबात नामी हस्तलिखित पुस्तक के अनुसार कई वस्तुएं बिहार शरीफ दरगाह में भेंट की.
उस काल के महाराजा शताब राय और महाराजा कल्याण सिंह आशिक भी बिहार शरीफ बड़ी दरगाह के मेले में बडी श्रृद्धा के साथ सम्मिलित हुआ करते थे और दरगाह के समीप निर्धनों को खुल कर दान दक्षिणा देते थे.भारत वर्ष में अजमेर शरीफ को जो प्रसिद्धि प्राप्त है और वहां के वार्षिक उर्स का जो महत्व है वही बिहार और बंगाल में बिहार शरीफ के उर्स को प्राप्त है.