ज़ाहिद ख़ान
बेगम अख़्तर ने तेरह साल की बाली उम्र में अपनी पहली पब्लिक परफार्मेंस दी. मौका था, कोलकाता में बिहार रिलीफ फंड के लिए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का. अपने पहले ही कार्यक्रम में उन्होंने ढाई घंटे तक ग़ज़ल, दादरा और ठुमरी सुनाई. इस प्रोग्राम में सरोजिनी नायडू मुख्य अतिथि थीं, वे उनकी आवाज़ सुन इतनी मुतास्सिर हुईं कि कार्यक्रम के आख़िर में उन्होंने बेगम अख़्तर को एक साड़ी तोहफ़े में दी.
बहरहाल, तेरह साल की ही उम्र में बेगम अख़्तर का पहला रिकॉर्ड, मेगाफोन रिकॉर्ड कंपनी से आया. देश में 1960 दशक के मध्य में जब एलपीज चलन में आए, तो जो शुरुआती रिकॉर्डिंग आईं, उसमें बेगम अख़्तर की ग़ज़लों की भी रिकॉर्डिंग थीं. यह ग़ज़ल एलबम काफ़ी मक़बूल हुए. बेगम अख़्तर बड़े बेलौस अंदाज़ में, बिना किसी तनाव के महफ़िलों में खुलकर गाती थीं. हारमोनियम पर उनके हाथ पानी की तरह चलते थे.
वे बैठकी और खड़ी दोनों ही तरह की महफ़िलों में गायन के लिए पारंगत थीं. कवि, कला-संगीत मर्मज्ञ यतीन्द्र मिश्र, जिन्होंने बेगम अख़्तर पर हाल ही में एक शानदार किताब ‘अख़्तरी सोज और साज़ का अफ़साना’ का सम्पादन किया है.
उनका बेगम अख़्तर की गायकी पर कहना है,‘‘अपनी अद्भुत पुकार तान और बिल्कुल नये ढंग की मींड़-मुरकियों-पलटों के साथ ख़नकती हुई आवाज़ के चलते बेगम अख़्तर को असाधारण ख्याति हासिल हुई. अपनी आवाज़ में दर्द और सोज़ को इतनी गहराई से उन्होंने साधा कि एक दौर में उनकी आवाज़ की पीड़ा, दरअसल एक आम-ओ-ख़ास की व्यक्तिगत आवाज़ का सबब बन गई.’’
तवायफ़ और उप-शास्त्रीय गायिका अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी के ‘मलिका-ए-ग़ज़ल’, ‘मलिका-ए-तरन्नुम’ बेगम अख़्तर बनने का सफ़र आसान नहीं रहा. बेगम अख़्तर बनने के लिए अपनी ज़िंदगी में उन्होंने काफी जद्दोजहद और संघर्ष किए.
रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक समाज ने उन्हें लाख बेड़ियां पहनाईं, लेकिन एक बार उन्होंने जो फ़ैसला कर लिया, फिर कोई ताक़त उन्हें उनके पुराने पेशे में वापिस न ला पाई. शादी के बाद बेगम अख़्तर ने लखनऊ में दोबारा इसलिए नहीं गाया, क्योंकि उन्होंने अपने पति इश्तियाक अहमद अब्बासी से इसका वादा किया था.
7 अक्टूबर, 1914 को अवध की राजधानी रही फ़ैज़ाबाद के भदरसा कस्बे में एक तवायफ़ मुश्तरीबाई के यहां जन्मी अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी उर्फ बिब्बी जब सिर्फ़ सात साल की थीं, तब उनकी मां ने उन्हें मौसिकी की तालीम देना शुरू कर दी थी.
उस्ताद इमदाद खां, उस्ताद अब्दुल वहीद खां (किराना), उस्ताद रमज़ान खां, उस्ताद बरकत अली खां (पटियाला), उस्ताद गुलाम मोहम्मद खां (गया) और अता मोहम्मद खां (पटियाला) की शागिर्दी में बेगम अख़्तर ने संगीत और गायकी का ककहरा सीखा.
साल 1930 में वे पारसी थियेटर से जुड़ गईं. कॉरिंथियन थियेटर कंपनी के लिए उन्होंने आगा मुंशी दिल लिखित, निर्देशित कुछ नाटक ‘नई दुल्हन’, ‘रंगमहल’ ‘लैला मजनूं’, ‘हमारी भूल’ में अभिनय और गायन किया. वह दौर पारसी थियेटर और फ़िल्मों का था. ख़ास तौर पर फ़िल्में सभी को आकर्षित करती थीं, स्वभाविक था बेगम अख़्तर भी फ़िल्मों की ओर आकृष्ट हुईं. उन्होंने कुछ साल फ़िल्मों में काम किया.
‘एक दिन का बादशाह’ से उन्होंने अपने सिने करियर की शुरुआत की, जो अदाकार-गायक के.एल. सहगल की भी पहली फ़िल्म थी. ‘नल दमयंती’ (साल-1933), ‘मुमताज बेगम’, ‘अमीना’, ‘जवानी का नशा’, ‘रूपकुमारी’ (साल-1934), ‘नसीब का चक्कर’ (साल-1935), ‘अनार बाला’ (साल-1940), ‘रोटी’ (साल-1942), ‘दानापानी’ (साल 1953), ‘एहसान’ (साल 1954) वे फ़िल्में हैं, जिनमें बेगम अख़्तर ने अदाकारी की.
साल 1958 में आई महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी. इस फ़िल्म में वे पेशेवर गायिका के ही रोल में थीं और निर्देशक ने उन पर एक बैठकी महफ़िल का सीन फिल्माया था. फ़िल्म में उन्होंने अपनी दर्द भरी आवाज़ में एक दादरा ‘हे भर भर आई मोरी अंखियां पिया बिन’ भी गाया था.
निर्देशक महबूब की फिल्म ‘रोटी’ में बेगम अख़्तर ने अदाकारी के साथ-साथ गाने भी गाए थे. यही नहीं संगीतकार मदन मोहन के लिए उन्होंने दो फ़िल्मों में यह ग़ज़ल ‘ए इश्क मुझे और कुछ याद नहीं’ (फ़िल्म-दानापानी), ‘हमें दिल में बसा भी लो..’ (फ़िल्म-एहसान) रिकॉर्ड करवाईं थीं. बेगम अख़्तर ने फ़िल्में ज़रूर कीं, लेकिन उन्हें फ़िल्मी दुनिया ज़्यादा रास न आई. बाद में उन्होंने फ़िल्मों से हमेशा के लिए दूरी बना ली. वे अपने संगीत की दुनिया में ही ख़ुश थीं.
साल 1945 में लखनऊ के एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी, जिनका काकोरी के नवाब ख़ानदान से ताल्लुक था, के साथ उनका निकाह हुआ और अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी से वे बेगम अख़्तर बन गईं. अपने ख़ाविंद से उनका क़रार था, शादी के बाद वे गायकी छोड़ देंगी.
बेगम अख़्तर ने इस कौल को पांच साल तक निभाया भी. लेकिन इसका असर उनकी सेहत पर पड़ा. वे बीमार रहने लगीं. गम-उदासी और डिप्रेशन उन पर हावी होने लगा. इश्तियाक अहमद अब्बासी से बेगम अख़्तर की यह हालत देखी नहीं गई, वे उन्हें लेकर डॉक्टर और हकीमों की तरफ दौड़े. डॉक्टर, उनका मर्ज़ फौरन पहचान गए. डॉक्टरों ने इस बीमारी का इलाज गाना बतलाया. खैर, उनके पति ने उन्हें आकाशवाणी में गाने की इजाज़त दे दी.
साल 1949 में उन्होंने फिर गाना शुरू कर दिया. उनकी वापसी पहले से ज़्यादा शानदार रही. ऑल इंडिया रेडियो,आकाशवाणी और दूरदर्शन के अलावा वे निजी महफ़िलों में भी ग़ज़ल गायकी और उप-शास्त्रीय गायन के लिए जाने लगीं.
‘उल्टी हो गईं सब तदबीरें’ (मीर तक़ी मीर), ‘वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद...’ (मोमिन खान ‘मोमिन’), ‘जिक्र उस परीवश का और फ़िर....’, ‘वो न थी हमारी किस्मत..’ (मिर्जा गालिब), ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, ‘मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवा..’ (शकील बदायुनी), ‘ ‘आये कुछ अब्र कुछ शराब आए...’ (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़), ‘कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन, लाख बलाएं...(जिगर मुरादाबादी), ‘इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े..’ (कैफ़ी आज़मी), ‘कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया’ (सुदर्शन फ़ाकिर), ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे..’ (बहजाद लख़नवी), ‘अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते’ (अली अहमद जलीली) बेगम अख़्तर द्वारा गायी, वे ग़ज़लें हैं, जो उन्हीं के नाम और गायन से जानी जाती हैं.
जिसमें भी उनकी ये ग़ज़ल ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, उस ज़माने में नेशनल ऐन्थम की तरह मशहूर हुई. वे जहां जातीं, सामयीन उनसे इस ग़ज़ल की फ़रमाइश ज़रूर करते. इस ग़ज़ल के बिना उनकी कोई भी महफ़िल अधूरी रहती. ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे..’ भी बेगम अख़्तर की सिग्नेचर ग़ज़ल है.
बेगम अख़्तर के गायन के अलावा उनकी शख़्सियत भी प्रभावशाली थी. लखनवी नफ़ासत, रहन-सहन और तौर-तरीके उन्हें ख़ास बनाते थे. यही नहीं उनकी तबीयत भी बेहद शहाना थी. बेगम अख़्तर, हरदिल अज़ीज़ फ़नकार थीं. उनसे जुड़े कई किस्से हैं, जो आज किवदंती बन गए हैं.
मसलन कोई ग़ज़ल यदि बेगम अख़्तर को पसंद आ जाती थी, तो वे देखते-देखते उसकी बंदिश बना देती थीं. बेगम अख़्तर की शख़्सियत और गायन में ग़ज़ब का जादू था. लाखों लोग उन पर फ़िदा थे और आज भी बेगम अख़्तर के गायन के जानिब उनकी चाहतें कम नहीं हुई हैं. उन्होंने जिस तरह से अपनी ग़ज़लों में शायरों के जज़्बात, एहसास और उदासी को बयां किया, वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया.
अपनी पसंदीदा शार्गिद रीता गांगुली, जो ख़ुद बेगम अख़्तर परम्परा की बेजोड़ गायिका हैं, को नसीहत देते हुए वे हमेशा कहती थीं,‘‘अगर ज़िंदगी में कामयाब होना है, तो तन्हाई से दोस्ती कर लो. वो तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ेगी.’’ ज़ाहिर है कि ज़िंदगी में मिली तन्हाई और गम ने उनकी गायकी को और संवारा-निखारा.
बेगम अख़्तर, अपनी ज़िंदगी में कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ी गईं. साल 1968 में उन्हें पद्म श्री, साल 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तो साल 1973 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला. उनके मरणोपरांत साल 1975 में भारत सरकार ने उन्हें अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मानों से एक ‘पद्म भूषण’ से नवाज़ा.
उनके ऊपर एक डाक टिकट भी निकला है. यही नहीं बेगम अख़्तर के ऊपर कई फ़िल्म और डॉक्यूमेंट्री भी बनी हैं. लेकिन इन सम्मानों और पुरस्कारों से सबसे बड़ा पुरस्कार है,देश-दुनिया के लाखों लोगों का प्यार. जो आज भी उनकी गायिकी के जानिब कम नहीं हुआ है. पुरानी तो पुरानी, नई पीढ़ी भी उनकी ग़ज़लों और उप शास्त्रीय संगीत की तमाम बन्दिशों को उसी शिद्दत से सुनती है.