-ज़ाहिद ख़ान
भारतीय शास्त्रीय संगीत में उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ की पहचान एक दिग्गज गायक के रूप में है.भारतीय शास्त्रीय संगीत और सुगम संगीत की दुनिया में बड़े-बड़े गायक हुए, मगर ग़ुलाम अली ख़ाँ को दुनिया भर में जो नाम, शोहरत और एहतिराम मिला उसका कोई मुक़ाबला नहीं.
यहां तक कि उनके समकालीन उन्हें तानसेन का मर्तबा देते थे.महान सितारवादक पंडित रविशंकर ने अपनी आत्मकथा ‘राग अनुराग’ में ग़ुलाम अली ख़ाँ की गायकी की अज़्मत को बयां करते हुए एक जगह लिखा, ‘‘उन जैसा, ठीक उन जैसा और कोई मुझे कभी नहीं लगा.”
रबीन्द्रनाथ के शब्दों में सभाभंग के काशीनाथ के समान सिर्फ़ सात सुर ही नहीं, बारहों सुर भी उनके पालतू पक्षी थे.स्वरों पर इस तरह का कंट्रोल किसी के कंठ में आज तक मैंने नहीं देखा है महाशय !’’ (किताब-‘राग अनुराग’, लेखक-पं. रविशंकर, प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पेज-125) अपने स्वरों पर वाक़ई उनका अद्भुत नियंत्रण था.
पटियाला घराने की ख़ासियत जो द्रूत तैयारी के साथ तान है, उसे उन जैसा आज तक कोई नहीं गा सका है.सुरों से मुहब्बत करते हुए, वे जज़्बात में कुछ इस क़दर बह जाते थे कि उन्हें अपना भी होश नहीं रहता था.
ग़ुलाम अली ख़ाँ, मुल्क के एक मशहूर मौसीक़ी घराने, पटियाला घराने से तअल्लुक़ रखते थे.बीसवीं सदी के आग़ाज़ 2अप्रैल, 1901को अविभाजित भारत के कसूर में, जो कि अब पाकिस्तान में है, उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब की पैदाइश हुई.उस ज़माने में कसूर मौसीक़ी, आर्ट और तहज़ीब के लिए पूरे देश में मशहूर था.
ख़ाँ साहब ने पांच बरस की उम्र से अपने वालिद अली बख़्श ख़ाँ और अपने चचा फ़तेह अली ख़ाँ, काले ख़ाँ से सारंगी व ख़्याल गायकी की इब्तिदाई तालीम ली और शुरुआत के पहलू-ताल, अंतरे और स्थाइयाँ सीखीं.वे घंटो इसका रियाज़ करते.
इस हद तक कि उन्हें लोग बावला और पागल तक समझते थे.कहते,‘‘यही हाल रहा, तो यह लड़का पागल हो जाएगा.’’ अपनी बेइंतिहा लगन और जुनून के दम से ग़ुलाम अली ख़ाँ ने ज़ल्द ही ख़्याल गायकी पर महारथ हासिल कर ली.और शास्त्रीय संगीत के पटियाला घराने की परंपरा को मुल्क में आगे बढ़ाया.
ख़्याल गायक के तौर पर मशहूर होने से पहले, ग़ुलाम अली ख़ाँ एक बेजोड़ सारंगी वादक के तौर पर भी अपनी पहचान बना चुके थे.लेकिन बाद में वे पूरी तरह से गायकी में ही रम गए.उनके तीनों भाई उस्ताद मुबारक अली ख़ाँ, उस्ताद बरकत अली ख़ाँ और उस्ताद अमानत अली ख़ाँ भी कसूर-पटियाला घराने के बड़े गायक थे.
लेकिन गायकी के मैदान में जो शोहरत उस्ताद ग़ुलाम अली ख़ाँ को मिली, उसका कोई मुक़ाबला नहीं.उन्होंने मालकौंस, जयजयवंती, कमोद, केदार, भैरवी और पहाड़ी जैसे रागों को अलग आयाम और नये मायने दिए.उनकी आवाज़ में एक अलग ही कशिश थी, जो लोगों को अपनी ओर खींचती थी.
अपनी पुर-कशिश आवाज़ में जब वे गाते थे, तो लोग वाह-वाह कर उठते थे.उस्ताद ग़ुलाम अली ख़ाँ के गायन का अंदाज़ निराला था.वे सभी रागों के गायन में माहिर थे.चाहे वह दक्षिण का हो, पूरब, या फिर पंजाब का हो.
अलबत्ता राग की शुद्धता का ज़रूर ख़याल रखते थे.अस्थाई-अंतरे को भरना, राग को राग के मुताबिक गाना उनकी गायकी की ख़ासियत थी.वे ख़ामख़्वाह को विलंबित और ख़ामख्वाह के राग से वक़्त ज़ाया नहीं करते थे.
उन्होंने ख़्याल गायन को इतना ज़बरदस्त और खू़बसूरत बनाया कि लोग उनके गायन के दीवाने हो गए.शास्त्रीय संगीत, ठहराव मांगता है.इसको सुनने के लिए श्रोताओं के पास न सिर्फ़ समय और धैर्य होना चाहिए, बल्कि संगीत की एक समझ भी लाज़िमी है.
जबकि ग़ुलाम अली ख़ाँ इस बात को लेकर रज़ामंद थे कि ‘‘शास्त्रीय संगीत की सुंदरता उसके तात्कालिक प्रदर्शन में है, लेकिन परंपरा के विपरीत उनका मानना था कि श्रोता ज़रूरत से ज़्यादा लंबी प्रस्तुतियों को पसंद नहीं करेंगे.’’ (किताब-सुर के सितारे, लेखक-अमजद अली ख़ान, प्रकाशक-पेंगुइन बुक्स गुड़गाँव, पेज-14) .
यही वजह है कि श्रोताओं की पसंद को ध्यान में रखकर, उन्होंने हर राग की अवधि और प्रस्तुतिकरण का फै़सला किया.अलबत्ता उनके इस फै़सले की सभी ने हिमायत नहीं की.ख़ास तौर से शास्त्रीय संगीत के शौक़ीनों को लगता था कि उन्हें इस राग को सुनने के लिए जो तृप्ति मिलना चाहिए, वह नहीं मिली.जबकि ग़ुलाम अली ख़ाँ उस राग को लंबे समय तक गा सकते थे, लेकिन गाते नहीं थे.
ग़ुलाम अली ख़ाँ का तक़रीबन सारा संगीत रिकॉर्ड है.उनकी तीन-तीन मिनट की छोटी-छोटी रिकॉर्डिंग उपलब्ध हैं, जिसमें उन्होंने बड़ी ही तल्लीनता से मुख़्तलिफ़ रागों को गाया है.उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ ने ख़्याल गायन को वह ऊंचाईयां प्रदान की कि अपने समय में हर एक उनकी गायकी का दीवाना था.यहां तक की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी उनकी गायकी के मद्दाह थे.
आज़ादी के बाद हुए एक सार्वजनिक आयोजन में ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब के गायन को सुनने के बाद, गांधी जी ने न सिर्फ़ उनकी उस वक़्त खुलकर तारीफ़ की, बल्कि बाद में उन्हें एक प्रशंसा भरा ख़त भी लिखा.गोहर जान के बाद उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, देश में दूसरे ऐसे गायक थे, जिन्होंने अपने गायन की रिकॉर्डिंग कराईं.
शास्त्रीय संगीत से उन्होंने आम लोगों को इस तरह वाक़िफ़ कराया, जैसे कि वह लोकप्रिय संगीत हो.ग़ुलाम अली ख़ाँ की ठुमरी, दादरा बेमिसाल थी.ठुमरी को उन्होंने एक नई पहचान दी.वे जब एक बेहतरीन अंदाज़ में ठुमरी पेश करते, तो लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे.
ठुमरी को आम अवाम के बीच जो मक़बूलियत मिली, उसमें उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का भी बड़ा रोल है.भारतीय शास्त्रीय संगीत में ठुमरी के दो अंग हैं, पूरब और पंजाब। ग़ुलाम अली ख़ाँ इन दोनों ही अंगों की नुमाइंदगी करते थे.
‘तोरी तिरछी नज़रिया के बाण’, ‘प्रभु मोरी नैया पार करो’, ‘का करूँ सजनी आये न बालम’, ‘जमुना के तीर’, ‘याद पिया की आये’, ‘अब न मानत श्याम’, ‘नैना मोरे तरस गए आजा बलम’ और ‘रस के भरे तोरे नयना’ उस्ताद ग़ुलाम अली ख़ाँ की गायी हुई कुछ बेमिसाल ठुमरियाँ हैं, जो आज भी बड़े चाव से सुनी जाती हैं.
यही नहीं उन्होंने भजन भी गाये.राग पहाड़ी में गाया हुआ उनका एक भजन ‘हरिओम तित सत जपा कर’ खू़ब मक़बूल हुआ.एक दौर था, जब उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ के गायन का चर्चा पूरे मुल्क में होता था.
फ़िल्मी दुनिया ने भी कई मर्तबा उनके सामने फ़िल्मों में गाने के लिए पेशकश की, लेकिन वे इसे ठुकराते रहे.के.आसिफ़ की क्लासिक फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में उन्होंने अपनी शर्तों पर दो ठुमरी ‘प्रेम जोगन बन के’ और ‘शुभ दिन आयो राज दुलारा’ गायीं, जो आज भी लोगों के जे़हन में बसी हुई हैं.
राग सोहनी और रागेश्वरी में गायीं इन ठुमरियों का कोई जवाब नहीं। इन ठुमरियों को सुनो, तो ऐसा लगता है कि खु़द तानसेन इन्हें गा रहे हैं.हमारी नई पीढ़ी को शायद ही इस बात की जानकारी हो कि बंटवारे के बाद उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ पाकिस्तान में ही रह गए थे.क्योंकि वो लाहौर को खू़ब पसंद करते थे,
लेकिन जब उन्होंने पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत से छेड़छाड़ और कलाकारों के साथ बुरा बर्ताव देखा, तो साल 1953 में वे भारत चले आए. हिंदुस्तानी हुकूमत ने भी अविभाजित भारत के इस महान कलाकार के प्रति अपना पूरा सम्मान प्रकट करते हुए,
उन्हें तुरंत भारतीय नागरिकता प्रदान कर दी.ग़ुलाम अली ख़ाँ भारत आ गए, तो पाकिस्तान रेडियो ने उन पर अघोषित पाबंदी लगा दी. तक़रीबन आधी सदी तक पाकिस्तान रेडियो पर उनकी गायी हुई राग-रागनियों पर पाबंदी रही.साल 2009में जाकर, यह पाबंदी हटी.बावजूद इसके ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब, पूरे उपमहाद्वीप के महबूब गायक बने रहे.
सरहद, हुकूमत की बंदिश और तमाम पाबंदियों के बाद भी उनका गायन सुना जाता रहा.आज भी पूरी दुनिया में उनके लाखों चाहने वाले हैं.उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ अपने जीते जी ही एक संस्थान बन गए थे.भारत और पाकिस्तान में नूरजहाँ, फ़रीदा ख़ानम, छोटे गुलाम अली, मालती गिलानी, मीरा बनर्जी, संध्या मुखर्जी जैसे कई होनहार शागिर्द हैं, जिन्होंने शास्त्रीय संगीत और ग़ज़ल गायकी को एक नये मुक़ाम तक पहुंचाया.
उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब को अपनी बेजोड़ गायकी के लिए कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा गया.जिनमें से कुछ ख़ास सम्मान हैं-‘संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार’(साल 1962), ‘संगीत नाटक अकादेमी फेलो.’ (साल 1967) ‘सुर देवता’, ‘आफ़ताब-ए-मौसीक़ी’, ‘संगीत सम्राट’, ‘शहंशाह-ए-मौसीक़ी’, राष्ट्रपति सम्मान और डॉक्टरेट की मानद उपाधि.
भारत सरकार ने ग़ुलाम अली ख़ाँ की गायकी को सराहते हुए, साल 1961 में उन्हें अपने शीर्ष नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया.साल 2003 में उन पर एक डाक टिकट जारी भी किया गया.दीगर शास्त्रीय गायक और संगीतकारों की ही तरह उस्ताद ग़ुलाम अली ख़ाँ भी संगीत को इबादत मानते थे.
उनकी नज़र में इंसान की ज़िंदगी में संगीत की अहमियत इसलिए है कि ‘‘सुर से प्यार करने वाला इंसान बड़ी खू़बियों का हासिल होता है. मतलब, दिल को दुखाने से गुरेज़ करेगा, ज़ालिम न होगा…’’ आज दुनिया भर में जब एक-दूसरे समुदाय के प्रति नफ़रत और दिलों के बीच दूरियां बढ़ी हैं, तब उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ के इस मुहब्बत भरे पैग़ाम को हर एक तक पहुंचाया जाना चाहिए.ताकि दुनिया में अमन और भाईचारा क़ायम हो.23 अप्रैल, 1968 को सुरों के बादशाह ग़ुलाम अली ख़ाँ ने इस फ़ानी दुनिया से अपनी विदाई ली.