डॉ. रेशमा रहमान
बिहू का त्यौहार असम के लोगों के रग-रग में बसा हुआ है. साल में वैसे तो बिहू तीन दफा मनाए जाते हैं. पहला रोंगाली या बोहाग बिहू दूसरा कोंगाली या कांति बिहू, तीसरा और आखिरी माघ बिहू, जो अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से साल के पहले महीने जनवरी में सेलिब्रेट किया जाता है. माघ बिहू मूल रूप से फसलों की कटाई का समय है. फसल कटनी के बाद जो अनाज घर में आता है वह सुख, समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक है.
2025 के मध्य जनवरी में माघ बिहू (भोगाली बिहू) उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है. पूरे दिन बिहू त्योहार उरूज पर रहता है. साथ ही असम के कोने-कोने में इस जश्न का मंजर गवाही देता हुआ दिखता है.
हालांकी, ये त्यौहार तीन दिन पहले से शुरू हो जाता है. 13 जनवरी की सुबह से तैयारी शुरू होती है. दिन में खरीदारी और रात होने पर त्योहार की शुरुआत होती है, जिसमें लकड़ी, बांस और घास से ‘मेजी घोर’ बनता है. इस रात की खास बात ये है कि सारे परिवार, रिश्तेदार और खास दोस्त इसमें शामिल होते हैं. इसको ‘उरुका’ कहते है.
जो भी पकवान बनाते हैं, वो बोनफायर यानी अलाव पर ही पकाए जाते हैं, जिसमें खास-तौर पर कुछ व्यंजन का होना लाजमी है, बत्तख, मछली, नया चावल, दो-तीन तरह की सब्जी. ये ताजी सब्जियां जो सीधे खेतों से तोड़कर लाई गई होती हैं. व्यंजन तैयार होने पर सब एकसाथ बैठकर लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं. बैकग्राउंड में पारंपरिक असम बिहू गाने चलते रहते हैं. ये दिन असम के लोगों के दिल के बेहद करीब होता है.
14 जनवरी की सुबह को नहाने के बाद नया गमछा पहन कर ‘मेजी घोर’ को जलाते हैं और ‘अग्नि’ देवता की प्रार्थना करते हैं और दुआ करते हैं ‘अच्छी फसल’ के लिए. उस दिन पीठा, नारियल लड्डू, कुमोल सौल दही, गुड़ या मलाई के साथ सेवन करते हैं. फिर आता है माघ बिहू का खास दिन ‘15 जनवरी’, जो परिवार के छोटे/जवान सदस्य हैं, जिन्हे अपने बड़े बुजुर्गों को नया गमछा और उपहार देकर आशीर्वाद लेने की परंपरा है. आशीर्वाद लेकर अच्छे जीवन की कामना करते हैं कि सदा जीवन में बड़े लोगो की दुआएं सिर पर रहें.
इस त्यौहार की ख़ूबसूरती यही है कि, ये धर्म, जाति, जनजाति, सबसे हटकर असम को परिवार समझकर सभी लोग इस जश्न को मनाते हैं. यह जानकर झटका न लगे कि असमिया मुस्लिम भी बिहू का उतना ही जश्न मनाते हैं, जितना हिंदू या आदिवासी असमिया करते हैं.
सभी समुदाय के लिए बिहू एक है, रस्में भी एक हैं, और त्योहार भी एक है. ये आज के उथल-पुथल और बेचैनी दौर में एकता का मिसाल बनकर सामने आया है. जहां लोगों के त्योहार धर्म के हिसाब से जाने और मनाए जाते हैं. लेकिन बिहू ने अपना जो रंग लोगों पे चढ़ाया है, वो गलतफहमियों की दीवारें धाराशाही कर देता है. और बस उठता है शोला उमंग का, उल्लास का, मुहब्बत का. जहां धर्म और जात-पांत से ऊपर उठकर भी कुछ है, तो वह बिहू है जनाब.
ये लेख एक दिल्लीवाली ने लिखा है, जो असम में बैठकर लिख रही है, अपने उन लोगों के लिए जो हिंदी-पट्टी के लोग हैं, जो कहीं न कहीं, आज का जो हिंदू-मुस्लिम आबो-हवा है, उसमें फंस कर रह गए हैं. और कहीं भटके हुए दिखाई पड़ते हैं.
असम सरकार भी बिहू की अहमियत को समझती है. वह सुरक्षा के साथ चाक-चौबंध नजर आती है. इसके साथ ये ध्यान रखती है कि लोगों को बिहू से जुड़ी हर साजो-सामान उसके आस-पास की दुकानों, स्टॉलों, मॉल में समय पर मुहय्या करा दिया जाए. ताकि लोग ख़ुशी से इस त्यौहार को मना सकें. असम सरकार ने इस दफा 14-15 जनवरी को छुट्टी का ऐलान किया. हालांकि 2024 में तीन दिन की छुट्टी थी 13, 14, 15 जनवरी.
माघ बिहू के बाद आएगा रोंगाली (बोहाग बिहू) ये साल के अप्रैल महीने में मनाया जाता है. और साल के आखिर में अक्टूबर/नवंबर के महीने में ‘कांति’ बिहु मनाकर 2025 समापन किया जाएगा.
ऐसे माहौल में, जहां त्योहार का रंग चढ़ा हुआ रहता है, वहीं असम की महिलाओं का सजना-संवारना अपने शबाब पे होता है, जिसमें वह अपना पारंपरिक पोशाक पहनना ज्यादा पसंद करती हैं, जिसमें ‘मैखला चादर’ अहम हैं. और मर्द हजरात भी पारंपरिक पोशाक पहनना पसंद करते हैं.
मैखला चादर की रंग-बिरंगी डिजाइन देखने को मिल जाती है बाजारों में. किसी फंक्शन, पार्टी या शादी समारोह में महिला अपनी ‘मैखला चादर’ को पहनना पसंद करती हैं. असमिया महिलाएं ये दिखाती हैं कि संस्कृति से जुड़ाव और मुहब्बत क्या होती है. भारतीय बाजार आधुनिक साजो-सामान से भरा हुआ है, लेकिन जो बात संस्कृति और परंपरा से जुड़ी है, वह कहीं नहीं है. यही असम की खुबसूरती है, उसके जिंदा रहने की पहचान है और बिहू त्यौहार इसकी मिसाल हैं.
(डॉ. रेशमा रहमान सहायक प्रोफेसर और शोधकर्ता, यूएसटीएम हैं.)