कुरबान अली
चिश्तिया सिलसिले की खानकाहों में बसंत का त्यौहार मनाने का चलन 12वीं सदी में हजरत अमीर खुसरो के जमाने से शुरू हुआ. हर साल सूफी बसंत इस्लामिक कैलेंडर के महीने, रजब अल मुरज्जब के तीसरे दिन मनाया जाता है. मुसलमानों में सूफी बसंत मनाने का चलन अमीर खुसरो ने शुरू किया. उन्होंने अपने पीर (आध्यात्मिक गुरु) हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया को अपने गीत समर्पित किए.
दरगाहों पर बसंत पंचमी मनाने का चलन क्यों शुरू हुआ ? इसके पीछे एक कहानी है. बताते हैं कि हजरत निजामुद्दीन औलिया अपनी बहन के बेटे से बहुत प्यार करते थे, पर उसकी अचानक मौत से वो बहुत उदास रहने लगे. उनके सबसे प्यारे मुरीद अमीर खुसरो उनको खुश करना चाहते थे.
इस बीच बसंत ऋतु आई. कहा जाता है कि खुसरो ने सरसों के पीले फूलों से एक गुलदस्ता बनाया और इसे लेकर वे निजामुद्दीन औलिया के सामने पहुंचे. खूब नाचे गाए और उनकी मस्ती से हजरत निजामुद्दीन की हंसी लौट आई.
तब से जब तक अमीर खुसरो जीवित रहे, बसंत पंचमी का त्योहार मनाते रहे. खुसरो के जाने के बाद भी सूफी मत के लोग हर साल उनके पीर निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर बसंत पंचमी का त्योहार मनाने लगे.
इसके बाद से ही बसंत चिश्तिया खानकाहों और उनसे जुड़े कव्वालों द्वारा हर साल एक त्यौहार के तौर पर मनाया जाने लगा. इस दिन घरों में बसंत की खुशी में पीले कपड़े पहने जाते हैं. खास तौर से पीले चावल बनाए जाते है. पीले रंग के लिबास में सजे कव्वाल अमीर खुसरो के गीत गाते हैं.
बसंत के कलाम हजरत अमीर खुसरो और हजरत नियाज बेनियाज़ के लिखे हुए हैं. यही कलाम कव्वाल दरगाह पर पेश करते हैं. हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर वसंत की धूम मची है. सूफी बसंत हर साल यहां दस्तक देता है.
‘बसंत‘ चिश्तिया सिलसिले के शहंशाह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती गरीब नवाज अजमेर की दरगाह शरीफ से लेकर इस सिलसिला की हर दरगाह पर मनाया जाता है. अजमेर में ख्वाजा गरीब नवाज और दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर इस मौके पर उनके सम्मान में अमीर खुसरो के गीत गाए जाते हैं.
दरगाहें सरसों और गेंदा के फूलों से महक उठती हैं. दरगाह को गेंदे के फूलों से सजाया जाता है.गेंदे के फूल की टोकरी सिर पर रख लोग मस्ती में नाचते हैं. वे इन टोकरियों को ख््वाजा की दरगाह के पास ले जाते हैं.
अमीर खुसरो की गजलो‘ में गजब की चाशनी होती थी. इसके बावजूद खुसरो तसव्वुफ़ वाले अपने कलाम से पूरी तरह इंसाफ करते. खुसरो मजहबी शख्स थे. वो नमाज पढते थे तथा रोजा रखते थे. साथ ही वे गाते थे, नाचते थे, हंसते थे, गाना सुनते और दाद देते थे.
शाहों और शहजादों की शराब की महफिलों में हिस्सा जरूर लेते थे, मगर हाजिरी की हद तक. इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी का कहना है खुसरो ने अपने जीवन के 38 बसंत देखे. अमीर खुसरो का कहना था जब तलवार और पानी दोनों की झंकार थम जाती है, जम जाती है तब शायर का नगमा गूंजता है. कलम की सरसराहट सुनाई देती है. अब जो मैं आंखों देखी लिखूंगा वो कल सैकड़ों साल तक आने वाली आंखें देखेंगी हुजूर.‘‘
इस पर बादशाह खुश हुए और बोले- ‘‘शाबाश खुसरो! तुम्हारी बहादुरी और निडरता के क्या कहने. मैदाने जंग और महफिलें रंग में हरदम मौजूद रहना. तुम को हम अमीर का ओहदा देते हैं. तुम हमारे मनसबदार हो.बारह सौ सालाना आज से तुम्हारी तनख्वाह होगी.‘‘
ऐसे वक्त में, जब हिंदुस्तान में संसद से सड़क तक असहिष्णुता का माहौल हो, अजमेर और दिल्ली से सूफियों के मजार पर वसंत का ये त्यौहार आपको सुकून और प्यार से भर देता है.
-लेखक सीनियर पत्रकार हैं. बीबीसी में लंबे समय तक काम करने का अनुभव है.