काकोरी ट्रेन डकैती: शहीदों की शहादत ने दिया आज़ादी को नया मोड़

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 10-08-2024
काकोरी ट्रेन एक्शन दिवस :  राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्लाह खां और उनके साथियों की शहादत से बदल गई थी स्वतंत्रता दिवस की दशा और दिशा
काकोरी ट्रेन एक्शन दिवस : राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्लाह खां और उनके साथियों की शहादत से बदल गई थी स्वतंत्रता दिवस की दशा और दिशा

 

-ज़ाहिद ख़ान

आज़ादी, हमें यूं ही भीख या तोहफे़ में नहीं मिल गई, यह लाखों देशवासियों की कु़र्बानियों का नतीजा है.इसे हासिल करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने जेल में भयानक यातनाएं झेलीं. उनके परिवार को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा.हज़ारों फ़ांसी पर चढ़े, तब जाकर आज़ादी की सुनहरी सुबह निकलकर आई.

आज़ादी के इस आंदोलन में अलग-अलग धाराएं मसलन कांग्रेसी अहिंसावादी, नेताजी सुभाषचंद बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज, तो मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित क्रांतिकारी एक साथ काम कर रहे थे.सभी का आख़िरी मक़सद देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराना था.

 ग़दर पार्टी और ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से जुड़े क्रांतिकारियों का यक़ीन सशस्त्र क्रांति पर था.उनकी सोच थी कि अंग्रेज़ हुकूमत से आज़ादी संघर्ष और लड़ाई से ही हासिल होगी.ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के आगे हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाने से देश आज़ाद नहीं होगा.

 आज़ादी, क़ुर्बानी मांगती है.ऐसे ही इंक़लाबी पं. रामप्रसाद बिस्मिल थे,जिन्होंने उस ज़माने में अपने बहादुरी भरे कारनामों से अंग्रेज़ हुकूमत को हिलाकर रख दिया था.महज 30साल की उम्र में वे देश की आज़ादी के ख़ातिर शहीद हो गए.

  साल 1924में रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने कुछ क्रांतिकारी साथियों के साथ ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की क़ायमगी की.शचीन्द्र सान्याल संगठन के अहम कर्ता-धर्ता थे, तो वहीं रामप्रसाद बिस्मिल को सैनिक शाखा का प्रभारी बनाया गया.इस संगठन के माध्यम से क्रांतिकारियों ने पूरे देश में आज़ादी के आंदोलन को एक नई रफ़्तार दी.

संगठन की तमाम बैठकों में सिर्फ़ एक ही नुक़्ते, देश की आज़ादी पर बात होती.यही नहीं अंग्रेज़ हुकूमत से किस तरह से निपटा जाए, क्रांतिकारी इसके लिए नई-नई योजनाएं बनाते.क्रांति के लिए हथियारों की ज़रूरत थी.ये हथियार बिना पैसों के हासिल नहीं हो सकते.यही वजह है कि रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने कुछ साथियों के साथ मैनपुरी में एक डकैती डाली.

 इस डकैती में क्रांतिकारी दल के हाथ में काफ़ी पैसा आया, जिससे उन्होंने हथियार खरीदे और अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां तेज़ कर दीं.इस वाक़ये के बाद रामप्रसाद बिस्मिल अंग्रेज़ी हुकूमत की निगाहों में आ गए.सरकार उन पर नज़र रखने लगी.बावजूद इसके रामप्रसाद बिस्मिल और उनका क्रांतिकारी दल अपने मक़सद से बिल्कुल नहीं डिगा,

 जल्द ही उन्होंने एक और बड़ा प्लान बनाया.यह प्लान था, सरकारी ख़ज़ाने को लूटना.ख़ज़ाना लूटने का मक़सद उस पैसे का इस्तेमाल अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ करना था,ताकि इंक़लाबी सरगर्मियां और रफ़्तार पकड़ें.

9अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली ट्रेन को लखनऊ से 20किलोमीटर की दूरी पर स्थित काकोरी स्टेशन पर लूट लिया गया.इस सनसनीख़ेज़ वाक़ये को अंज़ाम देने वालों में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्लाह ख़ॉं, राजेंद्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ बख्शी, ठाकुर रोशन सिंह और केशव चक्रवर्ती समेत दस क्रांतिकारी शामिल थे.

 क्रांतिकारी, ट्रेन में रखे ख़ज़ाने को लूटकर रफ़ूचक्कर हो गए.क्रांतिकारियों का यह वाक़ई दुःसाहसिक कारनामा था.इस घटना से पूरे देश में हंगामा हो गया.अंग्रेज़ी हुकूमत की नींद उड़ गई.काकोरी ट्रेन एक्शन के बाद बौखलाए अंग्रेज़ों ने हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के चालीस क्रांतिकारियों पर डकैती और हत्या का मामला दर्ज किया.

बहरहाल, अंग्रेज़ हुक्मरानों ने क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार करने के लिए हर जगह अपने मुख़बिर फैला दिए.उनकी ये कोशिशें जल्द रंग लाईं .क्रांतिकारी दल का एक साथी अंग्रेज़ सरकार के हाथ लग गया.इसने सरकार के आगे काकोरी ट्रेन एक्शन के सभी नायकों के नामों का खु़लासा कर दिया.काकोरी ट्रेन एक्शन में शामिल सभी क्रांतिकारी गिरफ़्तार कर लिए गए.

 उन्हें जेल भेज दिया गया.जेल में रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों को पुलिस द्वारा कई प्रलोभन दिए गए कि वे सरकार से माफ़ी मांग लें. उन्हें रिहा कर दिया जाएगा.मगर वे इन प्रलोभनों में नहीं आए.

 रामप्रसाद बिस्मिल ने अदालत में अपने मामले की पैरवी खु़द की.अदालत में अपनी दलीलों से उन्होंने सरकारी वकील और अंग्रेज़ जज को भी हैरान कर दिया.वकील लाख़ चाहने के बाद भी क्रांतिकारियों पर कोई इल्ज़ाम साबित नहीं कर पा रहा था.

 काकोरी ट्रेन एक्शन मामला, अदालत में तक़रीबन डेढ़ साल चला.इस दरमियान अंग्रेज़ सरकार की ओर से 300गवाह पेश किए गए, लेकिन वे यह साबित नहीं कर पाए कि इस वारदात को क्रांतिकारियों ने अंज़ाम दिया है.

 बहरहाल, अदालत की यह कार्यवाही तो महज़ एक दिखावा भर थी.इस मामले में फै़सला पहले ही लिख दिया गया था.क्रांतिकारियों को भी यह सब मालूम था, लेकिन वे ज़रा सा भी नहीं घबराए। अदालत के सामने बेख़ौफ़ बने रहे.

आख़िरकार, अदालत ने बिना किसी ठोस सबूत के रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों को काकोरी ट्रेन एक्शन का गुनहगार ठहराते हुए, फांसी की सज़ा सुना दी.इस एक तरफ़ा फै़सले के बाद भी आज़ादी के मतवाले जरा सा भी नहीं घबराए.

उन्होंने पुर—ज़ोर आवाज़ में अपनी मनपसंद ग़ज़ल के अश्आर अदालत में दोहराए, ‘‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/देखना है, ज़ोर कितना बाज़ू—ए—क़ातिल में है.’’

 यह अशआर अदालत में नारे की तरह गूंजा, जिसमें अदालती कार्यवाही देख रही अवाम ने भी अपनी आवाज़ मिलाई.17दिसंबर, 1927को राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को गोंडा में और 19दिसम्बर के दिन पं. रामप्रसाद बिस्मिल—गोरखपुर, अशफ़ाक़ उल्ला खॉं—फ़ैज़ाबाद और रोशन सिंह को इलाहाबाद की जेल में फांसी दे दी गई.

कुछ क्रांतिकारियों को काला पानी की सज़ा, तो कुछ को चार से चौदह साल तक की क़ैद की सज़ा सुनाई गई.फांसी देने से पहले जब बिस्मिल की आख़िरी चाहत पूछी गई, तो उन्होंने बड़े ही बहादुरी से जवाब दिया, ‘‘मैं अपने मुल्क से ब्रिटिश हुकूमत का ख़ात्मा चाहता हूं.ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो.’’ जल्लाद फांसी का फ़ंदा लेकर रामप्रसाद बिस्मिल की ओर बढ़ा, तो उन्होंने यह फ़ंदा उससे छीनकर मुस्कराते हुए, ख़ुद ही अपने गले में डाल लिया.

रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों की शहादत से देशवासियों पर बेहद असर पड़ा.इस घटना से भगतसिंह भी प्रभावित हुए.उन्होंने जनवरी, 1928में पंजाबी मासिक ‘किरती’ में इस पूरी घटना का तफ़्सील से ब्यौरा देते हुए लिखा, ‘‘फांसी पर ले जाते समय आपने बड़े ज़ोर से कहा, ‘वन्दे मातरम् ! भारतमाता की जय .’ और शान्ति से चलते हुए कहा, ‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू़ रहे; जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही ज़िक्र और तेरी जुस्तजू रहे !’

फाँसी के तख़्ते पर खड़े होकर आपने कहा, ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ !’ उसके पश्चात यह शेर कहा, ‘अब न अहल—ए-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिल—ए-बिस्मिल में है !'' अपने लेख के आख़िर में भगतसिंह लिखते हैं, ‘‘आज वह वीर इस संसार में नहीं है.

 उसे अंग्रेज़ी सरकार ने अपना सबसे बड़ा ख़ौफ़नाक दुश्मन समझा.आम ख़याल था कि वह ग़ुलाम देश में जन्म लेकर भी सरकार के लिये बड़ा भारी ख़तरा बन गया था.लड़ाई की विद्या से ख़ूब परिचित था.’’ बहरहाल, क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों की शहादत का भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम पर फै़सलाकुन असर पड़ा.इस शहादत ने आज़ादी की लड़ाई की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी.

कै़द की हालत में रामप्रसाद बिस्मिल ने जेल में अपनी आत्मकथा लिखी,जिसे एक और महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार-संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने बिस्मिल की शहादत के बाद प्रकाशित किया.जिसे अंग्रेज़ी हुकूमत ने ज़ब्त कर लिया.

‘काकोरी के शहीद’ के नाम से प्रकाशित इस आत्मकथा में बिस्मिल देशवासियों से आख़िर में एक गुज़ारिश करते हैं, ‘‘जो कुछ करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें.इसी से सबका भला होगा.’’

रामप्रसाद बिस्मिल हिंदू-मुस्लिम एकता के बड़े पैरोकार थे.क्रांतिकारी अशफ़ाक़उल्ला खॉं उनके जिगरी दोस्त थे.देशवासियों के नाम उन्होंने अपने एक पैग़ाम में कहा था, ‘‘सरकार ने अशफ़ाक़उल्ला ख़ॉं को रामप्रसाद का दाहिना हाथ क़रार दिया.

 अशफ़ाक़उल्ला कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्यसमाजी रामप्रसाद के क्रान्तिकारी दल का हाथ बन सकते हैं, तब क्या नये भारतवर्ष की स्वतंत्रता के नाम पर अपने निजी छोटे-छोटे फ़ायदों का ख़याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते ?’

मुल्क की आज़ादी को मिले एक लंबा अरसा हो गया, लेकिन पं. रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों के बहादुरी भरे क़िस्से आज भी देशवासियों की ज़ु़बान पर हैं.इन क्रांतिकारियों की शहादत का नतीज़ा है कि हम आज खुली हवा में सांस ले रहे हैं.