राकेश चौरासिया
रमजान माह के दौरान रोजा रखना आत्म-संयम, आत्म-शुद्धि, और ईश्वर के प्रति समर्पण का प्रतीक है. रोजा रखने से न केवल आध्यात्मिक लाभ होते हैं, बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभ भी हैं. रोजा रखने से व्यक्ति अपनी इच्छाओं और भावनाओं पर नियंत्रण रखना सीखता है. रोजा रखने से व्यक्ति अपने शरीर और आत्मा को पापों और बुराइयों से शुद्ध करता है. रोजा रखने से व्यक्ति ईश्वर के प्रति अपनी आस्था और समर्पण व्यक्त करता है. रोजा रखने से व्यक्ति गरीबों और जरूरतमंदों के प्रति सहानुभूति और दयालुता का भाव विकसित करता है. इस्लाम में रोजा रखना एक महत्वपूर्ण इबादत है, लेकिन बच्चों के लिए रोजा रखने की उम्र को लेकर कुछ शर्तें हैं.
इस्लाम की रोशनी में रोजा बच्चे या बच्ची के किशोरावस्था में पहुंचने पर ही रोजा फर्ज होता. पैगंबर मुहम्मद (पीबीयूएच) ने कहा, ‘‘तीन लोगों से कलम उठा लिया गया है. एक, जो अपना दिमाग खो चुका है, जब तक कि वह होश में नहीं आता, एक जो सो रहा है, जब तक कि वह नहीं उठता और एक बच्चे से, जब तक वह किशोरावस्था तक नहीं पहुंच जाता.’’ (हदीस अबू दाऊद द्वारा वर्णित, 4399, अल-अल्बानी द्वारा सहीह अबी दाऊद में सहीह के रूप में वर्गीकृत)
इस तरह, 7 साल से कम उम्र के बच्चों को रोजा रखने की इजाजत नहीं है. 7 से 12 साल के बच्चों को रोजा रखने की प्रशिक्षण दिया जा सकता है. यदि बच्चा रोजा रखने में सक्षम है और उसे कोई परेशानी नहीं होती है, तो वह रोजा रख सकता है. 12 साल की उम्र के बाद रोजा रखना फर्ज हो जाता है.
हालांकि, कुछ विशेष परिस्थितियां भी हैं जिनमें बच्चों को रोजा नहीं रखना चाहिए:
बच्चों को रोजा रखने के लिए प्रोत्साहित करते समय, माता-पिता को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए:
यह भी ध्यान रखें कि हर बच्चे की क्षमता अलग होती है. इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि माता-पिता अपने बच्चे के स्वास्थ्य और क्षमता को ध्यान में रखते हुए रोजा रखने का निर्णय लें.