फ़िरदौस ख़ान
तीज-त्यौहार हमारी तहज़ीब और रिवायतों को क़ायम रखे हुए हैं. ये ख़ुशियों के ख़ज़ाने हैं. ये हमें ख़ुशी के मौक़े फ़राहम करते हैं. हमें ख़ुश होने के बहाने देते हैं. ये हमारी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा हैं. इन तीज-त्योहारों से किसी भी देश और समाज की संस्कृति व सभ्यता का पता चलता है. मगर बदलते वक़्त के साथ-साथ तीज-त्यौहार भी पीछे छूट रहे हैं या यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि ख़त्म होते जा रहे हैं. लेकिन आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो अपनी रिवायतों को क़ायम रखे हुए हैं.
अगर मुस्लिम त्यौहारों की बात करें, तो सिर्फ़ दो ही त्यौहारों के नाम लिए जाते हैं. एक है ईद उल फ़ित्र, जो माहे रमज़ान के ख़त्म होने के बाद शव्वाल की पहली तारीख़ को मनाई आती है. इसे मीठी ईद भी कहा जाता है. और दूसरा त्यौहार है ईद-उल-अज़हा, जिसे बक़रीद के नाम से भी जाना जाता है. ये ईद हज की ख़ुशी में मनाई जाती है और तीन दिन तक लोग क़ुर्बानी करते हैं. अहले-हदीस चार दिन क़ुर्बानी करते हैं. इन त्यौहारों के अलावा भी कई त्यौहार हैं, जिन्हें कुछ लोग पूरी अक़ीदत के साथ मनाते हैं. ऐसा ही एक त्यौहार है आख़िरी चहशंबा या आख़िरी चहार शंबा.
आख़िरी चहशंबा क्या है
हिजरी कैलेंडर के दूसरे महीने के आख़िरी बुध को आख़िरी चहशंबा मनाया जाता है. माना जाता है कि सफ़र के महीने में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तबीयत नासाज़ हो गई थी. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को बुख़ार हो गया था और सिर में भी दर्द था. इस माह के आख़िरी बुध को आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सेहतयाब हुए और ग़ुस्ल किया. फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने परवरदिगार की इबादत की, खाना खाया और सैर के लिए चले गए. इस दिन ख़ास नफ़िल नमाज़ें भी पढ़ी जाती हैं. माहे सफ़र के आख़िरी बुध को ‘सैर बुध’ के नाम से भी जाना जाता है.
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इस रोज़ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चाहने वाले लोगों ने अपने काम बंद रखे. उन्होंने भी ग़ुस्ल किया और अच्छे-अच्छे कपड़े पहने. उनके घरों में लज़ीज़ खाने पकाये गए. मीठे पकवान भी पकाये गए. उन्होंने शीरनी तक़सीम की. वे लोग भी अपने घरवालों के साथ तफ़रीह के लिए गए. कहने का मतलब यह है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सेहतयाब होने की ख़ुशी में आपके चाहने वालों ने ख़ुशियां मनाई थीं और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है.
क़ाबिले ग़ौर बात ये भी है कि इस त्यौहार की शुरुआत अरब की सरज़मीन में हुई थी, लेकिन अब वहां इस त्यौहार को मनाने के बारे में कोई जानकारी मुहैया नहीं है. लेकिन हिन्दुस्तान के बहुत से इलाक़ों में ये त्यौहार हर्षोल्लास से मनाया जाता है. ये इस देश की मिट्टी का असर है, यहां की आबोहवा का असर है कि यहां वह त्यौहार भी मनाए जाते हैं, जो अरब से लुप्त हो चुके हैं, ख़त्म हो चुके हैं.
दरअसल भारत तीज-त्यौहारों का देश है. यहां अमूमन हर महीने कोई न कोई त्यौहार आता रहता है. बहुत से त्यौहारों का ताल्लुक़ मज़हब से है, तो बहुत से त्यौहारों का नाता लोक जीवन से है. आख़िरी चहशंबा का ताल्लुक़ भले ही मज़हब से न हो, लेकिन इसका नाता अक़ीदत से ज़रूर है. ये मुहब्बत का त्यौहार है. ये प्यारे आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत से वाबस्ता त्यौहार है. और महबूब से वाबस्ता हर चीज़ से मुहब्बत हुआ करती है.
हिन्दुस्तान के अलावा ये त्यौहार पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी मनाया जाता है, क्योंकि ये दोनों देश भी कभी हिन्दुस्तान का ही हिस्सा हुआ करते थे. बांग्लादेश में इस दिन एक वैकल्पिक मुस्लिम अवकाश है. मुसलमान इस दिन छुट्टी लेते हैं और इस त्यौहार को ख़ुशी-ख़ुशी मनाते हैं.
कुछ जगहों पर इस दिन शीशे की सफ़ेद प्लेटों पर ज़ाफ़रान से क़ुरआन करीम की आयतें लिखने की रिवायत है. इसे सात सलाम के नाम से जाना जाता है. फिर इस प्लेट में पानी डालते हैं. जब प्लेट पर लिखी सब आयतें पानी में घुल जाती हैं, तो इस पानी को तावीज़ की सूरत में पी लिया जाता है. बुज़ुर्ग बताते हैं कि मुग़ल बादशाहों के दौर में ये त्यौहार ख़ूब हर्षोल्लास से मनाया जाता था.
इसके बरअक्स बहुत से लोग मानते हैं कि सफ़र के आख़िरी चहार शंबा को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मर्ज़ का आग़ाज़ हुआ था और इस दिन आसमान से बहुत सी बलायें ज़मीन पर उतरती हैं.
मशहूर मौरिख़ इब्ने साद फ़रमाते हैं कि चहार शंबा 28 सफ़र को रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मर्ज़ का आग़ाज़ हुआ था. (तबक़ात इब्ने साद 206)
मुहम्मद इदरीस कंधालवी तहरीर फ़रमाते हैं कि माहे सफ़र के आख़िरी अशरा में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक बार रात में उठे और फ़रमाया कि मुझे हुक्म हुआ है कि अहले बक़ी यानी मदीना मुनव्वरा के क़ब्रिस्तान के लिए अस्तग़फ़ार करूं. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वहां से वापस तशरीफ़ लाए, तो मिज़ाज नासाज़ हो गए. सिर में दर्द और बुख़ार की शिद्दत पैदा हो गई. ये उम्म-उल-मोमिनीन हज़रत मैमूना रज़ियल्लाहु अन्हु की बारी का दिन था और बुध का रोज़ था. (सीरत अल मुस्तफ़ा 3/157 )
मुहम्मद शफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि 28 सफ़र हिजरी चहार शंबा की रात में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ब्रिस्तान बक़ी में तशरीफ़ ले गए और अहले क़बूर के लिए मग़फ़िरत की दुआ की. वहां से तशरीफ़ लाए, तो सिर में दर्द, फिर बुख़ार हो गया. ये बुख़ार सहीह रिवायत के मुताबिक़ 13 रोज़ तक मुसलसल रहा और इसी हालत में वफ़ात हो गई. (सीरत-ए- ख़ातिमुल अम्बिया 141)
बरेली मकतबा फ़िक्र के अहमद रज़ा ख़ान का फ़तवा है कि आख़िरी चहार शंबा की कोई असल नहीं है और न ही सेहतयाबी रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का कोई सबूत है, बल्कि मर्ज़ अक़दस जिसमें वफ़ात हुई, उसकी इब्तिदा इसी दिन से बताई जाती है. (अहकाम-ए-शरीअत 3/183)
बरेली मकतबा फ़िक्र के आलमे-दीन मौलाना अमजद फ़रमाते हैं कि माहे सफ़र के आख़िरी चहार शंबा हिन्दुस्तान में बहुत मनाया जाता है. लोग अपने कारोबार बंद कर देते हैं और सैर व तफ़रीह को जाते हैं. पूरियां पकती हैं और नहाते-धोते हैं, ख़ुशियां मनाते हैं और कहते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस रोज़ ग़ुस्ले सेहत फ़रमाया था और बैरूने मदीने सैर के लिए तशरीफ़ ले गए थे. ये सब बातें बेअसल हैं, बल्कि उन दिनों में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मर्ज़ शिद्दत के साथ था. लोग जो बातें बताते हैं, वे सब ख़िलाफ़े-वाक़ा हैं.
बहरहाल, मुसलमानों के मुख़्तलिफ़ फ़िरक़ों की मुख़्तलिफ़ बातें हैं और सब अपनी-अपनी अक़ीदत के हिसाब से ज़िन्दगी बसर करते हैं. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यहां बसने वाले बहुत से मुसलमानों के रीति-रिवाजों में हिन्दुस्तानी तहजीब की झलक मिलती है. उनके त्यौहारों पर भी इसका साफ़ असर देखा जा सकता है. शायद इसी को गंगा-जमुनी तहज़ीब कहा जाता है.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है.)