जो ठान लिया, वो कर दिखाया– मंजुवारा की प्रेरणादायक कहानी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 09-03-2025
International Women's Day Special: Whatever I set out to do, I did it - Inspiring story of Manjuwara
International Women's Day Special: Whatever I set out to do, I did it - Inspiring story of Manjuwara

 

reshmaडॉ. रेशमा रहमान

किसी भी समाज में नए विचारों का समर्थन आसानी से नहीं मिलता. अक्सर बदलाव की राह में विरोध की लंबी कतार खड़ी होती है. मगर जब कोई व्यक्ति ठान ले कि उसे परिस्थितियों से समझौता नहीं करना, तो वह असंभव को भी संभव बना सकता है.

मंजुवारा मुल्ला एक ऐसी ही शख्सियत हैं, जिन्होंने असम के हाशिए पर मौजूद ‘मिया मुस्लिम’ समुदाय से निकलकर सामाजिक उद्यमिता की दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई.

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मिया मुस्लिम समुदाय: संघर्षों की कहानी

भारत विकासशील से विकसित राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा है, लेकिन समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी उपेक्षा का शिकार है. इन्हीं में से एक असम का ‘मिया मुस्लिम’ समुदाय है, जिसे अंग्रेजों ने पूर्वी बंगाल से लाकर ब्रह्मपुत्र नदी के चार-चोपारी क्षेत्र में बसाया था.

यह समुदाय आज भी पिछड़ेपन, गरीबी और सामाजिक भेदभाव से जूझ रहा है. मंजुवारा मुल्ला इसी समाज से आती हैं, जहां लड़कियों की शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता और कम उम्र में शादी एक आम परंपरा है.

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सपनों की उड़ान की शुरुआत

मंजुवारा मुल्ला का जन्म 1 जनवरी 1985 को असम में हुआ. उनके समाज में लड़कियों का बचपन घर की चारदीवारी और घरेलू कामकाज में ही गुजरता है. कम उम्र में शादी और जल्दी मातृत्व उनके जीवन की सामान्य प्रक्रिया होती है.

लेकिन मंजुवारा ने इस व्यवस्था को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. उन्होंने अपने पिता से पढ़ाई की इच्छा जताई. शुरुआती विरोध के बावजूद परिवार ने उनके जुनून के आगे हार मान ली.

शिक्षा पूरी करने के बाद भी समाज के दबाव के चलते उन्हें शादी करनी पड़ी, लेकिन उनके पति ने उनका भरपूर साथ दिया. उन्होंने आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने का निर्णय लिया.

इसी दौरान कोविड-19 महामारी उनके लिए एक नया अवसर लेकर आई. उन्होंने मास्क बनाने के काम से शुरुआत की और जल्द ही ‘अमरापारी हैंडलूम’ नामक एक एनजीओ की स्थापना की, जिसने कई महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ा.

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अमरापारी हैंडलूम: परंपरा और आत्मनिर्भरता का संगम

अमरापारी एनजीओ असम की सदियों पुरानी पारंपरिक ‘कांथा कला’ को पुनर्जीवित करने के लिए काम कर रहा है. यह कला पहले घरेलू उपयोग तक सीमित थी, लेकिन आधुनिक बाजार की चमक-धमक के बीच यह विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई थी.

चार-चोपारी क्षेत्र की महिलाएं इस कला में पारंगत थीं, लेकिन इसे व्यावसायिक रूप नहीं दिया गया था. मंजुवारा मुल्ला ने इस हुनर को बाजार तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया.

एनजीओ के माध्यम से आज हजारों महिलाएं इस कला से जुड़कर आत्मनिर्भर बन रही हैं. वे पारंपरिक तरीके से साड़ियों, सूट, दुपट्टे, तकिया कवर, टेबल कवर और वॉल हैंगिंग जैसी वस्तुएं तैयार कर रही हैं, जिनकी मांग देश-विदेश में बढ़ रही है.

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महिलाओं के जीवन में बदलाव

अमरापारी एनजीओ ने चार-चोपारी की महिलाओं के जीवन में बड़ा बदलाव लाया है. पहले जहां महिलाएं घरेलू हिंसा, आर्थिक संकट और सामाजिक प्रतिबंधों से जूझ रही थीं, अब वे अपनी मेहनत से आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो रही हैं.

इस बदलाव के सकारात्मक प्रभाव दिखाई देने लगे हैं:
घरेलू हिंसा में कमी आई है.
महिलाओं को अपने फैसले खुद लेने की आजादी मिली है.
पुरुष भी अब महिलाओं के काम को स्वीकार करने लगे हैं और उनका समर्थन कर रहे हैं
कुछ पुरुष घर के कामों में भी हाथ बंटाने लगे हैं और बच्चों की देखभाल करने लगे हैं.

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान

मंजुवारा मुल्ला का एनजीओ आज देशभर में चर्चा का विषय बन चुका है. उन्हें कई विश्वविद्यालयों और संस्थानों में सम्मानित किया गया है. हाल ही में ‘असम स्टार्टअप’ की ओर से उन्हें प्रमाणपत्र प्रदान किया गया, साथ ही कई प्रतिष्ठित पुरस्कार भी उनके नाम दर्ज हुए.

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संघर्ष और सफलता की मिसाल

मंजुवारा मुल्ला की कहानी इस बात का प्रमाण है कि अगर कोई महिला ठान ले तो वह अपने भाग्य की लेखिका खुद बन सकती है. उन्होंने न केवल गरीबी और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा, बल्कि अपने समुदाय की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी एक क्रांतिकारी कदम उठाया.

उनका कार्य महिला सशक्तिकरण और पारंपरिक कला संरक्षण का एक आदर्श उदाहरण है.

लेखिका: सहायक प्रोफेसर और शोधकर्ता, यूएसटीएम