पुस्तक समीक्षा : शेहला रशीद के ‘रोल मॉडल्स’

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 14-11-2024
Book Review: Shehla Rashid's 'Role Models'
Book Review: Shehla Rashid's 'Role Models'

 

joshiप्रमोद जोशी

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं.)

प्रसिद्ध पत्रकार, राजनेता और इस्लामिक-विद्वान रफीक़ ज़करिया ने लिखा है, हिंदू-मुस्लिम रिश्तों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू रहे हैं, कभी एक हावी रहा है, तो कभी दूसरा. उन्होंने यह भी लिखा, ‘सिर्फ हिंदुओं की सदाशयता से ही इस देश में मुसलमानों का भविष्य सुरक्षित रह सकता है.’ यह बात अयोध्या-विवाद की छाया में लिखी गई उनकी एक किताब में है.

कुछ साल पहले पत्रकार सईद नकवी ने अपनी किताब ‘वतन में पराया’ में बड़े मार्मिक तरीके से हिंदुस्तान के मुसलमान की व्यथा को दर्ज किया. वे मानते हैं कि मुसलमानों को ‘अपने ही वतन में पराया’ किया जा रहा है.उसके पहले और बाद में तमाम भारतीय और विदेशी लेखकों ने हिंदू-मुस्लिम रिश्तों पर किताबें लिखी हैं.

पिछले तीन चार दशकों में एजी नूरानी, रफ़ीक ज़कारिया, एमजे अकबर, अब्दुर रहमान से लेकर हिलाल अहमद तक ने मुसलमानों की भूमिका, उनकी पहचान और भविष्य को लेकर विचारोत्तेजक विवेचन, विश्लेषण और अपने निष्कर्ष लिखे हैं. भारत में मुसलमानों की उपेक्षा और उत्पीड़न (डेप्रिवेशन और विक्टिमहुड) ज्यादातर इस चर्चा के केंद्र में रहते हैं.

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर जोर्ग फ्रेडरिक्स ने 2019में प्रकाशित अपनी किताब ‘हिंदू-मुस्लिम रिलेशंस: ह्वाट यूरोप माइट लर्न फ्रॉम इंडिया’ के बारे में एक लेख में लिखा, अपनी किताब पर शोध करते हुए, मैंने दुनिया पर नज़र डालने का फ़ैसला किया, ताकि यह देखा जा सके कि गैर-मुस्लिम बहुसंख्यक और मुस्लिम अल्पसंख्यक एक साथ कैसे रह सकते हैं. मुझे लोकतांत्रिक भारत से कुछ सीखने को मिला.

उन्होंने लिखा, यूरोपीय लोग सामुदायिक संबंधों के प्रबंधन के मामले में भारत से बहुत कुछ सीख सकते हैं… कई शताब्दियों से भारत में हिंदू और मुसलमान  शांतिपूर्ण ढंग से सह-अस्तित्व में रहे हैं, यूरोप के विपरीत, जहाँ दो या तीन पीढ़ियों पहले तक लगभग हर अल्पसंख्यक को उत्पीड़न का खतरा था.

हिंदू-मुस्लिम संबंध कभी-कभी भयावह पैमाने की घातक हिंसा में भी बदले. 1947में, जब पाकिस्तान भारत से अलग हुआ, तो दोनों पक्षों में भयंकर हिंसा हुई.इतनी हिंसा और पाकिस्तान के अलग होने के बाद भी मुसलमान भारत का अभिन्न अंग बने हुए हैं.

इस चर्चा के संदर्भ में एक नए नज़रिए के साथ हाल में प्रकाशित शेहला रशीद शोरा की किताब ‘रोल मॉडल्स-इंस्पायरिंग स्टोरीज़ ऑफ इंडियन मुस्लिम अचीवर्स’ ने इस बहस को एक अलग दिशा देने की कोशिश की है. इसमें प्रबुद्ध भारतीय मुसलमानों के दृष्टिकोण में व्यक्त होती कटुता या खिन्नता नहीं है, बल्कि आधुनिक भारत में मुसलमानों की भूमिका को उन्होंने सकारात्मक तरीके से रेखांकित करने की कोशिश की है.

इस लिहाज से यह किताब कुछ अलग है. साथ ही इस नज़रिए से भी महत्वपूर्ण है कि यह शेहला रशीद के अपने दृष्टिकोण में बदलाव को भी रेखांकित कर रही है.जुलाई, 2015में एक प्रसिद्ध प्रकाशक ने घोषणा की थी कि शेहला रशीद के कैंपस-राजनीति पर आधारित लेखों को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करेगा, जिसका शीर्षक होगा ‘आई, स्टूडेंट’. उनकी किताब की पेशकश कन्हैया कुमार को एक दूसरे प्रकाशक से मिली पेशकश के बाद की गई थी.

उस किताब का शीर्षक था ‘फ्रॉम बिहार टु तिहाड़’, जिसमें उनके स्कूली दिनों से लेकर विवादास्पद गिरफ्तारी तक की यात्रा को दर्शाने की बात थी. कन्हैया कुमार की किताब तो आ गई, पर शेहला रशीद की किताब नहीं आई.जिस दौर में इन किताबों की घोषणा हुई थी, उस दौर में कन्हैया कुमार जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे और शेहला रशीद उपाध्यक्ष.

जेएनयू में छात्रसंघ का चुनाव जीतने वाली वे पहली कश्मीरी महिला थीं. शेहला ने तमाम विरोध-प्रदर्शनों की कयादत की थी. उन्हें अक्सर टीवी चैनलों पर राजव्यवस्था के प्रतिरोध की बातें करते हुए देखा जाता था. एक दौर में वामपंथी नौजवानों की आवाज़ माना जाता था, जो भारतीय राष्ट्र-राज्य से टकराव मोल ले रहे थे.

कुल मिलाकर उन्हें आधुनिक, प्रगतिशील और वामपंथी रुझान से जोड़कर ही देखा जाता रहा है. 2013में, जब युवा मुस्लिम महिलाओं के बैंड, प्रगाश को कश्मीर में इस्लामी रूढ़िवादियों से ऑनलाइन उत्पीड़न और मौत की धमकियों का सामना करना पड़ा, तो वे बैंड के समर्थन में भी मुखर हुईं. कुछ समय के लिए वे जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट में शामिल हुई थीं, जिसे पूर्व आईएएस अधिकारी शाह फैसल ने शुरू किया था.

बाद में उन्होंने उस संगठन को छोड़ दिया. शाह फैसल के विचारों में भी बदलाव आया और वे आईएएस में दुबारा वापस चले गए. शेहला रशीद के विचारों में हाल के वर्षों में कुछ बदलाव आया है, जो उनकी इस किताब में दिखाई पड़ता है.मुसलमानों के संदर्भ में एक लंबे अर्से से, बल्कि उन्नीसवीं सदी से ही भारतीय लोकवृत्त में ज्यादातर जो बातें लिखी या कही गई हैं, उनमें निराशा का भाव गहरा है. पर शेहला की यह किताब भारतीय मुसलमानों के उजले और सकारात्मक पक्ष पर ज़ोर देती है.

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इसमें संगीतकार एआर रहमान, टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा, बॉलीवुड की अभिनेत्री हुमा कुरैशी, जनरल (सेनि) सैयद अता हसनैन, इसरो की निगार शाज़ी और यमन में भारत के पूर्व राजदूत डॉक्टर औसाफ सईद, प्रोफेसर तारिक मंसूर, प्रोफेसर फैज़ान मुस्तफा और डॉ जमाल खान जैसे कई महत्वपूर्ण लोगों के बारे में जानकारी है. कुछ प्रकाशित-अप्रकाशित लेख, शेहला के अपने हैं और कुछ दूसरों के. बॉलीवुड के स्क्रिप्ट राइटर सलीम ने इसकी प्रस्तावना लिखी है.

किताब का स्पष्ट-लक्ष्य मुसलमानों के ‘उपेक्षित और उत्पीड़ित छवि’ से हटना है, जिसके लिए उन्होंने उन मुसलमानों का ज़िक्र किया है, जिन्होंने देश और इंसानियत के लिए कुछ उपलब्धियाँ हासिल कीं, पर उन्हें मुसलमानों का हीरो इसलिए नहीं माना गया, क्योंकि न तो वे शहीद हुए और न उत्पीड़ित. इस सिलसिले में उन्होंने सर सैयद का नाम भी लिया, जिन्होंने जब आधुनिकता को लेकर अपने विचार व्यक्त किए, तो उनके विरुद्ध फतवे ज़ारी होने लगे.

उन्होंने लिखा है कि जब ज्यादातर भारतीयों ने देश के 11वें राष्ट्रपति डॉ एपीजे कलाम को रोल मॉडल माना, तो हमारे समुदाय में इस बात पर बहस थी कि मुसलमान होने के नाते उन्होंने ऐसा क्या बड़ा काम कर दिया. शेहला ने लिखा है कि यह प्रवृत्ति केवल भारत के मुसलमानों के भीतर ही नहीं रही है, दुनिया के पहले मुस्लिम नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अब्दुस सलाम को पाकिस्तान में अपने सम्मान में हुए समारोह में भी नहीं जाने दिया गया था.

किताब में एक अध्याय आमना बेगम अंसारी ने लिखा है, जिसमें उन्होंने बताया कि मुसलमानों के भीतर उपेक्षा, उत्पीड़न की भावनाएं भरते हुए किस तरीके से उन्हें कट्टरता और चरमपंथ की ओर ले जाने की कोशिशें होती हैं. उन्होंने लिखा है कि व्यापक स्तर पर विवेचन करें, तो पाएंगे कि मुसलमानों के मन में ‘अलगाव की भावना’ इसलिए नहीं है कि उनके साथ व्यवस्थागत अन्याय हुआ है, बल्कि ‘उत्पीड़न की भावनाएं’ उनके भीतर भरने से भी यह अलगाव पैदा हुआ है.

उन्होंने लिखा है कि जहाँ तक मुसलमानों की गरीबी का मामला है, दुनियावी ज्ञान से ज्यादा उन्हें दीनी-तालीम पर भरोसा करने की सलाह दी जाती है.किताब कुल मिलाकर मुसलमानों के भीतर बदलाव की ज़रूरत को रेखांकित करती है. 286 पेज की किताब में नागरिकों के रूप में मुसलमानों के योगदान को पूरी तरह दर्ज करना संभव नहीं है, और शेहला के अनेक निष्कर्षों से आंशिक रूप से सहमत और असहमत हुआ जा सकता है.

अलबत्ता बदलाव या सुधार के लिए वे जिस ‘मुस्लिम सिविल सोसायटी’ का आह्वान कर रही हैं, वह महत्वपूर्ण है.उनके आलोचक इसके पीछे शेहला की राजनीति को भी खोजेंगे, पर मूल बात उन बिंदुओं पर ध्यान देने की है, जिन्हें उन्होंने रेखांकित किया है. किताब के उपसंहार में उन्होंने लिखा, जब से मैं नवंबर, 2023में एएनआई पर स्मिता प्रकाश के साथ एक पॉडकास्ट में आई थी, जहाँ मैंने जम्मू-कश्मीर में मोदी सरकार के निर्णायक कदमों की प्रशंसा की थी, मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं कि कश्मीर में 'वास्तविक स्थिति' क्या है.

इस सवाल के जवाब में उन्होंने लिखा है, अनुच्छेद 370और 35ए सामाजिक रूप से प्रतिगामी थे. अनुच्छेद 370हटने के बाद, मैं सुबह की सैर के लिए डल झील के किनारे बुलेवार्ड रोड पर जाती थी. वर्कआउट परिधान में लड़कियों को टहलते, साइकिल चलाते और दौड़ते देखकर हम दंग रह गए. हमारे लिए यह ऐतिहासिक बदलाव था. कश्मीर में पले-बढ़े होने का मतलब था कि हमें दिल्ली और दूसरे शहरों में जींस पहनने जैसी साधारण चीज़ों के लिए भी नैतिक पुलिसिंग का सामना करना पड़ता था.

…सरकार धीरे-धीरे ऐसा माहौल बना रही है, जहाँ प्रतिशोध, सेंसरशिप या बंदूक हिंसा के डर के बिना राजनीतिक राय व्यक्त की जा सकती है. लोकतंत्र, सबसे पहले, राजनीतिक विचारों का बाज़ार है, लेकिन राजनीतिक राय रखने की आज़ादी को सॉफ्ट-अलगाववाद के हाथों बंधक बना दिया गया, जो अस्तित्व-रक्षा का मुख्य सूत्र बन गया था… सरकार ने पंचायती राज्य के सभी स्तरों के चुनाव सुनिश्चित करके लोकतांत्रिक-प्रक्रिया में 27,000 से ज्यादा हितधारकों को जोड़ा है.

इन निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों में 9,000से ज्यादा महिलाएँ हैं.इस उपसंहार के अंतिम पैरा में वे लिखती हैं, पाक प्रायोजित आतंकवाद की बड़ी भू-राजनीति को ध्यान में रखते हुए, भारत को मुसलमानों के लिए एक बड़ी भूमिका तैयार करनी चाहिए, खासकर जब घरेलू और वैश्विक स्तर पर हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा स्थिति और रणनीतिक उद्देश्यों को स्पष्ट करने की बात आए तब.

हमारी विविधता का राजनयिक शक्ति के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए. यह पुस्तक भारत की विविधता और खुलेपन को प्रदर्शित करने की कोशिश जरूर है. इस पुस्तक में जिन दर्जन भर लोगों को शामिल किया गया है, वे भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले सर्वोच्च स्तर के छह नागरिक सम्मानों को साझा करते हैं. भारतीय मुसलमान सेना सहित सभी क्षेत्रों में सर्वोच्च पदों तक पहुँचने की महत्वाकांक्षा रख सकते हैं.

आखिर दुनिया में कितने गैर-इस्लामिक देश मुस्लिम जनरलों का दावा कर सकते हैं? हमारी सेना में एक नहीं बल्कि अनेक मुसलमान-जनरल, तीन मुस्लिम राष्ट्रपति, कई बॉलीवुड सितारे और जीवन के हरेक क्षेत्र में तमाम अग्रणी मुसलमान रहे हैं. इस विविधता को ज़ाहिर करने और उसका जश्न मनाने की ज़रूरत है. मुसलमानों को भी पीड़ित (विक्टिम) होने की भावना छोड़ देनी चाहिए. उन्हें माज़ी से बाहर निकल कर आज की दुनिया में आना चाहिए.

उनकी निगाह में भारत पश्चिम से कहीं ज़्यादा धर्मनिरपेक्ष है. मुसलमानों को तेजी से प्रगति कर रहे भारत के सपने में भागीदार बनना होगा. इसके लिए शोरगुल, चुनावी बयानबाजी को नजरअंदाज करके एक आदर्श अल्पसंख्यक की तरह उन्हें आगे बढ़ना होगा. कहना मुश्किल है कि यह किताब भारत के मुसलमानों, खासतौर से युवकों तक कितना पहुँच पाएगी, पर इसे पहुँचाना चाहिए. इसके लिए इसका हिंदी और उर्दू संस्करण भी तैयार किया जा सकता है.

पुस्तक: रोल मॉडल्स-इंस्पायरिंग स्टोरीज़ ऑफ इंडियन मुस्लिम अचीवर्स

लेखिका: शेहला रशीद

प्रकाशक: पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया