युद्धग्रस्त सीरिया से बचकर लौटी असम की बेटी शहनाब शाहीन, फिर तैयार है मदद की मशाल थामने

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 20-12-2024
Assam's daughter Shahnab Shaheen returned from war-torn Syria, is ready to take up the torch of help again
Assam's daughter Shahnab Shaheen returned from war-torn Syria, is ready to take up the torch of help again

 

सौरव कुमार बोरा

असम की एक महिला शहनाब शाहीन सीरिया के युद्ध क्षेत्र से घर लौटने में कामयाब रही हैं. उन्होंने 8 दिसंबर को दमिश्क एयरपोर्ट से आखिरी उड़ान भरी. तब तक सशस्त्र विद्रोहियों ने राजधानी दमिश्क को दो दिनों तक घेरे रखा था. राष्ट्रपति बशर अल-असद की सेना को विद्रोही नेता मोहम्मद अल-जुलानी के लड़ाकों ने राजधानी के बाहरी इलाकों में एक के बाद एक लड़ाई में हराया. सीरिया में तैनात रूसी सेना ने भी असद की सेना को धोखा दिया.

ईरान की ओर से भी कोई मदद या समर्थन नहीं मिला, जो इजरायली हमलों के बीच खुद को बचाने में व्यस्त था. आखिरकार, यह जानते हुए कि सरकारी बलों की हार निश्चित है, राष्ट्रपति बशर अल-असद 24 साल की तानाशाही के बाद देश छोड़कर भाग गए. रूसी इल्यूशिन-75 विमान (निजी) सीरिया के दमिश्क हवाई अड्डे से उड़ान भरने वाला आखिरी विमान था.

उससे ठीक पहले, असम की एक महिला शहनाब शाहीन भारी गोलाबारी और रॉकेट-मिसाइल हमलों के बीच सीरिया छोड़कर चली गई थी. शहनाब पिछले दो सालों से युद्धग्रस्त सीरिया में काम कर रही थी. गुवाहाटी की  बहादुर युवती शहनाब, जो कभी असम सरकार में प्रशासनिक अधिकारी थी, सीरिया के युद्ध क्षेत्र में मानवीय सहायता प्रदान करने वाले इतालवी अंतरराष्ट्रीय स्वैच्छिक संगठन COSV की कंट्री हेड है.

शहनाब पिछले दो सालों से विद्रोहियों और सरकारी बलों के बीच युद्ध से प्रभावित सीरियाई लोगों को आजीविका सुनिश्चित करने और मानवीय सहायता प्रदान करने के लिए काम कर रही हैं. लेकिन 27 नवंबर के बाद से सीरिया में विद्रोहियों के हमले तेज़ हो गए. एक के बाद एक शहर गिरते गए. अचानक युद्ध की स्थिति में काफ़ी बदलाव आया.



तब तक विद्रोही और सरकारी बलों के बीच गोलीबारी होती रही. रूस और अमेरिका की बमबारी जारी रही. सीरिया पर इजरायली मिसाइल हमले जारी रहे, लेकिन वे काफी हद तक लक्षित थे. हालांकि, लड़ाई वास्तव में 27 नवंबर को मोहम्मद अल-जुलानी के हयात तहरीर अल-शाम (HTS) और उसके सहयोगी विद्रोही समूह जैश अल-इज्जा के बीच असद सरकार की सेनाओं के खिलाफ शुरू हुई थी. यह वास्तव में 12 दिनों की लड़ाई थी.

 अलेप्पो के पतन के बाद, ऐसा माना जा रहा था कि विद्रोही वहां अपना अड्डा बना लेंगे. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ. थोड़े ही समय में विद्रोहियों ने दमिश्क पर कब्ज़ा करने के लिए राजधानी शहर की घेराबंदी कर ली. युद्ध की स्थिति में अचानक आए बदलाव के कारण दमिश्क में मौजूद विदेशियों के पास तुरंत वहाँ से चले जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था.

दमिश्क या सीरिया के दूसरे शहरों में भारतीय नागरिक असमंजस में थे. देश में भारतीय दूतावास ने तब भी कोई कार्रवाई नहीं की. शायद भारतीय राजनयिक विद्रोहियों की इस अप्रत्याशित बढ़त और एक के बाद एक जीत हासिल करने का अनुमान नहीं लगा पाए थे. भीषण युद्ध के बीच सीरिया में काम कर रहे भारतीय नागरिकों के बीच हताशा की स्थिति थी.

हालांकि, सीरिया में अन्य भारतीयों की तरह शहनाब शाहीन उतनी बदकिस्मत नहीं थीं. इतालवी एनजीओ COSV, जिसके लिए वह सीरिया में देश की प्रमुख के रूप में काम कर रही थीं, ने शहनाब के लिए तत्काल बचाव अभियान शुरू किया. 

उन्होंने शहनाब से पूछा कि उसकी यात्रा की योजना क्या होगी और उसे अपने हिसाब से सलाह दी. उन्होंने शहनाब को 6 दिसंबर को दमिश्क छोड़ने का निर्देश दिया. उसे लेबनान की राजधानी बेरूत तक ज़मीन के रास्ते यात्रा करने की सलाह दी, क्योंकि हवाई मार्ग ख़तरनाक था..

 इस बीच, लेबनान में हिजबुल्लाह के खिलाफ इजरायली हमले और बमबारी जारी रही. शहनाब बेरूत हवाई अड्डे पर पहुंची.  27 सितंबर को, इज़राइल ने ज़मीन की सतह से 200 मीटर नीचे एक बंकर पर बंकर ब्लास्टर बम गिराया, जिससे मध्य पूर्व के सबसे शक्तिशाली सशस्त्र विद्रोही नेता हसन नसरल्लाह की मौत हो गई.

शहनाब के लिए बेरूत और बेरूत एयरपोर्ट भी सुरक्षित नहीं था. मिडिल ईस्ट एयरलाइंस की फ्लाइट में सवार होने के बाद भी वह सुरक्षित महसूस नहीं कर रही थी. क्योंकि मिडिल ईस्ट का क्षितिज भी युद्ध क्षेत्र की तरह गर्म था.

कोई निश्चितता नहीं थी कि किस क्षण किस तरफ से रॉकेट या मिसाइल विमान को गिरा देगी. लेकिन, सौभाग्य से शहनाब का MEA विमान कुवैत सिटी एयरपोर्ट के रनवे पर सुरक्षित उतरा और उसे एहसास हुआ कि वह जिंदा घर लौट सकती है.

फिर कुवैत शहर से वह नई दिल्ली पहुंची. वहां से गुवाहाटी के हाटीगांव स्थित अपने घर पहुंची. सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि जब तक भारतीय नागरिक युद्धग्रस्त देश दमिश्क से अपने प्रयासों से स्वदेश वापस नहीं लौटी, तब तक उसे भारतीय दूतावास से एक शब्द भी नहीं मिला.

स्वाभाविक रूप से, शहनाब ने भारतीय विदेश मंत्रालय और सीरिया में भारतीय दूतावास की लापरवाही पर खेद और असंतोष व्यक्त किया. बाद में, भारतीय विदेश मंत्रालय वर्तमान में सीरिया से भारतीय नागरिकों को निकालने के लिए एक अभियान चला रहा है. अभियान अभी खत्म नहीं हुआ .; कई भारतीय अभी भी फंसे हुए हैं.

हाल ही में जब गुवाहाटी में उनके आवास पर शहनाब साहिन से मिला, तो वे शांत और संयमित थीं. युद्धग्रस्त देश से घर लौटने का कोई उत्साह नहीं था. शहनाब शाहीन असम सरकार की एसीएस अधिकारी थीं. वे 2019 में एसीएस के पद पर सरकारी सेवा में शामिल हुई थीं.

हालांकि, सरकारी कार्य संस्कृति से निराश शहनाब ने 2022 के अंत में आकर्षक नौकरी छोड़ दी और युद्धग्रस्त क्षेत्रों में मानवीय कल्याण के लिए काम करने के लिए वापस लौट आईं और इतालवी अंतरराष्ट्रीय एनजीओ COSV में शामिल हो गईं.

शहनाब इससे पहले मध्य पूर्व के एक और अशांत देश जॉर्डन में एक अन्य अंतरराष्ट्रीय एनजीओ के लिए काम कर चुकी हैं. सीरिया में करीब दो साल तक काम करने वाली शहनाब के लिए यह कोई आसान काम नहीं था. सीरिया की असद सरकार के शासनकाल में मानवीय कार्य कई मायनों में मुश्किल भी था, क्योंकि उस पर दुनिया के लगभग सभी प्रमुख देशों ने प्रतिबंध लगा रखे थे. शहनाब ने दो घंटे की बातचीत में यह सब समझाया.

চিঅ'এছভিৰ দুই সহকৰ্মীৰ সৈতে ছিৰিয়াৰ যুদ্ধত ক্ষতিগ্ৰস্ত এক স্থানত শ্বেহনাব ছাহিন

मध्य पूर्व में लौटने को तैयार शहनाब

एसीएस अधिकारी की नौकरी छोड़ते ही शहनाब को पता था कि उसका कार्यस्थल काँटों से भरा होगा. हर कदम पर मौत का डर छिपा रहेगा. अब जब शक्तिशाली सशस्त्र विद्रोहियों ने देश पर कब्ज़ा कर लिया है, तो भले ही वे किसी तरह सीरिया से घर लौट आएं, शहनाब को उस मौत का बिल्कुल भी डर नहीं है, न ही उसे इसका कोई अफसोस है. युद्ध की समाप्ति के साथ सीरियाई लोगों का शुरुआती उत्साह और खुशी कम होते ही शहनाब युद्धग्रस्त मध्य पूर्व में लौटने के लिए तैयार है.

 शहनाब के शब्दों में: "यह मेरा जुनून है. जॉब सिक्योरिटी नाम की कोई चीज आज तक मेरे दिमाग में नहीं . जिस फील्ड में काम करना मुझे पसंद है, मैं उसी फील्ड में वापस जाऊंगी. मेरी मानसिकता ऐसी ही बन गई है. मैं बम और बारूद के बीच काम करने की आदी हो गई हूं.

जिंदगी कितनी लंबी है? युद्धग्रस्त इलाकों के लोगों को देखकर मेरी आत्मा रोती है.युद्ध से प्रभावित ऐसे मासूम लोगों की मदद करना मेरी जिम्मेदारी है. युद्ध के बीच में उन्हें कैसे अपने पैरों पर खड़ा होना है, कैसे आत्मनिर्भर बनना है, इस बारे में दिशा-निर्देश देना और उसमें उनकी मदद करना मेरा काम है."

 सीरिया में अपने सामने आई चुनौतियों के बारे में उन्होंने कहा, "सीरिया जैसे देश में काम करना, जो लगातार युद्ध में उलझा हुआ है, सक्रिय संघर्ष क्षेत्र में काम करने से भी ज़्यादा मुश्किल है." शहनाब के अनुसार, जिन्हें पहले जॉर्डन के शरणार्थी शिविर में इसी तरह की नौकरी का अनुभव था, सीरिया में स्थिति ज़्यादा जटिल थी.  हालांकि देश एक था, लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों पर अलग-अलग समूहों का शासन था.



यह अभी भी अनिश्चित है कि मोहम्मद अल-जुलानी के विद्रोही समूह द्वारा पूरे सीरिया पर नियंत्रण करने के बाद देश के लिए क्या भविष्य है. शहनाब ने बशर अल-असद के शासन के दौरान सीरिया में काम किया. इसके लिए उन्हें असद सरकार से तीन-स्तरीय अनुमति की आवश्यकता थी.

सीरिया लंबे समय से दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों के प्रतिबंधों की चपेट में है. इसलिए, पश्चिमी देशों के प्रतिनिधियों को लेकर हमेशा थोड़ी शंका बनी रहती और शहनाब इसका अपवाद नहीं थीं. वे COSV नामक एक इतालवी INGO का प्रतिनिधित्व करती थीं.

पश्चिमी दुनिया के प्रतिनिधियों को तीन चरणों की अनुमति प्राप्त करने के बाद ही सीरिया में काम करने का अवसर मिला. इसके अलावा, देश पर लगाए गए प्रतिबंधों के कारण वे असद शासन की विकास पहलों के लाभ के लिए सीधे काम नहीं कर सकते थे. सारा काम सीधे युद्ध पीड़ितों की आजीविका से जुड़ा होना था.

इसलिए काम का वर्गीकरण बहुत कठिन था. काम मानव कल्याण के आधार पर करना था, लेकिन देश के विकास से संबंधित नहीं. सीरिया में शहनाब को इतालवी संगठन COSV की सारी ज़िम्मेदारियाँ संभालनी थीं. फ़ैसले व्यक्तिगत रूप से और खुद ही लेने थे. क्योंकि शहनाब के अधीन सभी कर्मचारी सीरिया के नागरिक थे.

एक तरफ़ लगातार युद्ध था. दूसरी तरफ़ पश्चिमी देशों के प्रतिबंध थे. इन सबके बीच संतुलन बनाए रखना उनका काम था. कुछ भी गड़बड़ होने पर INGO के फंड के बंद हो जाने का डर हमेशा बना रहता था.कि फंड यूरोप के विकसित देशों जैसे ऑस्ट्रिया, नॉर्वे, इटली और अमेरिका और कनाडा जैसे देशों से आते हैं, जिन्होंने कड़े प्रतिबंध लगा रखे हैं.


 
 कहने की ज़रूरत नहीं कि शहनाब और उनके साथियों का काम सिर्फ़ राहत योजनाओं के ज़रिए लोगों को राहत पहुँचाना ही नहीं, बल्कि युद्ध के मैदान में जीने वाले बदकिस्मत लोगों को उनके पैरों पर खड़ा करना भी था. दिल्ली के सेंट स्टीफ़ंस कॉलेज से मास्टर डिग्री लेने के बाद शहनाब ने वियना विश्वविद्यालय से यूरोपियन स्टडीज़ पूरी की, लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी.

शहनाब ने इटली के ट्यूरिना विश्वविद्यालय से इंटरनेशनल डेवलपमेंट में मास्टर डिग्री हासिल की. तभी से उनका ध्यान ऐसे कामों की ओर गया. संयुक्त राष्ट्र के मानव कल्याण से जुड़े सभी विभागों से नज़दीकी संबंध रखने वाली शहनाब गर्व से दावा करती हैं कि उन्होंने इस काम को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है.

 शहनाब  मध्य पूर्व के युद्ध के मैदान में वापस लौट आएंगी. इस बार शहनाब को एक नई जिम्मेदारी मिली है.  युद्ध के बीच शहनाब को COSV के क्षेत्रीय प्रमुख की जिम्मेदारी सौंपी गई है. हालात शांत होते ही शहनाब इस बार लेबनान जाएंगी.

क्षेत्रीय प्रमुख का पदभार संभालेंगी. गौरतलब है कि हाल ही में हुए अस्थायी युद्ध विराम के बावजूद लेबनान पर इजरायल ने हमला करके उसे तबाह कर दिया है. ऐसे में शहनाब के सामने यह एक कठिन चुनौती होगी. इजरायल की उग्र सेना IDF की लेबनान में अभी भी मजबूत मौजूदगी है.

 किसी भी क्षण अस्थायी युद्ध विराम टूट सकता है और इससे व्यापक युद्ध छिड़ सकता है. इस बार शहनाब का काम इजरायली बमबारी, मिसाइल हमलों से प्रभावित गरीबों की मदद करना और भविष्य की राह दिखाना होगा. जिस तरह युद्ध के बीच में पदोन्नति पाकर शहनाब खुश है, उसी तरह मलबे में तब्दील हो चुका लेबनान देश भी खुश है.

वापस लौटते समय शहनाब के सामने पहाड़ जैसा काम है. इजरायल-लेबनान के बीच अस्थायी युद्ध विराम की तरह ही यह भी शहनाब के लिए एक अस्थायी कार्य विराम है.शहनाब ने कहा,"दिसंबर में सभी विदेशी आईएनजीओ अधिकारी अपने देश चले जाते हैं.

मैं भी घर वापस आना छुट्टी की तरह मानती हूं. जब हालात थोड़े बेहतर हो जाएंगे, तो मैं युद्धग्रस्त मध्यपूर्व वापस चली जाऊंगी. भले ही मेरा शरीर अब घर पर है, लेकिन मैंने अपना मन वहीं छोड़ दिया है. यह मेरा दूसरा घर बन गया है. अगर मैं वहां वापस जाती हूं, तो मेरा मन शांत हो जाएगा. तब तक मैं कुछ दिनों के लिए छुट्टी ले रही हूं." 

(लेखक असम के वरिष्ठ पत्रकार हैं)