साकिब सलीम
अहसान-उल-हक एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिनका नाम भारतीय क्रिकेट के इतिहास में विशेष रूप से दर्ज किया गया.वे न केवल अलीगढ़ कॉलेज की क्रिकेट टीम के पहले मुस्लिम कप्तान बने, बल्कि मध्यकालीन इंग्लैंड में भी उन्होंने अपने क्रिकेट करियर का झंडा गाड़ा.उनका योगदान भारतीय क्रिकेट के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है.उनके जीवन और क्रिकेट के सफर पर एक विस्तृत नजर डालते हैं.
प्रारंभिक जीवन और क्रिकेट की शुरुआत
अहसान-उल-हक का जन्म जालंधर में हुआ था.वे एक पढ़े-लिखे और क्रिकेट के प्रति गहरी रुचि रखने वाले परिवार से थे.उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) से प्राप्त की.
यहीं पर उनकी क्रिकेट यात्रा की शुरुआत हुई.क्रिकेट में उनकी रुचि को आगे बढ़ाया उनके बड़े भाई शौकत अली ने, जिन्होंने अलीगढ़ कॉलेज की क्रिकेट टीम में कप्तानी की थी.शौकत अली के मार्गदर्शन में अहसान-उल-हक ने क्रिकेट खेलना शुरू किया और जल्द ही अपनी क्षमताओं का लोहा भी मंवाया.
अहसान ने 1895में अलीगढ़ कॉलेज क्रिकेट टीम में शामिल होकर अपने करियर की नींव रखी.हालांकि पहले साल में उनका प्रदर्शन निराशाजनक रहा था, फिर भी शौकत अली ने उन्हें टीम से बाहर नहीं किया.अगले दो वर्षों में उनका प्रदर्शन बेहतरीन रहा और वे टीम के सबसे प्रमुख खिलाड़ी बन गए.
इंग्लैंड में क्रिकेट की शुरुआत
हक का क्रिकेट जीवन तब नया मोड़ लिया जब वे 1898में कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए.यहां उन्होंने अपनी क्रिकेट यात्रा को और विस्तार दिया.लंदन में रहते हुए, वे हैम्पस्टेड क्लब से जुड़े और क्लब स्तर पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया.
इसके बाद, 1902में उन्हें मिडिलसेक्स काउंटी क्रिकेट टीम से प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलने का अवसर मिला.इस दौरान उन्होंने इंग्लैंड के सबसे प्रमुख क्लबों और टीमों के खिलाफ क्रिकेट खेला और अपनी बल्लेबाजी क्षमता का लोहा भी मनवाया.
उनके स्ट्रोक्स और बैटिंग स्टाइल ने इंग्लैंड में क्रिकेट प्रेमियों का ध्यान आकर्षित किया.वे बिना किसी प्रयास के तेज और मजबूत ड्राइव खेलने के लिए मशहूर थे.क्रिकेट में उनकी तकनीक को देखते हुए यह आशंका जताई जा रही थी कि अगर वे इंग्लैंड में अधिक समय बिताते तो वे बड़े मुकाम हासिल कर सकते थे.लेकिन इंग्लैंड में उनके क्रिकेट करियर के बीच ही उनका जीवन एक नई दिशा में मुड़ गया.
भारत लौटने की मजबूरी
हक को 1902 में इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत लौटना पड़ा, क्योंकि उन्हें जालंधर में अपने परिवार के साथ रहना था और बैरिस्टर के रूप में अपना करियर शुरू करना था.हालांकि, इंग्लैंड में उनका क्रिकेट करियर सही दिशा में जा रहा था, लेकिन पेशेवर और पारिवारिक प्रतिबद्धताओं के कारण उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा.
इंग्लैंड में रहते हुए, हक ने क्लब क्रिकेट और काउंटी क्रिकेट में महत्वपूर्ण प्रदर्शन किए थे, लेकिन भारत लौटने के बाद उन्हें क्रिकेट को छोड़ने का कोई सवाल नहीं था.यहां उन्होंने भारतीय क्रिकेट के अन्य पहलुओं पर ध्यान दिया और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) के गठन में भी अहम भूमिका निभाई.
भारत में क्रिकेट का योगदान
भारत लौटने के बाद भी अहसान-उल-हक ने क्रिकेट खेलना जारी रखा और अलीगढ़ कॉलेज क्रिकेट टीम की कप्तानी की.इसके साथ ही, वे भारत में क्रिकेट के विभिन्न आयोजनों और क्लबों से जुड़े रहे.1903में, उन्होंने ऑक्सफोर्ड ऑथेंटिक्स के खिलाफ अलीगढ़ की टीम का नेतृत्व किया और इस मैच में उन्होंने सबसे ज्यादा रन बनाकर टीम की जीत में अहम योगदान दिया.
अहसान-उल-हक ने भारत में क्रिकेट को और भी सम्मानित किया.वे उन समय के सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ियों में गिने जाते थे और उनके खेल की तकनीक को भारत में एक आदर्श माना जाता था.उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए उन्हें क्रिकेट की दुनिया में एक अग्रणी खिलाड़ी के रूप में देखा जाता था.
न्यायिक सेवा और राजनीति में कदम
अहसान-उल-हक ने क्रिकेट के अलावा न्यायिक सेवाओं में भी अपने कदम जमाए.वे पंजाब में मुख्य न्यायाधीश और मंत्री के रूप में कार्यरत रहे.इसके अलावा, उनका जीवन सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण था.अहसान ने भारतीय राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज की.
परिवार और व्यक्तिगत जीवन
अहसान-उल-हक का परिवार भी विशेष रूप से चर्चित था.उनकी एक बेटी बेगम पारा, 1940और 50के दशकों की मशहूर अभिनेत्री थीं, जिन्होंने दिलीप कुमार के भाई नासिर खान से शादी की थी.उनके पोते अभिनेता अयूब खान हैं.अहसान के परिवार में और भी कई प्रसिद्ध व्यक्तित्व थे, जिनमें उनकी दूसरी बेटी ज़रीना रुखसाना सुल्ताना शामिल थीं, जो संजय गांधी की करीबी सहयोगी और अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ थीं.
संघर्ष और सफलता
उनकी जिंदगी में कई ऐसे मौके आए, जब उन्हें अंग्रेजों और अन्य देशों के खिलाड़ियों से भेदभाव का सामना करना पड़ा.एक घटना को याद करते हुए उन्होंने बताया कि, "अपने शुरुआती दिनों में मुझे अंग्रेज़ी शब्दों का उच्चारण करना बहुत मुश्किल लगता था और 'हाउज़ दैट' कहना मेरी क्षमता से बाहर था." उन्होंने अपने जीवन के इस कठिन समय को भी साहस और धैर्य से पार किया और क्रिकेट में सफलता प्राप्त की.
योगदान और विरासत
अहसान-उल-हक का नाम भारतीय क्रिकेट के इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा.वे न केवल एक बेहतरीन क्रिकेटर थे, बल्कि भारतीय क्रिकेट के विकास में उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता.उनके खेल ने भारतीय क्रिकेट की नींव को मजबूत किया और उनकी मेहनत और संघर्ष ने उन्हें एक प्रेरणा स्रोत बना दिया.
अहसान-उल-हक के योगदान और उनके संघर्ष को याद करते हुए आज भी क्रिकेट जगत में उनकी विरासत जीवित है.उनके जैसा खिलाड़ी हमेशा प्रेरित करता है, और उनका नाम भारतीय क्रिकेट के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा.